उनकी अदा
-अशिष्ट
(अशिष्ट जी की एक ताज़तारिन कहानी मिली है जो बिना किसी काट-छाँट के प्रकाशित की जा रही है । उन से आग्रह है कि वे अपना अता पता और वास्तविक नाम भी सूचित करें )
एक छोटे साहब कुछ तीर और कुछ तुक्के की बदौलत बड़े साहब बनने का जुगाड़ लगाने में सफल हो गए । दाव लग जाने का पूरा विश्वास हो जाने पर उन्होंने एक सरकारी बैंक से जिसमें उनकी पगार जमा होती थी एक लाख रुपया का निजी ऋण ले लिया और जमानती बनवा दिया अपने बॉस को। बड़े सा हब का ओहदा सँभालते ही उन्होंने सबसे पहले अपनी पगार वाला खाता बंद कराया और उसके बाद निजी ऋण की बात भूल गए।
दो-तीन महीनों बाद बैंक मैनेज़र यह देखकर हैरान रह गए कि बड़े साहब बनने के बाद छोटे साहब ने एक भी किस्त नहीं चुकाई है। मैनेजर ने ज़मानती साहब से ताज़ातरीन बड़े साहब का ठौर ठिकाना पता किया। मोबाइल फोन का नंबर भी जैसे-तैसे लिया और जब पहली बार फोन घुमाया तो ताज़ातरीन बड़े साहब यह सुनकर ख़ुद हैरानी प्रकट करने लगे कि उन्होंने एक भी किस्त नहीं चुकाई है। बैंक मैनेजर को साहब ने तत्काल बकाया किस्ते चुकाने का पूरा-पूरा आश्वासन दिया। बैंक मैनेजर को बेहद संतोष का अनुभव हुआ।
दो - तीन महीने फिर बीत गए मगर ताज़ातरीन साहब की और से कोई सन्देश तक नहीं आया । एक बार फिर मोबाइल नंबर घुमाया गया मगर फोन नहीं उठाया गया । एक बार, दो बार हुई और फिर अनेक बार मगर फोन की घंटी बजने के अलावा कोई प्रतिक्रया नहीं हुई। हजारों मील दूर बैठे ताजातरीन साहब का बैंक मैनेजर करे भी तो क्या ? असफलता ने कष्ट और बढाया और परिणाम तबादले के रूप में सामने आया ।
दूसरे मैनेजर को ऐसे ऋणों की वसूली का अच्छा भला अनुभव था। उन्होंने आते ही जमानती साहब को पकड़ा। ताजातरीन से घिस-पिट चुके बड़े साहब का दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया तो बड़े साहब ने विनम्रता से पूरी बात सुनी और खेद प्रकट किया। कई नायाब कठिनाइयों का जिक्र किया और एक हफ्ते के अन्दर बकाया किस्तें ब्याज सहित चुकाने का आश्वासन देकर बड़े ही आत्मविश्वास के साथ वार्तालाप समाप्त किया। एक सप्ताह के अन्दर एक किस्त की रकम कोर बैंकिंग के ज़रिए जमा करा दी गई।
इसके बाद फ़िर दो -तीन महीने बीत गए मगर कोई और अदायगी नहीं हुई । बैंक मैनेजर ने हैड आफ़िस से अपने दोस्त के फोन से बड़े साहब का नंबर घुमाया । पहली ही बार घंटी बजते ही बड़े साहब की सुमधुर आवाज़ सुनाई दी। मैनेजर ने अपना सही परिचय नहीं दिया। बड़े साहब को पाँच सौ रूपए आथित्य सत्कार सहित एक बड़े कार्यक्रम में आने तथा मार्गदर्शन करने के लिए प्रार्थना की गई जिसे बड़े साहब ने गदगद होकर स्वीकार लिया।
निश्चित तिथि और समय पर बड़े साहब पधारे । कार्यक्रम के बाद बैंक मैनेजर ने बकाया किस्तों का ज़िक्र छेड़ा तो बड़े साहब ने कहा - हम आपके सी एम डी और ई डी को जानते हैं। मैनेजर यह सुनकर थोड़ा सकपका गया मगर फिर हिम्मत कर बोला - यदि ऐसा है तो आप ई डी साहब से कहलवा दीजिए ताकि हमारी नौकरी पर कोई आँच न आए। बड़े साहब ने कहा -
"अभी कहलवा देते हैं -ज़रा पांच मिनट रुकिए।"
इतना कहकर बड़े साहब उठ खड़े हुए । जाते- जाते मैनेजर के पास अभी-अभी किसी काम से आए छोटे बाबू को भी ई डी साहब का केबिन दिखाने के नाम पर ले लिया। ई डी साहब का केबिन आठवीं मंजिल पर था। छोटे बाबू लिफ्ट की तरफ ले जाने लगे तो बड़े साहब ने कहा -
