Aug 27, 2009

मेरे गुरु ... 2 : डॉ कुँअर बेचैन

-अजय मलिक
वर्ष 1987 : अप्रेल या मई का महीना था । रात के ग्यारह बज चुके थे । शाम के सात बजे से चिंतन जारी था मगर ऊहापोह की स्थिति बनी रही। लगभग सवा ग्यारह बजे उन्होंने कहा -" जब कदम बढ़ा दिया है तो पीछे क्यों हटाना ... डिग्री तो सभी को मिल जाती है ...एक साल बेकार जाता है- जाए - बात तो रह जाएगी , परिवर्तन का प्रयास सभी नहीं कर पाते ..."
अगले दिन मैंने अपनी एम एड की परीक्षा का पर्चा हिंदी में लिख दिया था। जामिया-मिल्लिया-इस्लामिया में पहली बार ऐसा हुआ था । परीक्षा अंग्रेज़ी में लिखने की बाध्यता थी मगर किसी ने चुनौती दी थी - "हिंदी में लिखने पर हिला दिए जाओगे।"
'फ्रायड का मनोविश्लेषण एवं सामाजिक संबंध ' विषय पर एक पर्चा क्या हिंदी में पढ़ा मुझे सचमुच का हिंदी-जाति-वाला जैसा कुछ बना दिया गया। एरिक्सन के व्यक्तित्व के विकास के सिद्धांत पर खूब पढ़-लिखकर आतंरिक मूल्यांकन के लिए जो अंग्रेज़ी में लिखा गया था उसे यह कहकर काट दिया गया कि इंडियन राइटर्स की कोई प्रामाणिकता नहीं है । विदेशी विद्वानों की तीन किताबें लाकर दिखाई गईं तो जवाब मिला - 'ऐसा तो नहीं पढ़ाया गया था ...आपकी समझ में अंग्रेज़ी नहीं आती है।'
मैंने कच्चा इरादा बनाया था । साहस कम था। क़र्ज़ लेकर पढ़ाई करना और भविष्य को दाव पर लगा देना ... उस हिचकिचाहट से निकाला था डॉ कुँअर बेचैन जी के उस रात के निर्णय ने। हम आठ लड़के थे ...सात फेल हो गए या कर दिए गए यह मानकर कि वे हिंदी आन्दोलन में मेरे साथ थे। मेरा परीक्षाफल रोक लिया गया ...आठ माह बाद क्यों और कैसे आनन-फानन में मुझे न्यूनतम अंकों के साथ पास घोषित किया गया ये बहुत लम्बी कहानी है।
बात डॉ कुँअर बेचैन जी की चल रही थी। यदि गुरु मात्र कक्षा में पढ़ाने वाले ही हो सकते हैं तो फिर बेचैन साहब मेरे गुरु नहीं हो सकते। पर क्या वाकई 'गुरु' शब्द इतना सीमित-संकुचित अर्थ रखता है ? मैं ऐसा नहीं मानता । जब एक-दो कक्षाओं में बी एस सी के दौरान वे पढ़ाने आए थे तब हम पढ़ने वाले नहीं हुआ करते थे -वर्ष 1978-79 में गाजियाबाद में एम एम एच कालिज में कोई पढ़ता था भला!!
किसी ने एक दिन दूर से दिखाकर कहा था- 'ये बहुत बड़े कवि हैं।'
मैंने कहा -' ठीक है।'
फिर गाँव में हल चलाने का दौर शुरू हुआ । अज्ञेय जी का बीबीसी से साक्षात्कार सुना ... सुबह-सुबह कंधे पर हल, हाथ में बैलों की पगैहा और बगल में पड़ौसी का ट्रांजिस्टर ..कोई क्या कल्पना करेगा। कुछ लिखा और पता नहीं कैसे बेचैन साहब को भेज दिया । गाँव में उनकी चिट्ठी आई ...फिर मुलाक़ात ...उनकी कोशिश कि मुझ बेसुरे को सुर में पिरोया जाए और मैं ग़ज़ल को गटक जाने वाला...इस मामले में हम दोनों ही अपनी-अपनी जगह शायद असफल ही रहे मगर मेरे व्यक्तित्व में एक दृढ़ता आने लगी । एक कवि ने कब और कैसे मुझे सिपाही बना दिया -बयान कर पाना मुश्किल है । आज भी जब बुरी तरह उलझ जाता हूँ तो उनपर जिम्मेदारी डाल कर मुक्त हो जाता हूँ। एक ऐसे गुरु जिन्होंने कभी खाली हाथ नहीं जाने दिया । कवि सम्मलेन देखने - सुनने शुरू किए उनके साथ... छोड़े उनके साथ और फिरसे शुरू किए उनके साथ। पीएचडी अधूरी रह गई ...क्योंकि मैं वह सम्पूर्णता नहीं ला पाया जो मुझे चाहिए थी गुरु जी ने बहुत चाहा, बहुत सराहा भी पर मैं उनके शिष्य के रूप में अपने अन्दर जो परफेक्शन लाना चाहता था वह लाया हुआ महसूस नहीं कर सका। उन्होंने बहुत कहा -"परफेक्शन के लिए और बहुत से मौंके आयेंगे। " मगर मुझे वह पंक्ति भुलाए नहीं भूलती- "डिग्री तो सभी पा जाते हैं..."

1 comment:

  1. गुरु को याद रखना और उनके प्रति श्रद्धापूर्वक संस्मरण लिखना इस बात एहसास कराता है हमारी संस्कृति कहीं जिंदा है, आपकी इस पहल के लिए आप बधाई के पात्र हैं । - डॉ. बाबु, संपादक, युग मानस

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