Mar 3, 2025

जीवन के अद्भुत पल

 संभवतः 19 अगस्त 1989 की बात है। मैं मद्रास से स्थानांतरित होकर कवरत्ती जा रहा था। मेरी यात्रा मद्रास से 16 अगस्त को शुरू हुई थी और 17 अगस्त को कोचीन पहुँचा था। कोचीन से कवरत्ती जाने के लिए वायुदूत की उड़ान संभवत: 19 अगस्त को थी, इसलिए दो दिन मुझे कोचीन में रुकना पड़ा था। मेरे साथ करीब 80 किलो वजनी किताबों का जखीरा था। हवाई जहाज की वह पहली यात्रा थी और रोमांच की कोई सीमा नहीं थी। हिंदी आंदोलन से खादी का भगवा कुर्ता और सफेद पायजामा मेरी वेशभूषा का अभिन्न अंग था। पैरों में हवाई चप्पलें हुआ करती थीं।

अगत्ती हवाई पट्टी पर विमान उतरा तो खुद को नारियल के पेड़ों से घिरे टापू में पाया। वहाँ से कवरत्ती पवन हंस के हेलिकॉप्टर से जाना था। हेलिकॉप्टर की पहली यात्रा का रोमांच भी कुछ काम नहीं था। वहाँ हेलिकॉप्टर का 80 रुपए का टिकट खरीदते हुए पूछताछ से पता चला कि केवल 10 किलो सामान ही एक यात्री हेलिकॉप्टर में ले जा सकता है।

हेलीपैड के पास मैं कुछ परेशान सा खड़ा था। तभी एक बेहद गोरे चिट्टे स्मार्ट युवा सज्जन मेरे पास आए और नाम-गाम पूछने के बाद परेशानी का सबब पूछने लगे। मैंने 80 किलो की किताबों की गठरी की लाचारी बताई। उन्होंने कहा – “अजय, आप आइए, गठरी की चिंता छोड़ दीजिए। आज नहीं तो कल पहुँच जाएगी”।

मैं उनके साथ हेलिकॉप्टर में जाकर बैठ गया। करीब 15-20 मिनट में हम लोग कवरत्ती हेलीपैड पर उतरे। गोरे-चिट्टे-स्मार्ट युवा से मैंने उनका कोई परिचय अभी तक भी प्राप्त नहीं किया था। वे बोले - आओ। मैं उनके साथ चल दिया। बाहर एक जीप खड़ी थी। वे उसमें बैठते हुए फिर से बोले-आओ। मैं उनके साथ बैठ गया।

80 किलो की गठरी अपने आप जीप में आ गई। जीप 5-7 मिनट बाद एक मकान के सामने जाकर रुकी, जिस पर सर्किट हाउस लिखा था। उन्होंने केयरटेकर को आवाज दी और कहा कि मेरे ठहरने की व्यवस्था करे। मेरा सामान जीप से निकालकर स्वत: कमरे में पहुँच चुका था। उन्होंने कहा- सोमवार को सचिवालय में मिलते हैं। मैं प्रश्नवाचक नजरों से उन्हें देख रहा था, तभी उन्होंने बताया- “मैं के. के. शर्मा हूँ, यहाँ का सीडीसी यानी कलेक्टर-काम-डेवलपमेंट कमिश्नर”। लक्षद्वीप के प्रशासक के बाद सबसे वरिष्ठ अधिकारी-श्री के के शर्मा जी, आईएएस ।

सोमवार को मैं उनसे मिला तो बोले – “किसी बात की चिंता मत कीजिएगा। अगर कोई परेशानी हो तो तुरंत मेरे पास चले आना”। उसके बाद उन्होंने मुझे बताया कि सिंगल ऑफिसर्स बिल्डिंग में 4 नंबर क्वाटर मेरे लिए आबंटित करा दिया है।

