Aug 17, 2009

"जी. एम. साहब का गणित " - अशिष्ट

जी. एम. साहब का गणित -अशिष्ट
(अशिष्ट जी की एक और कथा पेश है )
तबस्सुम या तमन्ना ऐसा ही कुछ नाम था उस नन्हीं सी भोली-भाली बच्ची का। कक्षा छः के उस सेक्शन में कुल पच्चीस बच्चे थे। तबस्सुम की सहेली का नाम था आयशा। आयशा के पिता एक बड़े बैंक में जनरल मैनेजर यानी जी. एम. थे । दोनों सहेलियों में कोई ईर्ष्या- द्वेष जैसी भावना होने का सवाल ही नहीं उठता था। दोनों खूब मन लगाकर पढ़तीं , खूब मेहनत करतीं। स्कूल से जो भी काम घर पर करने के लिए दिया जाता दोनों पूरा कर लातीं। तबस्सुम पढ़ने में तेज़ थी जबकि आयशा औसत दर्जे की छात्रा थी। छमाही परीक्षा में हिंदी और गणित में तबस्सुम को शत-प्रतिशत अंक मिले लेकिन आयशा हिंदी में चालीस फीसदी तथा गणित में मात्र पचास फीसदी नंबर ही पा सकी।
दोनों सहेलियों को जब उत्तर-पुस्तिकाएं घर पर माता-पिता को दिखाने के लिए दी गईं तो दोनों ने एक दूसरे की उत्तर पुस्तिकाएं स्वयं भी देखीं। तबस्सुम के सारे उत्तर सही थे जबकि आयशा के हिंदी और गणित में आधे से ज्यादा उत्तर गलत थे। दोनों सहेलियां फिर भी खुश थीं। किसी बात का कोई गिला शिकवा उन्हें नहीं था। अगले दिन जब आयशा स्कूल आई तो उदासी उसके चहरे से साफ झलक रही थी। तबस्सुम के पूछने पर आयशा ने अपने पिता की डांट-फटकार के बारे बताया ।
तबस्सुम ने कहा- "कोई बात नहीं...पापा तो डांटते ही रहते हैं । अबकी बार और अच्छे से परीक्षा लिखना , सब ठीक हो जाएगा।"
"पर तबस्सुम पापा दो दिन पहले दफ्तर से कुछ परचे जांचने के लिए लाए थे... एक पर्चे में सारे सवालों के जवाब सही थे जिसमें पापा ने पचास में से पच्चीस नंबर दिए जबकि दूसरे पर्चे में आधे से ज्यादा सवालों के जवाब गलत थे जिसमें पापा ने पचास में से अस्सी नंबर दिए... " -आयशा ने कहा।"
"-पर ऐसा कैसे हो सकता है ?" - तबस्सुम ने सहज भाव से पूछा।
"-मम्मी ने भी पापा से यही पूछा था। फिर मम्मी-पापा में कुछ देर बहस भी हुई थी।"
दोनों सहेलियां इस सवाल का जवाब माँगने मेरे पास आईं और मैं निरुत्तर हो गया। जनरल मैनेजर साहब तो ग़लत हो ही नहीं सकते थे। उनका गणित का ज्ञान भी मुझ नाचीज़ की तुलना में कई गुना अधिक था। फिर ऐसा कैसे हो सकता था कि आधे सवाल गलत करने वाले को पूर्णांक से भी पचास फीसदी नंबर ज्यादा मिलें ...और सारे सवाल सही करने वाला पचास में से पच्चीस भर पाए !!
एक दिन जी. एम. साहब से मिलने का सौभाग्य मिला। मैंने झिझकते हुए दोनों बच्चियों की दुविधा उन्हें बताई।
वे खिलखिलाकर हँस पड़े फिर बड़ी ही गुरु गंभीरता से उन्होंने कहा- " मास्टर जी, हर काम के अपने तौर-तरीके होते हैं। बच्चे क्या जाने कि काम का कितना दबाव होता है ... बैंक के काम का एक अलग ढंग होता है। सब कुछ मैनेज करना होता है। आप बिल्कुल परेशान मत होइए। बच्चे तो अभी नासमझ हैं। "
मेरे चेहरे पर उलझन देखकर उन्होंने समझाया -" मूलधन... फिर ब्याज... फिर ब्याज पर ब्याज...यानी चक्रवृद्धि ब्याज , आप ये सब तो जानते हैं न । बैंक क़र्ज़ देते समय आपसे कितना कुछ लिखवाता है । पचास तरह के कायदे क़ानून में बांधने के बाद ही आपको ऋण दिया जाता है। ... जब आप खाता खोलते हैं तो भी आपसे ही लिखवाता है और आपको कागज़ का एक टुकडा तक नहीं देता ...आजकल पासबुक तक नहीं दी जाती। "
एक अध्यापक के चेहरे पर अजीब सी मूर्खता के भाव देखकर उन्हें हैरानी हुई ।
उन्होंने मुझ नासमझ को समझाने की आखिरी कोशिश करते हुए कहा-
" अच्छा ज़रा इस तरह सोचिए - हम आजकल आपको आठ फीसदी ब्याज पर क़र्ज़ देते हैं और आपकी फिक्स्ड डिपाजिट पर कई बार नौ फीसदी ब्याज आपको देते हैं। इतने पर भी मुनाफा कमाते हैं । जबकि आपके हिसाब से इस तरह हमारे पास तो कुछ भी नहीं बचना चाहिए ? मगर हम इसमें भी बचाते हैं और ...हम सबको पगार भी मिलती है.. बताइए कैसे ?"
मेरे पास निरुत्तर हो जाने के अलावा कोई चारा न था। मेरी पढ़ाई-लिखाई बिना दीवारों के टाट वाले स्कूल में हुई थी ...अपने पिछडेपन पर मैं बेहद शर्मिन्दा था।


No comments:

Post a Comment