वो बारहवीं वाले मेरे गुरुजन
-अजय मलिक
मेरठ कॉलेज मेरठ में यह विचित्र घटना घटी थी। कारण में नहीं जानता, उन्होंने मेरे पिताजी के सेना से सेवानिवृत्ति के प्रमाण-पत्र को अवैध ठहरा दिया था। 1983 में वे शिक्षा संकाय के अध्यक्ष थे और शायद ......के रहने वाले थे। मेरी जगह उन्होंने किसे प्रवेश दिया यह भी अब मुझे याद नहीं है। कुल मिलाकर उन्होंने मेरिट से मेरा नाम निकाल दिया था। अन्याय के विरूद्व आवाज़ उठाने का सही तरीका मैं नहीं जानता था। पिताजी ने कई जगह पत्र आदि लिखे थे कुछ ज़वाब वगैरा भी आए थे...
उनकी अन्यायपूर्ण जिद को झेलकर मैं कॉलेज के मुख्य द्वार पर आ गया था। वहां मज़मा जैसा कुछ लगा था। एक साधू या संत या पता नहीं कौन बैठे थे और उनके चारों ओर बीस-पच्चीस युवक खड़े थे। मैं भी भीड़ का हिस्सा बनकर खडा हो गया। दिसम्बर का महीना था इसलिए झुंड में खड़े होकर राहत ही महसूस हुई।
संत महाराज एक अठन्नी में भविष्य से जुड़े एक सवाल का जवाब दे रहे थे। एक छोटी सी पर्ची पर सवाल लिखा जाता और उसी पर्ची पर साधू महाराज जवाब लिख देते। खीझ खाया हुआ शरारती मन साधू महाराज को को झटका देने को कुलांचे भरने लगा। बी एड के दाखिले समाप्त हो चुके थे इसलिए सबसे बेतुका सवाल इसी विषय से जुड़ा पूछना अच्छा लगा। मैंने पर्ची पर लिखा- "क्या इस सत्र में बी एड में दाखिला मिलेगा?"
जवाब वही मिला जिसकी मुझे आशा थी।
उनहोंने लिखा- " अवश्य मिलेगा।"
मैं अपने तौर पर साधू महाराज को हरा चुका था। इस जीत की ख़ुशी में संकाय अध्यक्ष से मिली कडुवाहट थोडी कम हो गई थी ।
लौटा तो फिर गाँव का वही घर-वही घेर...वही खेत, वही कुंडीवाला कुँआ...
इस घटना के लगभग एक माह बाद उस दिन छब्बीस जनवरी यानी गणतंत्र दिवस की छुट्टी थी। साधू महाराज और बी एड दोनों ही को मैं पूरी तरह भुला चुका था, इसके सिवाय कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। पचास पैसे ठगने का खेल ही तो खेला था साधू जी महाराज ने...
छब्बीस जनवरी को डाकखाने की भी छुट्टी रहती है, चिट्ठी-पत्री सब बंद। दोपहर बाद करीब चार बजे एक लड़का आया और एक लिफाफा मुझे देकर बोला- सुरेशपाल मास्टर जी ने आपको आज ही देने के लिए कहा था। लिफाफे में देवेन्द्र की चिट्ठी थी-जिसमें लिखा था- "हर हाल में सत्ताईस जनवरी को सुबह आठ बजे से पहले खुर्जा पहुँचना है। तुम्हारा नाम बी एड की दूसरी लिस्ट में सबसे पहला है मगर हैड आफ डिपार्टमेंट दूसरे नंबर पर एक लड़की रेखा को दाखिला देना चाहते हैं, इसीलिए चौबीस तारीख को यह लिस्ट सूचना पट पर लगा दी गई है। मेरे पास तुम्हारा पता नहीं है। मैं यह पत्र श्री सुरेश पाल सिंह जी को इस उम्मीद में लिख रहा हूँ कि यदि तुम्हारी किस्मत अच्छी हुई तो यह पत्र किसी तरह तुम तक जरूर पहुँच जाएगा।"
यह चमत्कार ही था कि चौबीस जनवरी को साधारण डाक से भेजा गया वह पत्र पच्चीस को कलौंदा गाँव में सुरेश पाल जी को मिला और छब्बीस को एन सी सी परेड के लिए मेरे गाँव से गए उस लड़के को मास्टर जी ने पूरी हिफाजत से मुझ तक पहुँचाने का बदोबस्त कर दिया। यदि उस दिन गुरुदेव ने कृपा नहीं की होती तो क्या मैं बी एड कर पाता? -क्या के पी अग्रवाल साहब से मिल पाता...!!