"यदि आप बुरा न माने तो ज़रा तीसरी मंजिल पर बैठे चौहान साहब से भी मिलते चलें। दूसरी मंजिल से तीसरी मंजिल तक अब भला लिफ्ट से क्या जाएँगे... चलिए सीढियों से चलते हैं । वहां आपके बैंक का ए टी एम भी है... मुझे तीन चार हज़ार रुपया निकालना है वरना होटल का बिल भी नहीं चुकता हो पाएगा।"
छोटे बाबू को भला इसमें क्या एतराज़ हो सकता था। पहले ए टी एम पर काम निपटा लेना अच्छा था । ए टी एम के अंदर बड़े साहब गए और फिर तत्काल निकल आए । उनके चहरे पर गहरी उदासी छाई थी । छोटे बाबू हैरान परेशान रह गए। बड़े साहब से पूछा तो बेहद रुआंसी आवाज़ में उन्होंने बताया -
"ए टी एम कार्ड तो पर्स में था जिसे किसी ने उड़ा दिया । अब क्या करें। होटल का बिल नहीं चुकाया तो बड़ी बदनामी होगी। "
छोटे बाबू के मन में ई डी साहब के केबिन तक जाने वाले साहब के लिए बेहद सम्मान और हमदर्दी थी। बड़े साहब ने इस बात को भांप लिया और कहा - "होटल का बिल कम से कम दो हजार का तो होगा ही ।"
वे बुदबुदाए - "मेरे पास तो आपके दफ्तर से अभी-अभी मिले केवल पांच सौ रूपए ही हैं... बाकी के डेढ़ हजार कहाँ से आएँगे।"
छोटे बाबू जब तक कुछ सुन-समझ पाते तब तक बड़े साहब मिन्नत सी करते हुए बोले -
"क्या है कि अगर आप के पास डेढ़ हजार हों तो दे दीजिए साथ ही अपना एकाउंट नंबर भी बता दीजिए ताकि मैं वापस पहुंचते ही आपकी रकम आपके खाते में जमा कर सकूँ।"
छोटे बाबू के पास तेरह सौ पचास रूपए थे। जिनमें से तेरह सौ उन्होंने बड़े साहब को दे दिए । इस हादसे के बाद तीसरी मंजिल जाने और ई डी साहब से मिलने की बात छोटे बाबू को याद रहती भी तो कैसे?
बड़े साहब सीढियों से ही नीचे उतरे और मुख्य द्वार से पहले ही छोटे बाबू को विदा कर अंतर्ध्यान हो गए। आज भी बड़े साहब दुनिया में मौजूद हैं और वह बैंक मैनेजर भी.. और हाँ , वह निजी ऋण भी अपना अस्तित्व बरक्कत के साथ बरकरार रखे हुए है। आप पूछेंगे -"छोटे बाबू के तेरह सौ रूपए का क्या हुआ?" तो जनाब कोई एक छोटे बाबू थोड़े ही हैं .जाने कितने मददगार माथा पीट रहे हैं मगर बड़े साहब की आवाज़ में आज भी वही सुमधुरता और ग़िडग़िडाहट मौजूद है.....
-अशिष्ट
(अशिष्ट जी की एक ताज़तारिन कहानी मिली है जो बिना किसी काट-छाँट के प्रकाशित की जा रही है । उन से आग्रह है कि वे अपना अता पता और वास्तविक नाम भी सूचित करें )
एक छोटे साहब कुछ तीर और कुछ तुक्के की बदौलत बड़े साहब बनने का जुगाड़ लगाने में सफल हो गए । दाव लग जाने का पूरा विश्वास हो जाने पर उन्होंने एक सरकारी बैंक से जिसमें उनकी पगार जमा होती थी एक लाख रुपया का निजी ऋण ले लिया और जमानती बनवा दिया अपने बॉस को। बड़े सा हब का ओहदा सँभालते ही उन्होंने सबसे पहले अपनी पगार वाला खाता बंद कराया और उसके बाद निजी ऋण की बात भूल गए।
दो-तीन महीनों बाद बैंक मैनेज़र यह देखकर हैरान रह गए कि बड़े साहब बनने के बाद छोटे साहब ने एक भी किस्त नहीं चुकाई है। मैनेजर ने ज़मानती साहब से ताज़ातरीन बड़े साहब का ठौर ठिकाना पता किया। मोबाइल फोन का नंबर भी जैसे-तैसे लिया और जब पहली बार फोन घुमाया तो ताज़ातरीन बड़े साहब यह सुनकर ख़ुद हैरानी प्रकट करने लगे कि उन्होंने एक भी किस्त नहीं चुकाई है। बैंक मैनेजर को साहब ने तत्काल बकाया किस्ते चुकाने का पूरा-पूरा आश्वासन दिया। बैंक मैनेजर को बेहद संतोष का अनुभव हुआ।
दो - तीन महीने फिर बीत गए मगर ताज़ातरीन साहब की और से कोई सन्देश तक नहीं आया । एक बार फिर मोबाइल नंबर घुमाया गया मगर फोन नहीं उठाया गया । एक बार, दो बार हुई और फिर अनेक बार मगर फोन की घंटी बजने के अलावा कोई प्रतिक्रया नहीं हुई। हजारों मील दूर बैठे ताजातरीन साहब का बैंक मैनेजर करे भी तो क्या ? असफलता ने कष्ट और बढाया और परिणाम तबादले के रूप में सामने आया ।
