May 31, 2013

May 29, 2013

May 28, 2013

अब दिल्ली दूर नहीं ...

शीर्षक से किसी भ्रम में मत पड़ियेगा। एक हिन्दी एवं संस्कृत ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकोग्निशन सॉफ्टवेयर की जानकारी देने मात्र के लिए यह पोस्ट लिखी जा रही है। अब वह दिन दूर नहीं है जब अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की तरह हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी संपूर्ण ओसीआर उपलब्ध हो जाएगी। एक ऐसी ही ओसीआर का लिंक नीचे दिया जा रहा है। इसकी 199 पाउंड यानी 17000 रुपए कीमत पढ़कर मैं भी बस बेहोश होते-होते बचा हूँ। इतने पर भी इसका डेमो मुफ्त में आजमाने में कोई बुराई नहीं है। जरा आप भी कोशिश कीजिए और मन करे तो प्रतिक्रिया भी दीजिए कि दिल्ली अभी और कितनी दूर है!
 

http://www.indsenz.com/int/index.php

May 22, 2013

कला फिल्मों की कला


- अजय मलिक
      आज हम चर्चा कर रहे है कला फिल्मों के कला पक्ष की। यह विषय कई मायनों में बेहद मौजू भी है। वजह बड़ी साफ है 03 मई, 2013 को बॉम्बे टॉकिज़ फिल्म के प्रदर्शित होने के साथ ही भारतीय सिनेमा 100 साल का गबरू जवान हो गया। मई 1913 में मौन फिल्म राजा हरिश्चंद्र के माध्यम से जिस भारतीय सिनेमा की नींव दादा साहेब फाल्के ने डाली थी उसने पिछले 100 वर्षों से हर शुक्रवार जहां निर्माता-निर्देशकों और कलाकारों के दिल की धड़कने बेकाबू कीं वहीं दूसरी ओर आम आदमी यानी दर्शकों के मनबहलाव के लिए नित नई दुनियाँ रची।
      दादासाहेब फाल्के ने जिनका वास्तविक नाम धुंडिराज गोविन्द फाल्के था, 1913 में मोहिनी भस्मासुर का निर्माण भी किया। 14 मार्च 1931 को भारतीय सिनेमा जगत की पहली सवाक फिल्म आलम आरा पदर्शित हुई। नितिन बोस के निर्देशन में साल 1935 मे प्रदर्शित फिल्म धूपछांव से हिंदी फिल्मो मे पार्श्वगायन की शुरूआत हुई। धीरे-धीरे  इन चलती-फिरती तस्वीरों को कैद करने वालों की फेहरिश्त में आर्देशिर इरानी,  बाबू राव पेंटर,  धीरेन्द्र गांगुली, नरेश मित्रा, केदार शर्मा, वी शांताराम, अमय चक्रवर्ती, गुरूदत्त, चेतन आनंद, राजकपूर, महबूब खान, कमाल अमरोही जैसे अनेक महान फ़िल्मकारों के नाम जुडते चले गए।
      इन 100 वर्षों में फिल्में सिर्फ चलती-फिरती तस्वीरें भर नहीं रह गईं बल्कि कलात्मक अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम भी बनकार उभरीं।  कला, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, गीत, संगीत, ध्वनि यानी साउंड, अदाकारी, फोटोग्राफी, प्रलेखीकरण आदि सभी कुछ फिल्मों के जरूरी तत्व बनते चले गए। मूक फिल्मों के बाद बोलती फिल्मों का दौर आया, फिर एक दिन श्वेत-श्याम फिल्में रंगिनियों से भर गईं। फिल्मों के त्रियामीं दौर यानी 3 डी तक पहुँचते-पहुँचते तकनीक के विकास के कारण ध्वनि के स्तर पर भी मोनो, स्टीरियो, डिजिटल जैसे अनेक सफल प्रयोग हुए। सिनेमा मनोरंजन का बहुत बड़ा उद्योग बन गया। कुल मिलाकर इन सौ सालों में चमकते-दमकते सिनेमा में अगर कुछ जोड़ना बाकी बचा है तो वह है सुगंध यानी महक।  फिल्म एक कृत्रिम यथार्थ है। एक ऐसी वास्तविकता जो कभी थी ही नहीं और शायद कभी हो भी नहीं सकती है मगर फिर भी रच दी गई है और अंधेरे में रुपहले परदे पर जीवंत प्रदर्शित की जा सकती है, वह फिल्म है। 
      पिछले 100 सालों में यह प्रश्न बार - बार उठाया गया  है कि आखिर फिल्म बनाई क्यों जाती है, किसके लिए बनाई जाती है? कोई भी निर्माता या फ़िल्मकार या कलाकार अपनी बात अपने तक सीमित रखने के लिए कोई रचना या अभिव्यक्ति नहीं करता। वह अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी अनुभूति को दूसरों तक पहुंचाने के लिए सृजन करता है। कला जीवन की साधना है, जीविका का साधन नहीं। कला जब कलाकार की जीविका का साधन भर तक सीमित होने लगती है तो व्यवसाय बन जाती है।

