"जो डर गया समझो मर गया।" शोले का यह संवाद कई बार बड़ा अच्छा लगता है। मैं सोचता हूँ - मरने का अर्थ तो यही है कि शरीर में अब वह तत्व शेष नहीं है जो उसकी सक्रियता, संवेदनशीलता, विभिन्न अंगों-जैविक क्रियाओं पर नियंत्रण के लिए जरूरी है। मरने का मतलब सांस का रुक जाना ह्रदय गति का रुक जाना वगैरह भी है। लेकिन मैं तो सोच सकता हूँ, श्वसन क्रिया, ह्रदय गति, रक्त प्रवाह जारी है; हाथ-पैर पर नियंत्रण भी है; एक अंगुली वाली टाइपिंग भी मैं कर पा रहा हूँ। इसका सीधा सा मतलब यही है कि मैं जिन्दा हूँ और अन्य सारे के सारे लक्षण डरे हुए निरीह प्राणी के ही हैं।
आजकल मुझे सबसे ज्यादा डर हिंदी दिवस के आस-पास लगता है। यकीन मानिए सितम्बर के शुरू होते-होते मेरे हाथ-पैर फूलने शुरू हो जाते हैं। इसका कारण है एक लाइलाज बीमारी। इस बीमारी से निजात पाने के लिए नीम-हकीम, तंत्र- मंत्र, झाड़-फूंक, दवा-गोली सब कुछ कर लिया मगर सब बेकार। जानकारों का कहना है कि दमा के रोग की तरह यह बीमारी भी दम के साथ ही निकलेगी।
मुझे हिंदी और हिंदी के मामले में सच बोलने की ग़लतफ़हमी का रोग है। मैं अंग्रेजी का वहमी बन गया हूँ। हर तरफ जहाँ-जहाँ विद्वजनों, भद्रजनों, विधिजनों (विधिवेत्ताओं) को हिंदी ही हिंदी नज़र आती है वहाँ मुझे अंग्रेजी ही अंग्रेजी होने का वहम होता है। पता नहीं क्यों जहाँ सबको क ख ग नज़र आते हैं मुझे A B C D लिखी होने का आभास होता है। शायद यह किसी तरह का दृष्टिदोष है ।
सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैं इस दृष्टिदोष को स्वीकारने से इंकार करता हूँ और जो मुझे दिख रहा होता है या मेरी आँखे जिस असत्य सच का आभास करा रही होती हैं; मैं उस पर विद्वजनों से सहमत नहीं हो पाता। यानी मेरा आभासी सच मुझे पूर्ण सत्य लगता है और उनका पूर्ण सत्य मैं स्वीकारना चाह कर भी पचा नहीं पाता। वास्तविकता ये है कि मुझे यह भी वहम है कि मैं सच बोलने के सह रोग से भी ग्रस्त हूँ। ये दोनों रोग 'करेला और नीम चढ़ा' की पुरानी कहावत को चरितार्थ करते हैं। मुँह पर हज़ारों ताले डाल लेने पर भी भी मेरा वहमी सत्य मुँह से निकल ही जाता है । ऐसी समस्याएँ अधिगम अक्षमताओं से ग्रसित बच्चों में होती हैं ।
लोग मुझे हिंदी वाला होने के नाते हिंदी पखवाड़ा मनाने के दौरान पकौड़ों का लालच देकर बुलाते हैं। मैं अपने चश्मे से अंग्रेजी देखकर खुद भी बिदक जाता हूँ और उनके लिए भी अनजानी-अनचाही कठनाइयां पैदा कर देता हूँ। वे अपने चश्मे से दिख रही अंग्रेजी-भरी हिंदी से प्रोत्साहित होना चाहते हैं । मुझसे उनकी अंग्रेजी-भरी पर आधा-अधूरा चढ़ा, फटा हिंदी का वर्क इधर-उधर हो जाता है। मैं उन्हें हिंदी-भरी बनाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करता हूँ तो वे गाली-गलौंच पर उतर आते हैं। उन्हें अंग्रेजी-भरी का अपमान बर्दास्त नहीं होता। वे मुझे धमकाते हैं, मैं उन्हें सद्भावना का हवाला देता हूँ। वे हवाला में फ़साने की धमकी देते हैं, मैं पकौड़ा खाने से इंकार करने लगता हूँ। वे अपनी जेब दिखाते हैं जिसमें बहुत से हिंदी वाले भरे होने का दावा किया जाता है और जिनकी नजरों से निकलती चिंगारियाँ सचमुच मुझे झुलसा देती हैं। मैं डर कर चुपचाप हर महफ़िल से इसी तरह बेवक्त निकल आता हूँ या निकाल दिया जाता हूँ।
मेरा रोग दिन-रात बढ़ता ही जाता है। सितम्बर की हवा बिलकुल भी रास नहीं आती क्योंकि डर का दबाव अब रक्तचाप बढ़ाने लगा है। शायद इसी तरह धीरे-धीरे इस शरीर के अनेक कल-पुर्जे खराब होते जाने के अंतिम चरण को भांप कर ही कहा जाता होगा- 'जो डर गया सो मर गया।' मगर आदमी बेचारा अंग्रेजी-भरी दुनिया में रसभरी हिंदी के सहारे आखिर कब तक खैरियत से रहेगा ? अब आप ही बताइए- मेरे जैसे डरे हुए आदमी को हिंदी दिवस के अवसर पर क्या करना चाहिए?