दूसरे मैनेजर को ऐसे ऋणों की वसूली का अच्छा भला अनुभव था। उन्होंने आते ही जमानती साहब को पकड़ा। ताजातरीन से घिस-पिट चुके बड़े साहब का दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया तो बड़े साहब ने विनम्रता से पूरी बात सुनी और खेद प्रकट किया। कई नायाब कठिनाइयों का जिक्र किया और एक हफ्ते के अन्दर बकाया किस्तें ब्याज सहित चुकाने का आश्वासन देकर बड़े ही आत्मविश्वास के साथ वार्तालाप समाप्त किया। एक सप्ताह के अन्दर एक किस्त की रकम कोर बैंकिंग के ज़रिए जमा करा दी गई।
इसके बाद फ़िर दो -तीन महीने बीत गए मगर कोई और अदायगी नहीं हुई । बैंक मैनेजर ने हैड आफ़िस से अपने दोस्त के फोन से बड़े साहब का नंबर घुमाया । पहली ही बार घंटी बजते ही बड़े साहब की सुमधुर आवाज़ सुनाई दी। मैनेजर ने अपना सही परिचय नहीं दिया। बड़े साहब को पाँच सौ रूपए आथित्य सत्कार सहित एक बड़े कार्यक्रम में आने तथा मार्गदर्शन करने के लिए प्रार्थना की गई जिसे बड़े साहब ने गदगद होकर स्वीकार लिया।
निश्चित तिथि और समय पर बड़े साहब पधारे । कार्यक्रम के बाद बैंक मैनेजर ने बकाया किस्तों का ज़िक्र छेड़ा तो बड़े साहब ने कहा - हम आपके सी एम डी और ई डी को जानते हैं। मैनेजर यह सुनकर थोड़ा सकपका गया मगर फिर हिम्मत कर बोला - यदि ऐसा है तो आप ई डी साहब से कहलवा दीजिए ताकि हमारी नौकरी पर कोई आँच न आए। बड़े साहब ने कहा -
"अभी कहलवा देते हैं -ज़रा पांच मिनट रुकिए।"
इतना कहकर बड़े साहब उठ खड़े हुए । जाते- जाते मैनेजर के पास अभी-अभी किसी काम से आए छोटे बाबू को भी ई डी साहब का केबिन दिखाने के नाम पर ले लिया। ई डी साहब का केबिन आठवीं मंजिल पर था। छोटे बाबू लिफ्ट की तरफ ले जाने लगे तो बड़े साहब ने कहा -
"यदि आप बुरा न माने तो ज़रा तीसरी मंजिल पर बैठे चौहान साहब से भी मिलते चलें। दूसरी मंजिल से तीसरी मंजिल तक अब भला लिफ्ट से क्या जाएँगे... चलिए सीढियों से चलते हैं । वहां आपके बैंक का ए टी एम भी है... मुझे तीन चार हज़ार रुपया निकालना है वरना होटल का बिल भी नहीं चुकता हो पाएगा।"
छोटे बाबू को भला इसमें क्या एतराज़ हो सकता था। पहले ए टी एम पर काम निपटा लेना अच्छा था । ए टी एम के अंदर बड़े साहब गए और फिर तत्काल निकल आए । उनके चहरे पर गहरी उदासी छाई थी । छोटे बाबू हैरान परेशान रह गए। बड़े साहब से पूछा तो बेहद रुआंसी आवाज़ में उन्होंने बताया -
"ए टी एम कार्ड तो पर्स में था जिसे किसी ने उड़ा दिया । अब क्या करें। होटल का बिल नहीं चुकाया तो बड़ी बदनामी होगी। "
छोटे बाबू के मन में ई डी साहब के केबिन तक जाने वाले साहब के लिए बेहद सम्मान और हमदर्दी थी। बड़े साहब ने इस बात को भांप लिया और कहा - "होटल का बिल कम से कम दो हजार का तो होगा ही ।"
वे बुदबुदाए - "मेरे पास तो आपके दफ्तर से अभी-अभी मिले केवल पांच सौ रूपए ही हैं... बाकी के डेढ़ हजार कहाँ से आएँगे।"
छोटे बाबू जब तक कुछ सुन-समझ पाते तब तक बड़े साहब मिन्नत सी करते हुए बोले -
"क्या है कि अगर आप के पास डेढ़ हजार हों तो दे दीजिए साथ ही अपना एकाउंट नंबर भी बता दीजिए ताकि मैं वापस पहुंचते ही आपकी रकम आपके खाते में जमा कर सकूँ।"
छोटे बाबू के पास तेरह सौ पचास रूपए थे। जिनमें से तेरह सौ उन्होंने बड़े साहब को दे दिए । इस हादसे के बाद तीसरी मंजिल जाने और ई डी साहब से मिलने की बात छोटे बाबू को याद रहती भी तो कैसे?