मैं उस अज्ञात साधू- महात्मा के पचास पैसे के एवज में मिले चमत्कारी आशीर्वाद के प्रति नतमस्तक हो गया। उनकी शक्ल-सूरत तक विस्मृत हो चुकी थी। सुरेश पाल जी से मिले मुझे तब पांच साल हो चुके थे। वे जीव विज्ञान पढ़ाते थे और गज़ब का हारमोनियम बजाते थे। प्रार्थना के समय उनके हारमोनियम के सुरों के साथ जब -"वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं ..." के सामूहिक स्वर उभरते तो पूरा वातावरण ईश्वरमय हो उठता.
(जारी )
उनकी अन्यायपूर्ण जिद को झेलकर मैं कॉलेज के मुख्य द्वार पर आ गया था। वहां मज़मा जैसा कुछ लगा था। एक साधू या संत या पता नहीं कौन बैठे थे और उनके चारों ओर बीस-पच्चीस युवक खड़े थे। मैं भी भीड़ का हिस्सा बनकर खडा हो गया। दिसम्बर का महीना था इसलिए झुंड में खड़े होकर राहत ही महसूस हुई।
संत महाराज एक अठन्नी में भविष्य से जुड़े एक सवाल का जवाब दे रहे थे। एक छोटी सी पर्ची पर सवाल लिखा जाता और उसी पर्ची पर साधू महाराज जवाब लिख देते। खीझ खाया हुआ शरारती मन साधू महाराज को को झटका देने को कुलांचे भरने लगा। बी एड के दाखिले समाप्त हो चुके थे इसलिए सबसे बेतुका सवाल इसी विषय से जुड़ा पूछना अच्छा लगा। मैंने पर्ची पर लिखा- "क्या इस सत्र में बी एड में दाखिला मिलेगा?"
जवाब वही मिला जिसकी मुझे आशा थी।
उनहोंने लिखा- " अवश्य मिलेगा।"
मैं अपने तौर पर साधू महाराज को हरा चुका था। इस जीत की ख़ुशी में संकाय अध्यक्ष से मिली कडुवाहट थोडी कम हो गई थी ।
लौटा तो फिर गाँव का वही घर-वही घेर...वही खेत, वही कुंडीवाला कुँआ...
इस घटना के लगभग एक माह बाद उस दिन छब्बीस जनवरी यानी गणतंत्र दिवस की छुट्टी थी। साधू महाराज और बी एड दोनों ही को मैं पूरी तरह भुला चुका था, इसके सिवाय कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। पचास पैसे ठगने का खेल ही तो खेला था साधू जी महाराज ने...
छब्बीस जनवरी को डाकखाने की भी छुट्टी रहती है, चिट्ठी-पत्री सब बंद। दोपहर बाद करीब चार बजे एक लड़का आया और एक लिफाफा मुझे देकर बोला- सुरेशपाल मास्टर जी ने आपको आज ही देने के लिए कहा था। लिफाफे में देवेन्द्र की चिट्ठी थी-जिसमें लिखा था- "हर हाल में सत्ताईस जनवरी को सुबह आठ बजे से पहले खुर्जा पहुँचना है। तुम्हारा नाम बी एड की दूसरी लिस्ट में सबसे पहला है मगर हैड आफ डिपार्टमेंट दूसरे नंबर पर एक लड़की रेखा को दाखिला देना चाहते हैं, इसीलिए चौबीस तारीख को यह लिस्ट सूचना पट पर लगा दी गई है। मेरे पास तुम्हारा पता नहीं है। मैं यह पत्र श्री सुरेश पाल सिंह जी को इस उम्मीद में लिख रहा हूँ कि यदि तुम्हारी किस्मत अच्छी हुई तो यह पत्र किसी तरह तुम तक जरूर पहुँच जाएगा।"
यह चमत्कार ही था कि चौबीस जनवरी को साधारण डाक से भेजा गया वह पत्र पच्चीस को कलौंदा गाँव में सुरेश पाल जी को मिला और छब्बीस को एन सी सी परेड के लिए मेरे गाँव से गए उस लड़के को मास्टर जी ने पूरी हिफाजत से मुझ तक पहुँचाने का बदोबस्त कर दिया। यदि उस दिन गुरुदेव ने कृपा नहीं की होती तो क्या मैं बी एड कर पाता? -क्या के पी अग्रवाल साहब से मिल पाता...!!
मैं उस अज्ञात साधू- महात्मा के पचास पैसे के एवज में मिले चमत्कारी आशीर्वाद के प्रति नतमस्तक हो गया। उनकी शक्ल-सूरत तक विस्मृत हो चुकी थी। सुरेश पाल जी से मिले मुझे तब पांच साल हो चुके थे। वे जीव विज्ञान पढ़ाते थे और गज़ब का हारमोनियम बजाते थे। प्रार्थना के समय उनके हारमोनियम के सुरों के साथ जब -"वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं ..." के सामूहिक स्वर उभरते तो पूरा वातावरण ईश्वरमय हो उठता.
(जारी )
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