केसरिया
कस्तूरी
-अजय मलिक
‘निंदित’
अचानक कार सड़क के किनारे
रोक कर वह असमंजस में थी। स्वयं उसकी समझ में कार रोकने का कारण नहीं आ रहा था ।
नई कार की खिड़कियों के चमचमाते शीशे अच्छे से बंद और बेदाग़ थे। धूल का एक कण तक
चकमा देकर अंदर घुसने की हिमाक़त नहीं कर सकता था।
उसने आँख की ओर अंगुली की
पोर को ले जाना चाहा, मगर उससे पहले ही उसकी हथेली पर आँसू
की एक बूँद से सैलाब आ गया। कार रोकने का कारण उसकी समझ में आ चुका था । अपनी ही
आँख से छलकी आँसू की एक बूँद में वह डूब रही थी। संसार के सारे समन्दरों पर वह एक
बूँद भारी पड़ गई थी ।
तरण ताल में जब वह तैरती तो
उसके तैरने पर सारी मछलियाँ, बड़े-बड़े मगरमच्छ, उसकी सारी सहेलियाँ ईर्ष्या से पसीना-पसीना हो जाते, वह मद मस्त हाथी की तरह चिंघाड़ते हुए पलक झपकते उस पार हो जाती। पर अपने
ही आँसू की एक बूँद में उसके अनुभवी हाथ पैर जवाब दे गए थे, उसकी
साँस फूल चुकी थी।
उसका तैराकी का बरसों की
अनुभव,
गति और उत्कृष्टता सब बेकार हो गए थे । गिरते हैं सह सवार ही मैदान-ए-जंग
में, कहावत उसकी आँखों के सामने हक़ीक़त बन कर उसकी हथेली पर
आँसू की एक बूँद से आए सैलाब के रूप में पड़ी थी। कार अब भी खड़ी थी।
जब वह शहर से चली थी, तब भी नहीं समझ पाई थी कि क्यों जाना है गाँव? दोनों
बेटे और पति सब उसके अचानक गाँव जाने के निर्णय पर हैरान थे। बादलों से आसमान अटा
पड़ा था। आंधी, बारिश कुछ भी संभव था। उसने न किसी की चिरौरी की, न ही किसी की चिंता
और झटपट कार निकाल कर चली आई थी। उसके और उसकी कार के फर्राटे काफी चर्चित थे।
अक्सर उसके फर्राटों से कार चरमरा जाती और चालान कट जाता।
मुश्किल से तीस पैंतीस
किलोमीटर का ही तो रास्ता था। पर गाँव में पाँच साल से घर में ताला पड़ा था । पिता
की मौत के बाद दो चार महीने में ही कभी-कभार आना हो पाता था ।
छह दिसंबर की तारीख़ बाबरी
मस्जिद के गिराए जाने से जुड़ी थी या यह कहिए कि राम मंदिर निर्माण की ओर पहले
क़दम से।
आसमान में कितने तो बादल
छाते थे… काले, सफ़ेद, भूरे, लाल, सतरंगी… अंत में सब छींटा बनकर उड़ जाते थे।
उसके बाद नीला आसमान फिर दमक उठता था। वह भुलाने की अभ्यस्त हो चुकी थी। यादों को
पटक-पटक कर पीटने में कोई भी उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था, मगर जितना वह भुलाती, यादें उतनी की सशक्त बनकर
तूफ़ान का रूप धारण कर लेतीं । यादों को भुलाने की ज़िद में वह भूलना ही भूल गई
थी। वह ऐसी विजेता थी, जिसपर हारने वाला ही सबसे ज़्यादा
हंसता था और हारने के बाद भी पदक ले उड़ता था। अनुभवहीन हारने वाले, अनुभवी विजेता के अनुभव को चुरा ले जाते थे। वह सब कुछ भूल चुकी थी,
उसके पति को भी पूरा विश्वास था कि अब वह कुछ भी याद नहीं कर सकती
है, बेटों को भुलावनी कहानी का कोई सूत्र ही पता नहीं था।
वह कार लेकर जब निकली थी, तब बादल थे मगर थोड़ी देर बाद सब साफ हो गया था। नरम-नरम गुनगुनी धूप भी
उसके साथ फ़र्राटा भरने लगी थी। नीले आसमान से वह घबरा जाती थी…अनुभवहीन कोरा
आसमान…नासमझ…। रंग बिरंगे बादलों से घिरे आसमान से उसे अपनी जीत का एहसास होता था।
वह विजेता बनी रहना चाहती थी। आसमान का नीला, खुला, बेदाग़ रूप उसके विजेता होने को देवदास की पारो के माथे के दाग की तरह
धूमिल ही नहीं करता था, बल्कि पूरी तरह लील जाता था। वह
अनुभवी थी, यादों को थका देने की दिन रात की उसकी लगन ने उसे
मुक्त हो जाने का ब्रह्मास्त्र दे दिया था। एक पल में सब साफ़ हो जाता…वह जीत जाने
के भ्रम को जब तक समेटने का प्रयास करती, तब तक नीला आसमान
सीना तानकर खड़ा हो जाता। तीस साल से वह हर दिन आसमान से हारती और हार की
तिलमिलाहट में यादों को पीस डालती। यादें और निखर उठतीं …
उसने आँसू को आँखों से लगाया
और फिर केशों में बहा दिया । कार को स्टार्ट किया और हार-जीत के मिश्रित भावों के
साथ सड़क पर फ़र्राटे भरने लगी। न जाने क्यों यह मिश्रित भाव उसे सहज लगता था। नाम
भी तो आकाश ही था। अनुभवहीन युवाप्रौढ़ आकाश… अचानक वह मुस्कुरा उठी थी। कार की
रफ़्तार बढ़ गई थी। हारे हुए आकाश को ठुकरा कर वह विजेता बनने का भ्रम पाले कितनी
दूर चली आई थी!
