-अजय मलिक
पराधीनता यानी गुलामी अनुवांशिकी को भी प्रभावित करती है। इस विषय पर अगर कोई शोध या खोज नहीं हुई है तो होनी चाहिए। हम सदियों तक गुलाम रहे परिणामत: गुलामी समाज में अंगीकार और सहज स्वीकार हो गई। गुलामी ने हमारी सोच बदली, रहन-सहन बदला, यहाँ तक कि काफी कुछ संस्कार भी बदल दिए। हमने आधुनिकता के नाम पर बहुत कुछ अपनाया। अपनी आवश्यकताओं को अपने प्राकृतिक संसाधनों से पूरा करने की बजाय हमने आयातित संसाधनों से पूरा करना सीखा। हमारी अधिकाँश आवश्यकताएं भी आयातित हुईं। इस प्रक्रिया को हमने विकास का नाम दिया। कुछ लोग इस प्रक्रिया में सर्व संसाधन सम्पन्न हो गए याकि विकसित हो गए। बाकी ने जो उनके पास था उसे पिछडा हुआ मानकर छोड़ दिया और जो नहीं था उसे न मिल पाने की निराशा में घर फूँक तमाशा देखने का निर्णय लिया। यह सारी प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली सहज और सतत प्रक्रिया में बदल गई।
मेरा यह मानना है कि अंग्रेजी के चलन और निरंतर विस्तारित होते जाने के पीछे भी यही गुलामी का अनुवांशिक प्रभाव है। एक और प्रवृत्ति मैंने महसूस की है जो बहुत गहरे हमारी अनुवांशिकी को प्रभावित कर चुकी है और वह है निरंतर अपनी विरासत के प्रति नकारात्मक सोच का परिपक्व होते जाना। यह प्रवृत्ति विशेषकर हिंदी भाषियों में प्रचुरता से देखी जा सकती है। आप सिर्फ एक बार कहकर देखिए कि हिंदी में या हिंदी से भी काम चल सकता है। फिर तर्कों या कुतर्कों का ऐसा अम्बार लगा दिया जाएगा कि आप भी निराशा की अनुवांशिक नकारात्मक सोच से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
यहाँ मैं सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूंगा। जब भी आप अपनी भाषाओं की या हिंदी की बात उठाते हैं तुंरत अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय होने का अलाप-जाप शुरू हो जाता है । आपने अंग्रेजी का नाम तक नहीं लिया है मगर गुणसूत्रों में समा चुकी अंग्रेजी स्वत: प्रकट हो जाएगी। ऐसे-ऐसे लोग जिनकी किसी पीढ़ी में कोई एक प्रांत से दूसरे प्रांत तक नहीं गया, विदेशों में जाने की लुभावनी कल्पना में खो जाते हैं और बिना अंगेजी के हो सकने वाली संभावित दुर्गति के प्रति चिंता प्रकट करने लगते हैं । अगर समय रहते आपने उन्हें नहीं संभाला तो पीड़ा से रोना भी शुरू कर सकते हैं।
आप उनसे पूछिए- "क्या आपके पास पासपोर्ट है?" उनका जवाब नकारात्मक होगा।
आप कहेंगे- "बनवा लीजिए।"
वे कहेंगे- "जब जरूरत होगी बनवा लेंगे. अभी तो कोई जरूरत है नहीं, फिर क्यों पचड़े में पड़ना। -बिना बात का खर्चा करने से क्या फायदा?"
अच्छे से अच्छे धुरंधर अंग्रेजीदाँ हिन्दुस्तानी की अँग्रेज़ी देखिए, फिर उनकी अपनी मातृभाषा देखिए, फिर इन दोनों की परिशुद्धता परखिए। आप पाएंगे कि वे अपनी मातृभाषा की अनेक त्रुटियों से वाकिफ हैं मगर अँग्रेज़ी की परिशुद्धता पर उन्हें खालिश देशी घी जैसा विश्वास है। अरे भाई जब आप जिस मातृभाषा से अभिव्यक्ति करना सीखे उसे सही से नहीं जान-समझ पाए तो क्या ख़ाक खरापन ला पाएंगे अँग्रेज़ी में?
पर यहाँ भी उनका जवाब मिल सकता है "-अँग्रेज़ी हमारी अनुवांशिकी में समा चुकी है इसलिए उसकी परिशुद्धता संदेह से परे है। मातृभाषा माँ के आँचल में ढूध पीने के दौर तक सीमित रहती है।"
संघ की राजभाषा हिंदी है और ये एक संवैधानिक सत्य है। सरकार की राजभाषा नीति हमारी परम्पराओं के अनुरूप प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना पर आधारित है। ऐसा होने में बुराई ही क्या है? मैं ये समझ पाने में असमर्थ हूँ कि हर कार्य के लिए डंडे के जोर की अनिवार्यता ही क्यों होंनी चाहिए?
प्रेरणा और प्रोत्साहन से क्या अभिप्राय है? सद्भावना का क्या अर्थ है? ये सारी बातें हम सब बखूबी जानते हैं मगर अनुवांशिक स्तर पर गुणसूत्रों में समा चुकी गुलामी और उससे उपजी नकारात्मकता - हर अच्छी बात को सिरे से नकार देने को विवश कर देती है। प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना अँग्रेज़ी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए है या हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए ? क्या प्रेरणा का अभिप्राय असत्य को बढावा देने की प्रेरणा से है? क्या हम झूठ बोलने के लिए भी अनुवांशिक कारणों से बाध्य हैं ? क्या प्रोत्साहन झूठ को दिए जाने का प्रावधान है? क्या दो जमा दो बराबर पच्चीस या पचास कर देने से सद्भावना बढ़ती है?
यदि गुलामी के अनुवांशिक कारणों से इतर सोचा जाए तो सत्य को समझाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। मगर अँधेरे में रहते-रहते हम सत्य की रोशनी की चकाचौंध को झेल पाने की शक्ति खो चुके हैं इसलिए सबसे ज्यादा घबराहट सच के बारे में सोचने से ही होती है।
एक और तर्क दिया जाता है राजभाषा नियमों के हवाले से कि जब तक सभी राज्य न चाहें तब तक अँग्रेज़ी का प्रयोग किया जा सकेगा। ठीक है मगर क्या यह प्रावधान किसी भी तरह हिंदी के प्रयोग को न किए जाने की बाध्यता प्रतिबिंबित करता है? इससे हिंदी का प्रयोग दंडनीय तो नहीं हो जाता।
मैंने अनेक मंचों से इस मुद्दे पर संसद और विधान मंडलों के संवैधानिक अधिकारों की चर्चा की है, महामहिम राष्ट्रपति जी के हिंदी के प्रयोग से सम्बंधित आदेशों का हवाला देकर स्पष्ट किया है कि सरकार की राजभाषा नीति कहीं से भी हिंदी के प्रयोग को बाधित नहीं करती । यह उतनी ही सशक्त है जितनी की अन्य नीतियाँ। राजभाषा अधिनियम भी उतना ही सशक्त है जितना कोई अन्य अधिनियम। ये सिर्फ नज़रिये यानी दृष्टिकोण का अंतर है -जैसे कि आधा गिलास पानी, -कोई उसे आधा भरा मानता है तो कोई आधा खाली। नकारात्मक सोच से निकलकर अपने स्वाभिमान को सँजोकर देखने से हम सच्चाई के अधिक करीब पहुँच सकते हैं अन्यथा मुझे यही कहना पड़ेगा–"पराधीन पीढ़ियों सुख नाहिं।"
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