श्री के के शर्मा जी के रहते हुए उनके अनुमोदन से मैंने कवरत्ती में धर्मयुग, दैनिक हिंदुस्तान जैसी कई हिंदी पत्रिकाएं और समाचार पत्र मंगवाने शुरू कराए। कई साल बाद उनसे दिल्ली विकास प्राधिकरण में मुलाकात हुई, तब वे डीडीए के उपाध्यक्ष थे। मेरे परम मित्र शिवदत्त शर्मा जी से मैंने उनका परिचय कराया।

कल मुझे शिवदत्त शर्मा जी से पता चला कि दिल्ली के भूतपूर्व मुख्य सचिव, श्री के के शर्मा जी अब जम्मू कश्मीर के चुनाव आयुक्त हैं। शिवदत्त जी से मैंने उनका नंबर लिया और प्रणाम करते हुए एक संदेश भेजा..  मगर, 33 साल पुरानी कहानी उन्हें याद नहीं आई।

पर मेरे लिए वे पल आज भी अद्भुत और अविश्वसनीय हैं। 

-अजय मलिक  

केसरिया कस्तूरी :: -अजय मलिक ‘निंदित’

 

केसरिया कस्तूरी

-अजय मलिक ‘निंदित’

अचानक कार सड़क के किनारे रोक कर वह असमंजस में थी। स्वयं उसकी समझ में कार रोकने का कारण नहीं आ रहा था । नई कार की खिड़कियों के चमचमाते शीशे अच्छे से बंद और बेदाग़ थे। धूल का एक कण तक चकमा देकर अंदर घुसने की हिमाक़त नहीं कर सकता था।

उसने आँख की ओर अंगुली की पोर को ले जाना चाहा, मगर उससे पहले ही उसकी हथेली पर आँसू की एक बूँद से सैलाब आ गया। कार रोकने का कारण उसकी समझ में आ चुका था । अपनी ही आँख से छलकी आँसू की एक बूँद में वह डूब रही थी। संसार के सारे समन्दरों पर वह एक बूँद भारी पड़ गई थी ।

तरण ताल में जब वह तैरती तो उसके तैरने पर सारी मछलियाँ, बड़े-बड़े मगरमच्छ, उसकी सारी सहेलियाँ ईर्ष्या से पसीना-पसीना हो जाते, वह मद मस्त हाथी की तरह चिंघाड़ते हुए पलक झपकते उस पार हो जाती। पर अपने ही आँसू की एक बूँद में उसके अनुभवी हाथ पैर जवाब दे गए थे, उसकी साँस फूल चुकी थी।

उसका तैराकी का बरसों की अनुभव, गति और उत्कृष्टता सब बेकार हो गए थे । गिरते हैं सह सवार ही मैदान-ए-जंग में, कहावत उसकी आँखों के सामने हक़ीक़त बन कर उसकी हथेली पर आँसू की एक बूँद से आए सैलाब के रूप में पड़ी थी। कार अब भी खड़ी थी।

जब वह शहर से चली थी, तब भी नहीं समझ पाई थी कि क्यों जाना है गाँव? दोनों बेटे और पति सब उसके अचानक गाँव जाने के निर्णय पर हैरान थे। बादलों से आसमान अटा पड़ा था। आंधी, बारिश कुछ भी संभव था। उसने न किसी की चिरौरी की, न ही किसी की चिंता और झटपट कार निकाल कर चली आई थी। उसके और उसकी कार के फर्राटे काफी चर्चित थे। अक्सर उसके फर्राटों से कार चरमरा जाती और चालान कट जाता।

मुश्किल से तीस पैंतीस किलोमीटर का ही तो रास्ता था। पर गाँव में पाँच साल से घर में ताला पड़ा था । पिता की मौत के बाद दो चार महीने में ही कभी-कभार आना हो पाता था ।

छह दिसंबर की तारीख़ बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से जुड़ी थी या यह कहिए कि राम मंदिर निर्माण की ओर पहले क़दम से।

