Sep 14, 2009

मैं क्या बोलूँ जी ???

-प्रतिभा मलिक

आजकल बड़े जोर-शोर से हिंदी को प्रौद्योगिकी से जोड़ने की बात कही जा रही है। सच ये है कि यह कार्य लगभग पूरा भी हो चला है। मगर सोचने की बात यह है कि दफ्तरों में कितने प्रतिशत हिंदी अधिकारियों के पास कंप्यूटर की सुविधा है और कितने के पास इंटरनेट की? कितने कार्यालयों में हिंदी अनुभाग इंटरानेट से दूसरे अनुभागों से जुड़ा है? -कितने कर्मचारी/ अधिकारी हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में ई-मेल भेजते है ? हाल ही में मैं एक दफ्तर में जाना हुआ । वहां एक हिंदी टंकक ने बताया-"मैडम जिनके पास सुविधा नहीं है उनको तो छोड़िए, मैं एक ऐसे अधिकारी को जानती हूँ जिनके पास कंप्यूटर है, इंटरनेट है, फैक्स है, प्रिंटर-स्कैनर है...और पता नहीं क्या -क्या इलक्ट्रोनिक आइटम उनके कमरे में लगे हैं, मगर ये सब केवल उनके कमरे की शान बढ़ाने के लिए हैं न कि इस्तेमाल करने के लिए। मजे की बात तो ये है कि वे खुद तो कुछ करते नहीं या करना नहीं जानते अगर कोई और दूसरा करे तो भी उन्हें बेहद तकलीफ होती है। बताइए, इस सब से या ऐसे साहबों से हिंदी या अन्य किसी को क्या लाभ हुआ ? अगर ये उपकरण साहब के कमरे के बाहर रखे होते तो कम से कम हम अपने अब्बाजान को हिंदी में चिट्ठी तो लिखते । वे कितने खुश होते कि शीला शहर पहुंचकर भी अपनी मातृभाषा नहीं भूली। पचास लोगों को दिखाते भी चाहे इसके लिए उन्हें चाय ही क्यों न पिलानी पड़ती।"
उन्होंने आगे कहा- "मैं तो तब हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है मानूंगी जब हमारे साहब अपनी भाषा में ई-मेल भेजने लगें। इस चार दीवारी के अन्दर तो किसी को पता तक नहीं कि हिंदी में ई-मेल कैसे करना है... फोंट की समस्या को कैसे सुलझाना है... यूनीकोड किस बला का नाम है..."
वे बोलती चली जा रही थीं और मैं सुनती जा रही थी... और कोई विकल्प भी तो मेरे पास नहीं था। क्योंकि मेरे आस-पास भी स्थिति बहुत ज्यादा अलग नहीं थी ....... वाद-विवाद तक की कोई गुंजाइश वहाँ नहीं थी। मैं चुपचाप उनका मुँह ताकती रह गई...

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