बड़े साहब सीढियों से ही नीचे उतरे और मुख्य द्वार से पहले ही छोटे बाबू को विदा कर अंतर्ध्यान हो गए। आज भी बड़े साहब दुनिया में मौजूद हैं और वह बैंक मैनेजर भी.. और हाँ , वह निजी ऋण भी अपना अस्तित्व बरक्कत के साथ बरकरार रखे हुए है। आप पूछेंगे -"छोटे बाबू के तेरह सौ रूपए का क्या हुआ?" तो जनाब कोई एक छोटे बाबू थोड़े ही हैं .जाने कितने मददगार माथा पीट रहे हैं मगर बड़े साहब की आवाज़ में आज भी वही सुमधुरता और ग़िडग़िडाहट मौजूद है.....
अशिष्ट जी की यह विशिष्ट कहानी रोचक बन पड़ी है । आरंभ से अंत तक उत्कंठा से परिपूर्ण इस कहानी में बड़े साहब की रीति, नीति और ख्याति का भरपूर ख्याल रखा गया है, आखिर कहानी के वे नायक तो हैं ! लगता है बड़े साहब की सुमधुरता और सौगंद से मोहित छोटे बाबू को खलनायक बनाने का दुस्साहस न करके कहानीकार ने कहानी के प्रति बड़ा न्याय किया है ।
ReplyDeleteअशिष्ट जी की इस कहानी की सार्थकता का बयान थोड़ी-सी पंक्तियों में अभिव्यक्त करना एक बड़ा दुस्साहस ही कहलाएगा । कहानीकार ने समाज के दर्पण में सज-धजकर नज़र आनेवाले तथाकथित बड़े साहबों की ओर इशारा मात्र करते हुए, ऐसे विशिष्ट लोगों के साथ कैसे पेश आए, या उनके साथ लेन-देन में कैसी सावधानी बरती जाए, यह पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है । इस कहानी से निश्चय ही विवेकपूर्ण पाठकों का ज्ञानोदय होगा, मगर क्या वे मदद करने की अपनी मानसिकता बदल पाएंगे, बड़े साहब के वर्चस्व के मद्देनज़र यह बिल्कुल असंभव प्रतीत होता है । आखिर अशिष्ट जी ने भी अपने को ‘अशिष्ट’ नाम से प्रकट करके अपनी शिष्टता को ही प्रकट किया है, बड़े साहब के विरुद्ध किसी खलनायक को पैदा करने का विकट साहस नहीं किया है । ऐसे साहस को यदि हम अशिष्टता कह सकते हैं, तो कथाकार ने अपने लिए जो नाम चुना है, वह सार्थक ही लगेगा । यदि वे बड़े साहब की कहानी के भविष्य के किस्त भी पेश करते हुए नज़र आएंगे तो ‘शिष्ट’ नाम भी निरर्थक नहीं होगा । ऐसी कहानी हिंदी के हित में कहा तक सार्थक है, मुझ जैसे एक आम पाठक को पता नहीं, मगर यह कहना समीचीन होगा कि यह हिंद के हित में है । बड़े साहब कहीं और जुगाड़ लगाकर हिंद के पार विदेश में भी पहुँच पाने की स्थिति में, अशिष्ट जी को अपनी यह कहानी अंग्रेजी में भी पेश करनी होगी, क्योंकि तब तो यह कहानी दुनिया के हित में होगी । ऐसे ही विशिष्ट बड़े साहबों की बदौलत आज हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने की ठानकर इठला रही है । बड़े साहब की इस छोटी कहानी को हिंदी में अंतर्जाल पर पेश करनेवाले अशिष्ट जी भी अपनी इस उपलब्धि पर इठलाते हुए ही न बैठें, बड़े साहब की बड़ी-बड़ी कहानियाँ भी पेश करने का विनम्र प्रयास जरूर करें । एक आम पाठक इससे बढ़कर क्या व्याख्या कर सकता है इस कहानी की, बस अब बड़े आलोचकों की सुनने की लालसा बनी रहेगी जरूर ! ‘उनकी अदा’ कहीं यह तो नहीं कह रहा है कि ‘दग़ा किसी का सगा नहीं’ ?!