आसमान में कितने तो बादल छाते थे… काले, सफ़ेद, भूरे, लाल, सतरंगी… अंत में सब छींटा बनकर उड़ जाते थे। उसके बाद नीला आसमान फिर दमक उठता था। वह भुलाने की अभ्यस्त हो चुकी थी। यादों को पटक-पटक कर पीटने में कोई भी उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था, मगर जितना वह भुलाती, यादें उतनी की सशक्त बनकर तूफ़ान का रूप धारण कर लेतीं । यादों को भुलाने की ज़िद में वह भूलना ही भूल गई थी। वह ऐसी विजेता थी, जिसपर हारने वाला ही सबसे ज़्यादा हंसता था और हारने के बाद भी पदक ले उड़ता था। अनुभवहीन हारने वाले, अनुभवी विजेता के अनुभव को चुरा ले जाते थे। वह सब कुछ भूल चुकी थी, उसके पति को भी पूरा विश्वास था कि अब वह कुछ भी याद नहीं कर सकती है, बेटों को भुलावनी कहानी का कोई सूत्र ही पता नहीं था।

वह कार लेकर जब निकली थी, तब बादल थे मगर थोड़ी देर बाद सब साफ हो गया था। नरम-नरम गुनगुनी धूप भी उसके साथ फ़र्राटा भरने लगी थी। नीले आसमान से वह घबरा जाती थी…अनुभवहीन कोरा आसमान…नासमझ…। रंग बिरंगे बादलों से घिरे आसमान से उसे अपनी जीत का एहसास होता था। वह विजेता बनी रहना चाहती थी। आसमान का नीला, खुला, बेदाग़ रूप उसके विजेता होने को देवदास की पारो के माथे के दाग की तरह धूमिल ही नहीं करता था, बल्कि पूरी तरह लील जाता था। वह अनुभवी थी, यादों को थका देने की दिन रात की उसकी लगन ने उसे मुक्त हो जाने का ब्रह्मास्त्र दे दिया था। एक पल में सब साफ़ हो जाता…वह जीत जाने के भ्रम को जब तक समेटने का प्रयास करती, तब तक नीला आसमान सीना तानकर खड़ा हो जाता। तीस साल से वह हर दिन आसमान से हारती और हार की तिलमिलाहट में यादों को पीस डालती। यादें और निखर उठतीं …

उसने आँसू को आँखों से लगाया और फिर केशों में बहा दिया । कार को स्टार्ट किया और हार-जीत के मिश्रित भावों के साथ सड़क पर फ़र्राटे भरने लगी। न जाने क्यों यह मिश्रित भाव उसे सहज लगता था। नाम भी तो आकाश ही था। अनुभवहीन युवाप्रौढ़ आकाश… अचानक वह मुस्कुरा उठी थी। कार की रफ़्तार बढ़ गई थी। हारे हुए आकाश को ठुकरा कर वह विजेता बनने का भ्रम पाले कितनी दूर चली आई थी!

गाँव आ गया था। घर के सामने सब टूटा फूटा सा लग रहा था। कार से निकलकर उसने आसमान की तरफ़ देखा और वहाँ के नीलेपन से एक बार फिर वह नज़रें चुराकर ताला खोलने का जतन करने लगी। घर के अंदर अनगिनत सौर मंडल बिखरे पड़े थे। असंख्य नीले आसमान… बेदाग़ आकाश… अपराजेय आकाश…जिसे उसने हरा दिया था…या फिर शायद हारा हुआ मान बैठी थी। हराने की ज़िद में शायद रोज़ ही वह हारती रही…थकती रही। जवानी ढल गई… शरीर थकने लगा… सब कुछ बदल गया…पर यह नीला आसमान… आखिर क्यों यह नहीं बदला… वह जितना दूर भागती रही, उतना ही रास्ता लंबा…और लंबा होता गया…मंज़िल भी उतनी ही दूर भागती रही ।

