-प्रतिभा मलिक
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साँप आज भी हैं शहर में
पूरी असभ्यता से विचरते हैं वे
जंगल-बंजर-गाँव-शहर के
हर गली-कूंचे को शान से डसते हुए।
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अब सभ्यता उनसे संवरती है।
उनकी फुफकार पर
सादर सलाम करती है।
अब कोई कुछ नहीं पूछता उनसे ...
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(अज्ञेय जी सुप्रसिद्ध कविता है - साँप... आपने भी जरूर पढ़ी-सुनी होगी!)
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