स्वर्गीय डॉ0 उदय नारायण तिवारी
-अजय मलिक
वर्ष १९८३: एक सनक सवार हुई थी यह जानने की कि भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई ? एम. ए. कर चुका था और काम-धाम कुछ मिला नहीं था। दुनियादारी का अता -पता तक नहीं था। दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी के दो- तीन दोस्तों के कार्ड लिए हुए थे और जो भी मिल जाए पढ़ डालने की धुन सवार थी । चाहे जो हो जाए पर इस बात का पक्का इरादा बनाया हुआ था कि भाषा की उत्पत्ति का पता लगाए बिना चैन से पानी भी नहीं पीना है। एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के जॉब के लिए रोजगार दफ्तर के मार्फ़त बुलावा आया ।
वहाँ पूछा गया -"कैसे बेचेंगे हमारी दवाइयाँ ?"
अपना उत्तर भी लाज़वाब था -" दवा की सारी अच्छाइयाँ और खामियाँ बताएंगे।"
उन्होंने कहा -"जाइए, चले जाइए।"
हमने भी वापस अपना झोला संभाल लिया और फ़िर से भाषा की उत्पत्ति की खोज शुरू हो गई ।
एक जगह गए और मिन्नत की कि इस विषय के डॉक्टर बनवा दीजिए ...हमारे गाइड बन जाइए या फ़िर हमें किसी भी तरह का शिष्य बना लीजिए। उन्होंने कहा-" नौकरी करते हो ?" नकारात्मक उत्तर मिलने पर उन्होंने कहा-"बिना नौकरी के पी एच डी कैसे कर पाओगे?"
वहाँ से वापस आकर फ़िर किताबों से हाथापाई शुरू कर दी। इसी दौरान भाषा विज्ञान पर मैक्समूलर की कुछ मोटी-मोटी पुस्तकें हाथ लगीं। अब मैक्समूलर ने हिंदी में कब लिखा? इस पर आप मत जाइए । मैं भी हम से मैं पर आ जाता हूँ। उन पुस्तकों का अनुवाद किया था डॉ उदय नारायण तिवारी जी ने । मैंने उन्हीं पुस्तकों से उनका जबलपुर विश्वविद्यालय का पता लिया और जिन मुद्दों पर मेरी नासमझी में असहमति थी उनपर लंबा चौड़ा पत्र लिख मारा।
करीब दो सप्ताह बाद एक पोस्टकार्ड मिला "6 अलोपी बाग़ , दारागंज , इलाहाबाद से।" इतनी सुंदर लिखावट की ख़ुद की गंदी लिखावट पर बेहद शर्म आई। सबसे पहले ठीक उसी दिन अपनी लिखावट पर ध्यान देना शुरू किया और सफलता भी पाई। पोस्टकार्ड में संक्षेप में बहुत कुछ लिखा गया था। एक तो यही कि जबलपु विश्वविद्यालय के कुलपति के पद से वे लगभग बारह वर्ष पूर्व सेवानिवृत हो चुके थे। दूसरा जो अनमोल आर्शीवाद था "तुम्हारी प्रगति कोई रोक नहीं सकता।"
नई दिल्ली में विश्व हिंदी सम्मलेन के दौरान भी उन्होंने मिलने के लिए बुलाया किंतु वे दो दिन पहले ही किसी कारण वश लौट गए। चिट्ठी-पत्री जारी रही । फ़िर प्रताप ट्रेक्टर्स लिमिटेड से एक नौकरी के टेस्ट का बुलावा आया। हाथरस से चाचा ने रेलगाड़ी में लखनऊ के लिए बिठा दिया । वहाँ से बस पकड़कर जाने कहाँ-कहाँ होकर प्रताप गढ़ पहुंचा। वहाँ जो होना था हुआ। लौटते समय सोचा क्यों न इलाहाबाद भी देख लिया जाए।
इलाहाबाद बस अड्डे से एक रिक्शा लिया और अलोपी बाग़ जा पहुँचा । उनकी आयु अस्सी से ऊपर थी । खाना बनाकर निपटे ही थे। उनकी अस्वस्थ पत्नी किसी और के हाथ का बना नहीं खाती थीं। उनके बिस्तर पर नई पुस्तकों -पत्रिकाओं का ढेर लगा था । दो रूपए मुझे थमाकर बोले-
ज़रा बाहर हलवाई की दुकान से कुछ ले आओ।
मैंने कहा- मगर रुपयों की क्या ज़रूरत है।
-जरुरत क्यों नहीं है ??
मैं डेढ़ रूपए के बेसन के लड्डू ले आया। उन्होंने एक गिलास पानी लाकर दिया। उन्होंने समझाया -" भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने के लिए कई जन्म लेने पड़ सकते हैं , कोई ऐसा विषय चुनो जो इसी जन्म में पूरा हो जाए।" गाइड के लिए उन्होंने डॉ भोलानाथ तिवारी जी तथा डॉ जे सी राय जी के नाम सुझाए।
मैंने कहा -पर मैं तो नौकरी-वोंकरी नहीं करता ...
मुझे इतने बड़े लोग अपना शिष्य स्वीकारेंगे भला!!
बोले- "दोनों हमारे शिष्य हैं ।"
उन्होंने लिखा और स्वीकारा भी गया... मगर मैं ही इस योग्य साबित नहीं हो सका। धीरे-धीरे भाषा की उत्पत्ति का नशा उतर गया। आज भी उनके तीन पत्र मेरे पास अमूल्य निधि की तरह हैं।
ऐसे गुरुवर को प्रणाम।
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