उस दिन इसी घर में वह रसोई के कोने में तमतमाई खड़ी थी। नीला आसमान उसके आँगन में उतर आया था… सारे बादल बरस चुके थे, सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मलता बिखरी पड़ी थी…चारों ओर स्निग्धता…पर उसने उसके अनुभव ने अनुभवहीन आकाश की निष्कलंकिता को बंजर मान लिया था …

जहाँ उसने कार खड़ी की थी, वहीं तो बैठा था आकाश…प्रतीक्षा में…वह समझ ही नहीं पाई…अपनी हार के डर से…विजेता होने के वहम से…यादों के कभी ख़त्म न होने वाले झोकों से… वह सबसे ही तो हार गई….

दरवाज़े पर कोई दस्तक दे रहा था। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने डाकिया खड़ा था…एक पोस्टकार्ड थमाकर पूछ बैठा- “अरे बुआ, आप कब आईं…? इस पोस्ट कार्ड को आए दो दिन हो गए। दो दिन पहले भी मैं आया था। .. आज भी पोस्ट कार्ड लेकर जब डाकखाने से चला था तो आपके मिलने की आशा नहीं थी…”

डाकिया चला गया था। पोस्ट कार्ड पर उसे अपनी ही लिखावट नज़र आ रही थी। तीस साल पहले आकाश का अंतिम पोस्ट कार्ड इसी लिखावट में मिला था! क्या दो लोगों की लिखावट एक जैसी हो सकती है… बिल्कुल एक जैसी नहीं, बल्कि लगभग एक जैसी! चार दिन पहले उसने स्वयं ही तो यह पोस्ट कार्ड लिखा था, अपने ही लिए, अपना लिखा हुआ ख़त… पर क्यों...! खुद अपने ही लिए खत लिखकर डाक में डालना और उसे लेने खुद ही गाँव दौड़े चले आना !

पोस्टकार्ड का ज़माना कब का लद गया। अब डाकखाने में पोस्टकार्ड मिलते ही कहाँ हैं!

तीस बरस पहले आकाश के अंतिम पोस्टकार्ड में लिखा था- भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर मुक्त हो गया हूँ और तुम्हें भी मुक्त करता हूँ। अगर अपनी सच्चाई साबित कर पाया तो ठीक तीस साल बाद तुम्हें पोस्टकार्ड पर ही लिखूँगा …अंतिम बार… और पूछूँगा कि क्या सच से भागना तुम्हारे लिए भाग्यशाली साबित हुआ!

वह स्वयं ही बुदबुदा उठी- हाँ, हाँ…हाँ…हूँ मैं भाग्यशाली…पर तुम झूठे थे, झूठे हो…कोई वादा नहीं निभा सकते थे… बंजर थे…पथरीले… मैं जानती थी…अच्छी तरह जानती थी… तुम वादा…तीस साल बाद भी एक खत लिखने का वादा...कुछ भी नहीं निभा पाए...सकते ही नहीं थे...

सुनसान मकान में, जो अब घर नहीं था… अचानक वह फूट फूट कर रोने लगी थी। ढेर सारे आंसुओं से सब पिघल गया था । करीब दो घंटे सिर्फ सन्नाटा गुनगुनाता रहा। मन शांत हुआ तो आत्मा को भी तृप्ति का एहसास हुआ। मुँह धोकर उसने दरवाज़ा खोला…बाहर कोई नहीं था… आसमान अब भी नीला दिख रहा था। उसने विजेता की तरह आसमान को मुँह बिचकाते हुए पटकनी देने की कल्पना की और कार स्टार्ट कर वापस शहर की ओर मोड़ दी।

कुछ साल पहले गाँव के नुक्कड़ पर नया डाकखाना बन गया था। डाकखाने से डाकिया बाहर निकाल रहा था। वह डाकखाने के पास पहुँची ही थी कि डाकिये ने हाथ हिलाकर रुकने का इशारा किया। उसने कार रोक कर खिड़की का शीशा नीचे किया तो डाकिये ने एक और पोस्ट कार्ड थमाते हुए कहा- “बुआ, ये बस अभी-अभी आया है।

