Aug 9, 2009

अपनी बात

मित्रो ,
लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व मन में आया था कि हिन्दी सिखाने के लिए कुछ ऐसा किया जाए जो थोड़ा लीक से हटकर हो। उस वक्त कंप्यूटर बहुत बड़ी चीज़ हुआ करती थी। मुंबई की धकापेल में अजीब सी जीवंतता थी। परिचय का दायरा बड़ा सीमित था। जुगाड़ से इंजिन बनाना तो आता था मगर जुगाड़ लगाना नहीं आता था। यह कमजोरी अभी तक बरकरार है।
कुछ दोस्त थे जो प्रेरित करते थे -
कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से । फिल्में देखने का शौक था मगर फ़िल्म देखने की तमीज़ बिल्कुल नहीं थी । बचपन में बंबई मेरे सपनों में भी आया करती थी । कुछ फ़िल्म समीक्षा वगैरा लिखने का मन हुआ , बड़ी फिल्मीं हस्तियों में सबसे पहला साक्षात्कार शशि कपूर का किया... फ़िर नसीरुद्दीन शाह... गुलज़ार... नौशाद... रवि... सुरैया... सईं परांजपे... विक्टर बनर्जी... शक्ति सावंत... सईद जाफरी... अनुपम खेर ... एक लम्बी लिस्ट जिसमें आज के जाने माने अभिनेता इरफान खान और गोविन्द नामदेव तक शामिल थे। यह सब जिनके सहयोग से हुआ उनमें तीन नाम सबसे पहले आते हैं- राहुल जी , बहन रेखा देशपांडे और सिराज सय्यद । कब और कैसे भारतीय फ़िल्म एवं टी वी संस्थान, पुणे में फ़िल्म अप्रिसिएशन में दाखिला मिला और कैसे मुंबई और लिखना-पढ़ना छूटा यह एक लम्बी दास्तान है...
फ़िल्म इंस्टिट्यूट के लेक्चर हाल में कुछ अनोखापन था और उसी से कई नई चीजे दिमाग में आईं । एक प्रस्ताव भी कुछ करने के लिए भेजा गया था मगर ... दिन बीतते गए ...कंप्यूटर छूने का साहस आया । किसी की चुनौती ने कंप्यूटर असेम्बल करना तक सिखा दिया । इंटरनेट पर ढूँढने की बीमारी लगी ... बहुत कुछ खोया... कुछ पाया भी । सोचा बांटने से जब खुशी बढ़ती है तो जो पाया उसे आपके साथ बांटकर हम दोनों मलिक एंड श्रीमती मलिक भी तनाव के इस दौर में छुपी हुई खुशियाँ बढ़ाने का प्रयास क्यों न करें! आज चारों ओर अजीब गला-काट प्रोफेशनल ईर्ष्या का माहौल है। फिर भी मित्र जयशंकर बाबू के सहयोग और कुछ गुरुजनों के प्रोत्साहन से इस ब्लॉग की शुरुआत हो ही गई । दो सप्ताह के अन्दर इस ब्लॉग को 200 से अधिक लोगों ने देखा, प्रेरक प्रतिक्रियाएँ मिलीं...हजारों ब्लॉगों के बीच इतने कम समय में आपके इस ब्लॉग की रेंकिंग 491 आ गई । इतने स्नेह को संभाल पाने की ताक़त हममें शायद नहीं है मगर बकौल फ़िल्म "दो बदन"- कठपुतली करेगी भी क्या...? - धागे किसी और के हाथ में हैं , नाँचना तो पड़ेगा ही ....
बस आप स्नेह बनाए रखिए, कुछ रास्ता भी दिखाइए ...
-अजय मलिक, सह-व्यवस्थापक

1 comment:

  1. मलिक जी,
    'लीक छाड़ी बेलीक चले शायर,सिंह, सपूत'
    अब लीक से हटकर चलने में संघर्ष तो स्‍वाभाविक है और आपका संघर्ष अवश्‍य ही एक दिन चमत्‍कार दिखाएगा । मैं तो बस यह मानता हूं :
    साहिल के सुकूं से किसे इनकार है लेकिन,
    तूफां से लड़ने का मजा ही कुछ और है ।
    आपका अनुज,
    उपाध्‍याय, गुवाहाटी

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