"कला फिल्मों का कला पक्ष"



5 मई 2013 को आकाशवाणी चेन्नै से प्रसारित वार्ता 

May 20, 2013

न्यायालय की कसौटी पर खरी :: राजभाषा


मिथिलेश कुमार सिंह के मामले में दिनांक: 01-05-2013 को पारित माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश राजभाषा के मामले में पारित अब तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आदेश है। यह आदेश राजभाषा(ओं का) अधिनियम 1963 और राजभाषा नियम 1976 की वैधानिक स्थिति को स्पष्ट करता है। यह आदेश राजभाषा नीति के जानकारों और गैर जानकारों दोनों के लिए एक नया अध्याय है। इस अध्याय से यह एहसास भी होना चाहिए कि प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना से राजभाषा नीति का कार्यान्वयन सुनिश्चित कराना एक सरकारी प्रक्रिया हो सकती है मगर इसके नाम पर संसद द्वारा पारित राजभाषा अधिनियम, नियमों तथा महामहिम राष्ट्रपति के आदेशों के मामले में अनदेखी करने की छूट नहीं दी जा सकती। जो ऐसा मानते हैं, वे केवल तब तक निश्चिंत रह सकते हैं जब तक ऐसे मामले न्यायालय के समक्ष विचारार्थ नहीं जाते। लेकिन इस आदेश के माध्यम से माननीय न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायालय की दृष्टि में राजभाषा अधिनियम एवं नियमों का अनुपालन करना और कराना भी वैधानिक अनिवार्यता है।
एक बार फिर से उक्त आदेश का लिंक नीचे दिया जा रहा है, राजभाषा नीति के कार्यान्वयन से जुड़े लोग इसे जरूर पढ़ें -

http://courtnic.nic.in/supremecourt/temp/sc%201072312p.txt 

पुनश्च:
माननीय उच्चतम न्यायालय का एक आदेश बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं में इलेक्ट्रानिक उपकरणों में द्विभाषिकता के मामले में भी आ चुका है जिसके अनुसार जहां भी संभव (Feasible) हो इलेक्ट्रानिक उपकरणों, कंप्यूटर आदि में द्विभाषिकता होनी चाहिए। एक आदेश केरल की राजभाषा मलयालम के मामले में भी 17 अगस्त 1998 को केरल उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया जा चुका है।


हिन्दी सीखने के लिए एक और कड़ी

यह लिंक श्री प्रवीण कुमार ने मेल से भेजा है। हिन्दी सीखने वालों के लिए सचमुच बड़ी उपयोगी सामग्री है इस साइट पर । एक बार क्लिक तो कीजिए -

http://hindilanguage.info/overview/

May 14, 2013

राजभाषा संबंधी पदों एवं पदनामों में एकरूपता लाए जाने संबंधी माननीय सचिव राजभाषा का अर्धशासकीय पत्र


(राजभाषा विभाग की वेबसाइट rajbhasha.gov.in से साभार )