पोस्ट कार्ड लेकर उसने खिड़की का काँच चढ़ा दिया। पोस्ट कार्ड की लिखावट नीले आसमान के विस्तार का प्रमाण थी। थोड़ी दूर आकार उसने कार रोकी और पोस्ट कार्ड को हौले से सहलाया, भरी हुई आँखों से जो अक्षर पढ़ने में आए वो थे- “मैंने कहा था ना कि एक दिन मंदिर बनाकर ही रहूँगा !”

इस बार वह गर्व से सीना फुलाकर रो रही थी। वह पूरी तरह पराजित होकर विजयी मुस्कान के साथ तीस साल पीछे चली गई थी…यादें जीते जागते साक्षात पलों में परिवर्तित हो गई थीं, मगर वह जानती थी- सिर्फ़ सोचने से समय नहीं लौटता ।…बस यादें हैं जो कभी धूमिल नहीं होतीं…भुलाने की असफल कोशिश बीते हुए अनमोल पलों का अपमान है । ‘आकाश’ यूं ही तो आकाश नहीं कहलाता! पृथ्वी अपने होने के घमंड में अपने अस्तित्व को भुला बैठती है, मगर आकाश...पृथ्वी को कभी नहीं भूलता। हर वादा, जो धरती निभाने देती है, आकाश जरूर निभाता है...उसका आकाश...

तीस साल बाद भव्य मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका था, मगर वह अपने मकान तक सीमित होकर रह गई थी। आकाश का सिर्फ पोस्ट कार्ड था...दिया हुआ वचन था, वचन का निर्वाह था... उसके बच्चे थे, पति था...उसकी जिद थी...पर वह स्वयं तीस साल पीछे ही एक पोस्ट कार्ड के अक्षरों तक सिमट कर कहीं छूट गई थी... आकाश, अब उसका नहीं था...।

उसके मकान के पूजा घर में कोई मूर्ति नहीं थी।

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एक लघु कथा : अनुमति

 

एक लघु कथा

मिनटों में अपीलों को दाखिल-ख़ारिज करने में सक्षम देश के प्रधान न्यायाधीश कई घंटे से आधे पन्ने के एक पत्र को पढ़ने के बाद असहज हो गए थे। उनके एक हाथ में उन्हें निजी तौर पर लिखा गया किसी अनजान व्यक्ति का हाथ से लिखा वह पत्र था और दूसरा हाथ अगले दिन की सैकड़ों अपीलों के बस्ते पर था। पिछले कई घंटे से वे इसी अवस्था में बैठे थे। उनके अधीन क्लर्कशिप कर रहे युवा वकील जज साहब की असमंजस की स्थिति से बेहद परेशान थे।

पत्र में किसी अनजान व्यक्ति ने लिखा था-

मैंने अपने जीवन में, जहाँ तक मेरी जानकारी है, शायद ही कोई अपराध किया होगा। मैं पूरी तरह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हूँ, सम्पन्न हूँ और अपने पूरे परिवार से भी पूरी तरह संतुष्ट हूँ। मैंने अपना पूरा जीवन अपने देश की क़ानून व्यवस्था के प्रति पूरी ईमानदारी और निष्ठा रखते हुए जिया है, लेकिन  अब मेरा विश्वास अपने देश की क़ानून व्यवस्था और संविधान से संपूर्णतः उठ गया है, इसलिए एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के रूप में मैं जीवित रहने का अधिकार खो चुका हूँ। मैंने अपना शरीर एक अस्पताल को दान कर दिया है। कृपया मुझे इच्छा मृत्यु की अनुमति दी जाए ताकि मैं आत्महत्या करने के अपराध से बच सकूँ और बिना कोई गुनाह किए इस संसार से विदा ले सकूँ।”

-अजय मलिक

 

A Short Story

The Chief Justice of the country, who is capable admitting and dismissing appeals in minutes, became uncomfortable after spending several hours reading a half-page long letter. In one hand he had a handwritten letter written personally to him by an unknown person and the other hand was holding a bag of hundreds of appeals for the next day. He was sitting in this position for the last several hours. The young lawyers doing clerkship under him were extremely troubled by the judge's state of confusion.

