-अजय मलिक
केंद्रीय विश्वविद्यालय "जामिया मिल्लिया इस्लामिया" नई दिल्ली तक पहुँचने का किस्सा बड़ा ही दिलचस्प है। सोनीपत के एक प्राइवेट स्कूल में विज्ञान अध्यापक की नौकरी लगी। पास के ही एक बड़े हाई स्कूल में हिंदी-संस्कृत के अध्यापक थे डॉ0 टी0 के0 शर्मा यानी त्रिभुवन कान्त शर्मा... उनकी पत्नी डॉ श्रीमती शर्मा भी उसी स्कूल के प्राइमरी सेक्शन में अध्यापक थीं। उन दोनों का यह अज्ञातवास था।
टी. के. शर्मा जी सीआईई यानी केंद्रीय शिक्षा संस्थान से एम एड कर चुके थे और जामिया से मनोविज्ञान में पीएच डी कर रहे थे। उनसे दोस्ती कैसे हुई यह तो स्वयं आज तक मेरी समझ में नहीं आया।
हम दोनों अक्सर सप्ताहांत में शाम को मिलते और दिमागी घोड़े दौड़ाते। अक्सर हमारी चर्चा शिक्षा या मनोविज्ञान को लेकर शुरू होती। मुझे एम एड करने की बड़ी इच्छा थी । असल में मैं मनोविज्ञान का गहन अध्ययन करना चाहता था और इसके लिए जाने क्यों मुझे एम एड ज्यादा सही लगता था।
शर्मा जी ने कहा-"पार्ट टाइम भी कर सकते हो मगर दो साल लगेंगे और मज़ा नहीं आएगा। नौकरी की लालसा छोड़ दो...मन जो कहता है कर डालो।"
मन तो बहुत कुछ कहता था...लेकिन रास्ता कुछ सुझाई नहीं देता था। शर्मा जी ने फिर एक दिन रास्ता बताया- "कहीं से सिर्फ दो सौ रूपए महीने का जुगाड़ करो और दाखिला ले लो।" उन्होंने सी आई ई की प्रवेश प्रक्रिया समझाई और प्रोफेसर दत्ता का संदर्भ दिया। मैंने फॉर्म भर दिया और लिखित प्रवेश परीक्षा के लिए निश्चित दिन सी आई ई जा पंहुचा।
उस समय दस पैसे की एक बालपेन रिफिल आया करती थी। कभी भी चलते-चलते बंद हो जाने की गारंटी वाली ऐसी ही रिफिल के साथ मैंने प्रवेश परीक्षा में लिखना शुरू किया। दो पक्तियां लिखने के बाद ही रिफिल ने अपना वादा निभा दिया और उसके बाद चाँद-सितारे तो डोले मगर रिफिल का रोलर नहीं डोला। अब क्या किया जाए? नज़रें आगे-पीछे, दाएं-बाएँ...सब और घुमाईं मगर हर तरफ सिर्फ लड़कियाँ नज़र आईं। गाँव- देहात का गंवार-देहाती शहरी लड़कियों से कलम के बारे में कैसे पूछे !!
थक-हारकर बिना कुछ लिखे ही कॉपी लौटा दी गई। दोपहर बाद इंटरव्यू के समय प्रोफेसर दत्ता ने पूछा- आपने तो कुछ भी नहीं लिखा ?? मैंने रिफ़िल की रफ़्तार टूटने का किस्सा बयान किया तो उन्होंने हंसते हुए कहा- आपने बताया होता तो एक क्या पचास पेन आपको उपलब्ध कराए जा सकते थे।
वहां से निराश लौटा तो फिर शर्मा जी की शरण स्थली में आगे की राह तलाशने का काम शुरू हुआ। पंद्रह दिन बाद ही जामिया के शिक्षा विभाग का विज्ञापन आया और इस बार मैं दो-तीन पेनों के साथ पहुंचा। किस्मत देखिए कि एक माह के अंदर ही मैं एम एड का विद्यार्थी बन चुका था और मैरिट में पहले तीन को मिलने वाले वज़िफ़े के साथ...
जामिया के शिक्षा विभाग में प्रोफेसर कादरी साहब शिक्षा शास्त्र पढ़ाते थे। वे पक्के गांधीवादी सच्चे गुरु थे और बेहद नेक इंसान भी। इतना सरल स्वभाव की सरलता शरमा जाए। उन्हींने सदैव यही जानने का प्रयास किया कि हम लोगों ने कितना सीखा , -कितना नहीं सीख पाए इसकी कोई चिंता वे नहीं करते थे।
आंतरिक मूल्यांकन के लिए उन्होंने एक टेस्ट लिया। एक हमारे मित्र जो एक सरकारी स्कूल में प्राथमिक शिक्षक थे तथा पार्ट टाइम एम एड कर रहे थे, की अंग्रेजी कुछ ज्यादा ही कमजोर थी। मित्रवर बड़े ही मस्तमौला किस्म के इंसान थे उन्होंने टेस्ट अपनी बेहद निजी अंग्रेजी में लिख दिया।
प्रोफेसर कादरी कई दिन तक हमारे मित्रवर की लिखी बेहद निजी अंग्रेजी को पढ़ने-समझने की कोशिश करते रहे ताकि जैसे भी हो उन्हें पास होने लायक नंबर दिए जा सकें मगर मित्रवर की अंग्रेजी खालिश देशी जो पढ़े-लिखों की समझ में ज़रा कम ही आती थी । थक-हार कर चौथे दिन कादरी साहब ने हमारे मित्रवर को अपने केबिन में बुलाकर बड़े ही सहज भाव से कहा- "आप ज़रा इसे पढ़ कर सुना दीजिए ताकि मैं नंबर दे सकूँ।"
मित्रवर मुस्कराए और बोले - "गुरु जी, आपने अंग्रेज़ी में टेस्ट में लिखने के लिए कहा, -मैंने लिख दिया। अब इसे पढ़ने का काम आपका है। मैं अपनी लिखी अंग्रेजी नहीं पढ़ सकता ।"
मुझे यह किस्सा उन्हीं मित्रवर की जुबानी सुनने को मिला और यह भी कि उन्होंने टेस्ट में कुछ लिखा ही नहीं था बल्कि ऊपर की पंक्ति से पेन गोल-गोल चलाना शुरू किया था और कागज़ के निचले छोर पर ही रुके थे।
कादरी साहब ने यह किस्सा कभी किसी को नहीं बताया, वे अपने हर छात्र के हालात और मज़बूरियों को समझते थे।
ऐसे गुरुवार को सलाम ।
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