सुप्रीम कोर्ट में जीत गई हिंदी

(सुप्रीम कोर्ट में जीत गई हिंदीः हिंदी अनुवादक तथा फेसबुक से साभार)
राजभाषा का तमगा रखने वाली सब जगह से हार चुकी हिंदी आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में जीत गई। सुप्रीम कोर्ट ने विभागीय कार्यवाही और सजा का आदेश सिर्फ इसलिए निरस्त कर दिया कि कर्मचारी द्वारा मांगे जाने पर भी उसे हिंदी में आरोपपत्र नहीं दिया गया, जबकि कानूनन केंद्रीय कर्मचारी हिंदी या अंग्रेजी जिस भाषा में चाहे आदेश या पत्र की प्रति मांग सकता है। साल में एक बार हिंदी पखवाड़ा मनाकर हिंदी के प्रति कर्तव्य की इतिश्री समझने वाले अंग्रेजी दां अफसरों के लिए ये फैसला बड़ी नसीहत है।
सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीतने वाले नौसेना के कर्मचारी मिथलेश कुमार सिंह की याचिका केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) व बांबे हाई कोर्ट ने खारिज कर दी थी। कैट और हाई कोर्ट ने नौसेना की यह दलील मान ली थी कि कर्मचारी अनपढ़ नहीं है। वह स्नातक है और उसने अपना फार्म अंग्रेजी में भरा था, इसलिए आरोपपत्र हिंदी में न दिये जाने के आधार पर विभागीय जांच रद नहीं की जा सकती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एचएल दत्तू और जस्टिस जेएस खेहर की पीठ ने कर्मचारी के हक में फैसला देते हुए वेतनमान में कटौती का 4 जनवरी 2005 का नौसेना का आदेश निरस्त कर दिया। पीठ ने कैट और हाई कोर्ट का फैसला भी खारिज कर दिया।
केंद्रीय कर्मचारियों के सर्विस रूल 1976 के नियमों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि अगर केंद्र सरकार किसी कर्मचारी की अर्जी,जवाब या ज्ञापन हिंदी में प्राप्त करती है तो उसे उसका उत्तर हिंदी में ही देना होगा। नियम 7 कहता है कि अगर कोई कर्मचारी सेवा से संबंधित किसी नोटिस या आर्डर की प्रति जिसमें विभागीय जांच की कार्यवाही भी शामिल है, हिंदी या अंग्रेजी जिस भाषा में मांगता है उसे बिना देरी वह दी जाएगी। कोर्ट ने कहा कि यह नियम इसलिए बनाया गया, ताकि किसी भी कर्मचारी को हिंदी या अंग्रेजी में निपुण न होने का नुकसान न उठाना पड़े। नेवल डाकयार्ड का 29 जनवरी 2002 का आदेश भी कहता है कि अगर कर्मचारी हिंदी में अर्जी या जवाब देता है और हिंदी में उस पर हस्ताक्षर करता है तो उसका जवाब भी हिंदी में ही दिया जाएगा। लेकिन इस मामले में मांगने पर भी याची को हिंदी में आरोपपत्र की प्रति नहीं दी गई। कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी जिस भाषा में चाहे उसे दस्तावेज मुहैया कराना सरकार(नियोक्ता) की जिम्मेदारी है। आरोपपत्र हिंदी में न देने से याचिकाकर्ता को मिले निष्पक्ष सुनवाई एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है, जिससे वह अपना बचाव ठीक से नहीं कर पाया।
जानिए, क्या था मामला
मुंबई नेवल डाकयार्ड में काम करने वाले मिथलेश को काम के दौरान नाश्ता करने, उच्चाधिकारियों के साथ दु‌र्व्यवहार और उनका आदेश न मानने पर विभागीय जांच में आरोपपत्र दिया गया। विभाग ने हिंदी में आरोपपत्र की प्रति देने की मांग खारिज कर दी। इस पर मिथलेश ने विभागीय जांच में भाग नहीं लिया। जांच के बाद वेतनमान में कटौती की सजा मिलने पर मिथिलेश ने हिंदी में आरोपपत्र न मिलने को आधार बनाकर विभागीय जांच को रद करने की मांग की थी।
विजय कुमार मल्होत्रा

विस्तृत आदेश के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

May 8, 2013

अंतराल और अंतरे

एक लंबा, उबाऊ अंतराल...सभी कुछ ठहर सा गया है... यह ठहराव अभी भी लगातार जारी है । जब गंभीरता से अपने बारे में सोचता हूँ तो स्वयं को बेहद निराशावादी पाता हूँ। बहुत सारे लोग हैं जो बहुत सारे वादे करते हैं और जब वे वादे कर रहे होते हैं तब भी मेरा निराशावाद पूरी तरह चैतन्य अवस्था में होता है और बार-बार चिल्लाता है- ये झूठ बोल रहे हैं। मैं उसे रोकता हूँ और कहता हूँ - तेरे चिल्लाने से न ये लोग बदलेंगे, न ही मैं बदलूँगा... मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ और ये अपनी राजनीति से।
 
मैं लोगों के खोखले वादों से अपने निराशावाद को मजबूती देता हूँ इतने पर भी वह चिल्लाता रहता है...
 