The unknown person had written in the letter-

“I have hardly committed any crime in my life, to the best of my knowledge. I am completely physically and mentally healthy, prosperous and completely satisfied with my entire family. I have lived my whole life with full honesty and loyalty towards the law and order of my country, but now I have completely lost my faith in the law and order and constitution of my country, hence as a dutiful citizen I have lost my right to live. I have finished. I have donated my body to a hospital. Please allow me to euthanize so that I can save myself from the crime of committing suicide and can depart from this world without committing any crime.”

-Ajai Malik

 

 

ஒரு சிறுகதை

நிமிடங்களில் மேல்முறையீட்டு மனுக்களை தாக்கல் செய்து தள்ளுபடி செய்யும் திறன் கொண்ட நாட்டின் தலைமை நீதிபதி, அரை பக்க நீண்ட கடிதத்தை பல மணி நேரம் செலவழித்து படித்து அசௌகரியமானார். ஒரு கையில் 🤚 தெரியாத நபர் தனக்கு தனிப்பட்ட முறையில் எழுதிய கையால் எழுதப்பட்ட கடிதம், மறுபுறம் மறுநாள் நூற்றுக்கணக்கான முறையீடுகள் அடங்கிய பையை வைத்திருந்தார். கடந்த பல மணி நேரமாக அவர் இந்த நிலையில் அமர்ந்திருந்தார். அவருக்குக் கீழ் எழுத்தராகப் பணிபுரியும் இளம் வழக்கறிஞர்கள் நீதிபதியின் குழப்பமான நிலையைக் கண்டு மிகவும் சிரமப்பட்டனர்.

யாரோ தெரியாத நபர் கடிதத்தில் எழுதியிருந்தார்.

எனது அறிவுக்கு எட்டியவரை நான் என் வாழ்க்கையில் எந்தக் குற்றமும் செய்யவில்லை. நான் முற்றிலும் உடல் ரீதியாகவும் மன ரீதியாகவும் ஆரோக்கியமாகவும், செழிப்பாகவும், எனது முழு குடும்பத்துடனும் முழுமையாக திருப்தியடைந்து இருக்கிறேன். நான் என் வாழ்நாள் முழுவதும் எனது நாட்டின் சட்டம் மற்றும் ஒழுங்கு மீது முழு நேர்மையுடனும் விசுவாசத்துடனும் வாழ்ந்தேன், ஆனால் இப்போது எனது நாட்டின் சட்டம் மற்றும் ஒழுங்கு மற்றும் அரசியலமைப்பின் மீதான நம்பிக்கையை நான் முற்றிலும் இழந்துவிட்டேன், எனவே கடமைமிக்க குடிமகனாக நான் எனது உரிமையை இழந்துள்ளேன். வாழ்க. எனது உடலை மருத்துவமனைக்கு தானம் செய்துள்ளேன். தயவு செய்து என்னை கருணைக்கொலை செய்ய அனுமதியுங்கள், அதனால் நான் தற்கொலை செய்து கொள்ளும் குற்றத்திலிருந்து என்னைக் காப்பாற்றிக் கொள்ள முடியும், எந்தக் குற்றமும் செய்யாமல் இந்த உலகத்தை விட்டு வெளியேற முடியும்