आजकल मुझे सबसे ज्यादा डर हिंदी दिवस के आस-पास लगता है। यकीन मानिए सितम्बर के शुरू होते-होते मेरे हाथ-पैर फूलने शुरू हो जाते हैं। इसका कारण है एक लाइलाज बीमारी। इस बीमारी से निजात पाने के लिए नीम-हकीम, तंत्र- मंत्र, झाड़-फूंक, दवा-गोली सब कुछ कर लिया मगर सब बेकार। जानकारों का कहना है कि दमा के रोग की तरह यह बीमारी भी दम के साथ ही निकलेगी।
मुझे हिंदी और हिंदी के मामले में सच बोलने की ग़लतफ़हमी का रोग है। मैं अंग्रेजी का वहमी बन गया हूँ। हर तरफ जहाँ-जहाँ विद्वजनों, भद्रजनों, विधिजनों (विधिवेत्ताओं) को हिंदी ही हिंदी नज़र आती है वहाँ मुझे अंग्रेजी ही अंग्रेजी होने का वहम होता है। पता नहीं क्यों जहाँ सबको क ख ग नज़र आते हैं मुझे A B C D लिखी होने का आभास होता है। शायद यह किसी तरह का दृष्टिदोष है ।
सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैं इस दृष्टिदोष को स्वीकारने से इंकार करता हूँ और जो मुझे दिख रहा होता है या मेरी आँखे जिस असत्य सच का आभास करा रही होती हैं; मैं उस पर विद्वजनों से सहमत नहीं हो पाता। यानी मेरा आभासी सच मुझे पूर्ण सत्य लगता है और उनका पूर्ण सत्य मैं स्वीकारना चाह कर भी पचा नहीं पाता। वास्तविकता ये है कि मुझे यह भी वहम है कि मैं सच बोलने के सह रोग से भी ग्रस्त हूँ। ये दोनों रोग 'करेला और नीम चढ़ा' की पुरानी कहावत को चरितार्थ करते हैं। मुँह पर हज़ारों ताले डाल लेने पर भी भी मेरा वहमी सत्य मुँह से निकल ही जाता है । ऐसी समस्याएँ अधिगम अक्षमताओं से ग्रसित बच्चों में होती हैं ।
लोग मुझे हिंदी वाला होने के नाते हिंदी पखवाड़ा मनाने के दौरान पकौड़ों का लालच देकर बुलाते हैं। मैं अपने चश्मे से अंग्रेजी देखकर खुद भी बिदक जाता हूँ और उनके लिए भी अनजानी-अनचाही कठनाइयां पैदा कर देता हूँ। वे अपने चश्मे से दिख रही अंग्रेजी-भरी हिंदी से प्रोत्साहित होना चाहते हैं । मुझसे उनकी अंग्रेजी-भरी पर आधा-अधूरा चढ़ा, फटा हिंदी का वर्क इधर-उधर हो जाता है। मैं उन्हें हिंदी-भरी बनाने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करता हूँ तो वे गाली-गलौंच पर उतर आते हैं। उन्हें अंग्रेजी-भरी का अपमान बर्दास्त नहीं होता। वे मुझे धमकाते हैं, मैं उन्हें सद्भावना का हवाला देता हूँ। वे हवाला में फ़साने की धमकी देते हैं, मैं पकौड़ा खाने से इंकार करने लगता हूँ। वे अपनी जेब दिखाते हैं जिसमें बहुत से हिंदी वाले भरे होने का दावा किया जाता है और जिनकी नजरों से निकलती चिंगारियाँ सचमुच मुझे झुलसा देती हैं। मैं डर कर चुपचाप हर महफ़िल से इसी तरह बेवक्त निकल आता हूँ या निकाल दिया जाता हूँ।
मेरा रोग दिन-रात बढ़ता ही जाता है। सितम्बर की हवा बिलकुल भी रास नहीं आती क्योंकि डर का दबाव अब रक्तचाप बढ़ाने लगा है। शायद इसी तरह धीरे-धीरे इस शरीर के अनेक कल-पुर्जे खराब होते जाने के अंतिम चरण को भांप कर ही कहा जाता होगा- 'जो डर गया सो मर गया।' मगर आदमी बेचारा अंग्रेजी-भरी दुनिया में रसभरी हिंदी के सहारे आखिर कब तक खैरियत से रहेगा ? अब आप ही बताइए- मेरे जैसे डरे हुए आदमी को हिंदी दिवस के अवसर पर क्या करना चाहिए?
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