लोग झूठ बोलते हैं और यह जानते हुए बोलते हैं कि सुनने वाला भी सब समझ रहा है... मगर फिर भी बोलते है। उनकी अपनी आदत है। बिना झूठ बोले उनके दिल की धड़कने ठहरने लगती हैं। मुझे दुख इस बात का होता है कि मैं अपनी इंसानियत को मार पाने में नाकाम होता हूँ और हर बार, बार-बार होता हूँ... या फिर जिसे मैं इंसानियत समझ रहा हूँ वह मेरा पागलपन भर है जिसका कोई आर पार नहीं है।   
 
कल लिखना चाहा था कि एक बेहद रूखे-सूखे ब्लॉग को एक लाख हिट मिल गए ... यह भी लिखना चाहा था कि कोई दादा बन गया और मुझे भी कहता है कि जब दादा बन गए हो तो दादागीरी दिखाने में क्या हर्ज़ है! दो बातें एक साथ ...दोनों खुशी की ... आजकल अपनी खुशी से भी डरने लगा हूँ...जो लोग मेरी निराशा नहीं झेल पाते, वे मेरी खुशी कैसे झेल पाएंगे भला !
 
एक मित्र ने पिछले दिनों अचानक आकर कहा-  एक बार फिर कलम उठाकर देखो, तुम अब भी लिख सकते हो। मैंने कोशिश की मगर उम्मीद के अनुरूप निराशावादी के निराश मन को निराशा ही हाथ लगी। मित्रवर फिर भी नहीं माने... मैंने फिर कोशिश की...कोई संतुष्टि नहीं मिली। उन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी ... उनके मार्गदर्शन में फिर कोशिश की ...कला फिल्मों की कला ... वार्ता शायद प्रसारित हो गई! मेरे पास रेडियो नहीं है...एफ़एम सुनने के बहुत सारे साधन हैं मगर मीडियम वेव्ज पर आकाशवाणी सुनने का कोई उपाय नहीं। बहुत सारी ऑडियो टेप रिकार्डिंग पड़ी हैं, 20 साल पुरानी, मगर उन्हें चलाने के लिए मेरे पास सही टेपरिकार्डर नहीं है... उन्हें डिजिटल में परिवर्तित करना चाहता हूँ मगर... 
 
बहुत लंबे समय से एक फिल्म की तलाश थी - "मिस्टर सम्पत"... कल सिराज का संदेश आया - मिस्टर सम्पत अजय' ले आया हूँ । आज मैंने 28 रुपए की वीसीडी के लिए 150 रुपए खर्च कर दिए... शायद एक दो दिन में आ जाएगी... इन्टरनेट का बाज़ार भी क्या गजब की चीज़ है! मिस्टर सम्पत के साथ दुलारी भी मंगाई है। एक जमाने में संगीतकार रवि का इंटरव्यू करने के लिए मैंने लगभग 450 रुपए खर्च कर मलयालम गानों की कैसेट मंगाई थी और मुझे पारिश्रमिक के बतौर 200 रुपए मिले थे। मलगु और अपने आप में मैं यही अंतर महसूस करता रहा हूँ। मुझे जब कुछ करने में मजा आता है तो मैं उसे अपने मजे के लिए करता हूँ। इससे मुझे बहुत हानि हुई है मगर निराशावादी मन कहता है- हानि और लाभ से मजा कहीं ज्यादा बड़ी, बल्कि बहुत बड़ी चीज़ है।
 
गुरुओं की कमी बहुत खलती है। अग्रवाल साहब होते तो मैं कदापि स्वयं को इतना अधूरा महसूस नहीं करता। 13 साल हो गए उन्हें ... अचानक यूं भी चुपके से कोई अलविदा कहता है क्या?
 

May 1, 2013

चतुर फ़ोन यानी स्मार्ट फ़ोन स्कैनर का कमाल

मुझे चार माह से अधिक हो गए हैं चतुरफ़ोन को समझने का प्रयास करते हुए ... मगर समझ में जितना आया है उससे 100 गुना अभी समझना बाकी है. मेरे पास कुछ पुराने अखबारों की कतरनें हैं जिन्हें मैं स्कैन नहीं कर पा रहा था. अभी एंडरोयड ऑपरेटिंग सिस्टम वाले चतुर फ़ोन के स्कैनर से जो परिणाम आया है वह गदगद करने वाला है. नीचे के स्कैन पृष्ठ से आप स्वयं इसकी चतुराई का अनुमान लगा सकते हैं. यह 25 साल पुरानी कतरन है.

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