-அஜய் மாலிக்

Mar 1, 2025

तमिलनाडु की हिंदी विरोधी राजनीति का तोड़ उत्तर भारत में तमिल पढ़ाने की घोषणा है…

 एक वेबसाइट ezyschooling.com पर उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में 258084 विद्यालय हैं। इनमें प्राथमिक विद्यालय 138078 हैं।उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 86430 है, जबकि हाई स्कूलों की संख्या 12783 एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 20763 हैं। 

यदि केवल उत्तर प्रदेश में कक्षा 6 से कक्षा 8 तक तमिल को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाए और तमिल के प्रश्न पत्र में केवल 20 प्रतिशत उत्तीर्णांक रखे जाए तो तमिलनाडु में हिंदी विरोध की वोट बटोरु राजनीति की स्वत: हवा निकल जाएगी। इसी प्रकार कक्षा 9 और 10 में हिंदी, अंग्रेज़ी अनिवार्य विषय रखते हुए तीसरी भाषा के रूप मे भारतीय भाषाओं में से कोई एक केवल क्वालिफाइंग भाषा के रूप में रखी जाए, तो बहुत कुछ बदल सकता है।

यदि इन उच्च प्राथमिक 86430 विद्यालयों के लिए संविदा के आधार पर ऐसे शिक्षक नियुक्त किए जाएँ, जिन्होंने स्नातक स्तर पर मुख्य विषय के रूप में तमिल और एक अन्य दक्षिण भारतीय भाषा का अध्ययन किया हो। अब तैनाती उत्तर प्रदेश में होनी है, तो उन शिक्षकों को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान होना स्वत: अनिवार्य हो जाएगा।

केवल उत्तर प्रदेश मे इन दक्षिण भारतीय तमिल शिक्षकों की माँग जहाँ तमिलनाडु में हिंदी पढ़ने की ललक पैदा करेगी, वहीं केवल उत्तर प्रदेश में तमिल भाषा पढ़ाने का निर्णय तमिलनाडु की राजनीति में भूचाल ला देगा। 

यदि सभी हिंदी भाषी राज्यों में ऐसा निर्णय ले लिया जाए, तो हिंदी विरोधी तमिल राजनीति के पुरोधा देखते रह जाएँगे। 

मेरी जानकारी में विगत सात दशकों में हिंदी विरोधी राजनीति करने वालों ने वास्तव में तमिल भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए कोई बहुत उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है। जैसे हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी हिंग्लिश बना दी गई है, वहीं तमिलनाडु में तमिल, तिंग्लिस बनती जा रही है। किसी भी हिंदी भाषी प्रदेश का किसी भी स्तर पर तमिल पढ़ाने का निर्णय भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

इसी प्रकार हिंदी भाषी राज्यों में कन्नड़, तेलुगु, मलयालम के बारे में किसी भी स्तर पर केवल अक्षर ज्ञान कराने का निर्णय दक्षिण भारत से न सिर्फ़ छद्म हिंदी विरोध को हमेशा के लिए अप्रभावी कर देगा, बल्कि हिंदी विरोधी राजनीति के पुरोधाओं के सदैव के लिए अप्रासंगिक भी कर देगा।

-अजय मलिक

தமிழகத்தின் இந்தி எதிர்ப்பு அரசியல், வட இந்தியாவில் தமிழ் போதனைக்கு முற்றுப்புள்ளி வைத்துள்ளது.

 ezyschooling.com இணையதளத்தில் கிடைக்கும் தரவுகளின்படி  , உத்தரபிரதேசத்தில் 258084  பள்ளிகள் உள்ளன. 138078 தொடக்கப் பள்ளிகள்   உள்ளன. நடுநிலைப் பள்ளிகளின் எண்ணிக்கை  86430, உயர்நிலைப் பள்ளிகளின் எண்ணிக்கை  12783 மற்றும் மேல்நிலைப் பள்ளிகளின்  எண்ணிக்கை 20763 ஆகும். 

