Sep 12, 2009

अधूरी परिचर्चा

हमारी पूरी कोशिश थी एक बेहद गंभीर विषय पर सकारात्मक बहस छेड़ने की। हिंदी दिवस यानी 14 सितम्बर को सहज रूप से मनाने के लिए जरूरी था अपनी अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में भी सोचना। हमने एक विषय रखा था- "भारत में भारतीय भाषाएँ कब तक ?" आधार था दो जनगणनाओं के आंकड़ों से उभरने वाली भयावह तस्वीर, जो अन्य भारतीय भाषाओं के चलन में भारी गिरावट का संकेत दे रही थी। हमने जो तथ्य आपके सामने रखे थे वे निम्न प्रकार थे -
"क्या आप जानते हैं हमारे देश में वर्ष 1991 में तमिल बोलने वालों का प्रतिशत 6.32 था जो वर्ष 2001 में 5.91 रह गया । इस अवधि में मराठी बोलने वाले 7.45 प्रतिशत से घटकर 6.99 प्रतिशत रह गए । उर्दू बोलने वाले 5.18 से घटकर 5.01 प्रतिशत पर सिमट गए। इसी प्रकार बंगाली, तेलुगु , कन्नड़ , मलयालम, गुजराती उड़िया , असमिया बोलने वालों की संख्या में भी गिरावट आई । हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति से जुड़ी हैं ... क्या हमारी भाषाओं से पलायन हमारी संस्कृति और समाज के ढाँचे को प्रभावित नहीं कर रहा है? ऐसे प्रश्नों के उत्तर आपको भी तलाशने हैं । हिंदी दिवस यानी 14 सितम्बर 2009 को हम आपके विचार बिना लाग-लपेट के इस ब्लॉग पर प्रकाशित करेंगे । आप अपने विचार यूनिकोड फॉण्ट में टाइप कर नीचे दिए पते पर मेल कर सकते हैं-"
हमें इस विषय पर कोई प्रतिक्रया नहीं मिली। यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसपर सिर्फ़ हमारे विचार कोई मायने नहीं रखते। इसलिए इस परिचर्चा को अधूरी मानते हुए हम वर्ष 2010 के हिंदी दिवस अर्थात अगले एक वर्ष तक आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार करेंगे और बीच-बीच में आपको स्मरण भी कराते रहेंगे कि आपको इस विषय पर जरूर कुछ कहना है।

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