உத்தரப்பிரதேசத்தில் மட்டும் ஆறாம்  வகுப்பு முதல் எட்டாம் வகுப்பு   வரை மூன்றாம் மொழியாக தமிழ் கற்பிக்கப்பட்டு, தமிழின் வினாத்தாளில் 20 சதவீத தேர்ச்சி மதிப்பெண்கள் மட்டுமே வைக்கப்பட்டால், தமிழகத்தில் இந்தி எதிர்ப்பு அரசியல் தானாகவே வாக்கு சேகரிக்கும் அரசியலில் இருந்து வெளியேறிவிடும். இதேபோல்,  9 மற்றும் 10 ஆம் வகுப்புகளில் இந்தி மற்றும்  ஆங்கிலம் கட்டாய பாடங்களாக்கப்பட்டால், இந்திய மொழிகளில் ஒன்றை தகுதி மொழியாக மட்டுமே வைத்தால்,  நிறைய மாறக்கூடும்.

இந்த  86,430 நடுநிலைப் பள்ளிகளில் இளங்கலை அளவில் தமிழையும், மற்றொரு தென்னிந்திய மொழியையும் முதன்மைப் பாடமாகப் படித்த ஆசிரியர்களை ஒப்பந்த அடிப்படையில் நியமிக்க   வேண்டுமானால், அத்தகைய ஆசிரியர்களை ஒப்பந்த அடிப்படையில் நியமிக்க வேண்டும். இப்போது உத்தரபிரதேசத்தில் பணியமர்த்தல் செய்யப்பட வேண்டும் என்றால், அந்த ஆசிரியர்களுக்கு இந்தி மொழி தெரிந்திருக்க வேண்டியது கட்டாயமாகும்.

உத்தரப்பிரதேசத்தில் மட்டும் தென்னிந்திய தமிழ் ஆசிரியர்கள் வேண்டும் என்ற கோரிக்கை தமிழகத்தில் இந்தி கற்பிக்க வேண்டும் என்ற உந்துதலை ஏற்படுத்தும் அதேவேளை, உத்தரப்பிரதேசத்தில் மட்டும் தமிழ் கற்பிக்க வேண்டும் என்ற முடிவு தமிழக அரசியலில் பூகம்பத்தை ஏற்படுத்தும். 

இந்தி பேசும் அனைத்து மாநிலங்களிலும் இப்படி ஒரு முடிவு எடுக்கப்பட்டால், இந்தி எதிர்ப்பு தமிழர்களின் கைக்கூலிகள் உற்றுப் பார்ப்பார்கள். 

எனக்குத் தெரிந்தவரை, கடந்த எழுபது ஆண்டுகளில் இந்தி எதிர்ப்பு அரசியலில் ஈடுபட்டவர்கள் தமிழ் மொழியைப் பரப்புவதில் குறிப்பிடத்தக்க எதையும் செய்யவில்லை. இந்தி பேசும் மாநிலங்களில் ஹிங்கிலிஷ் மொழியாக்கப்பட்டதைப் போல,  தமிழகத்தில் தமிழ் டிங்கிலிஸாக மாறி வருகிறது  . இந்தி பேசும் எந்த மாநிலமும் எந்த நிலையிலும் தமிழ் கற்பிக்க முடிவு செய்வது இந்திய அரசியலில் ஒரு மைல்கல்.

இதேபோல், இந்தி பேசும் மாநிலங்களில் எந்த மட்டத்திலும் கன்னடம், தெலுங்கு,  மலையாளம் பற்றிய எழுத்து அறிவை மட்டுமே அறிமுகப்படுத்தும் முடிவு தென்னிந்தியாவில் இருந்து வரும் போலி இந்தி எதிர்ப்பை என்றென்றும் பயனற்றதாக ஆக்குவது மட்டுமல்லாமல், இந்தி எதிர்ப்பு அரசியலை முன்னெடுப்பவர்களையும் என்றென்றும் பொருத்தமற்றதாக மாற்றும்.

-அஜய் மாலிக்