गाँव आ गया था। घर के सामने
सब टूटा फूटा सा लग रहा था। कार से निकलकर उसने आसमान की तरफ़ देखा और वहाँ के नीलेपन
से एक बार फिर वह नज़रें चुराकर ताला खोलने का जतन करने लगी। घर के अंदर अनगिनत सौर
मंडल बिखरे पड़े थे। असंख्य नीले आसमान… बेदाग़ आकाश… अपराजेय आकाश…जिसे उसने हरा
दिया था…या फिर शायद हारा हुआ मान बैठी थी। हराने की ज़िद में शायद रोज़ ही वह
हारती रही…थकती रही। जवानी ढल गई… शरीर थकने लगा… सब कुछ बदल गया…पर यह नीला
आसमान… आखिर क्यों यह नहीं बदला… वह जितना दूर भागती रही, उतना ही रास्ता लंबा…और लंबा होता गया…मंज़िल भी उतनी ही दूर भागती रही ।
उस दिन इसी घर में वह रसोई
के कोने में तमतमाई खड़ी थी। नीला आसमान उसके आँगन में उतर आया था… सारे बादल बरस
चुके थे,
सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मलता बिखरी पड़ी थी…चारों ओर स्निग्धता…पर
उसने उसके अनुभव ने अनुभवहीन आकाश की निष्कलंकिता को बंजर मान लिया था …
जहाँ उसने कार खड़ी की थी, वहीं तो बैठा था आकाश…प्रतीक्षा में…वह समझ ही नहीं पाई…अपनी हार के डर
से…विजेता होने के वहम से…यादों के कभी ख़त्म न होने वाले झोकों से… वह सबसे ही तो
हार गई….
दरवाज़े पर कोई दस्तक दे रहा
था। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने डाकिया खड़ा था…एक पोस्टकार्ड थमाकर पूछ बैठा- “अरे
बुआ, आप कब आईं…? इस पोस्ट कार्ड को आए दो दिन हो गए।
दो दिन पहले भी मैं आया था। .. आज भी पोस्ट कार्ड लेकर जब डाकखाने से चला था तो
आपके मिलने की आशा नहीं थी…”
डाकिया चला गया था। पोस्ट
कार्ड पर उसे अपनी ही लिखावट नज़र आ रही थी। तीस साल पहले आकाश का अंतिम पोस्ट
कार्ड इसी लिखावट में मिला था! क्या दो लोगों की लिखावट एक जैसी हो सकती है…
बिल्कुल एक जैसी नहीं, बल्कि लगभग एक जैसी! चार दिन पहले उसने स्वयं ही तो यह पोस्ट
कार्ड लिखा था, अपने ही लिए, अपना लिखा हुआ
ख़त… पर क्यों...! खुद अपने ही लिए खत लिखकर डाक में डालना और उसे लेने खुद ही
गाँव दौड़े चले आना !
पोस्टकार्ड का ज़माना कब का
लद गया। अब डाकखाने में पोस्टकार्ड मिलते ही कहाँ हैं!
तीस बरस पहले आकाश के अंतिम
पोस्टकार्ड में लिखा था- भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर मुक्त हो गया हूँ और तुम्हें
भी मुक्त करता हूँ। अगर अपनी सच्चाई साबित कर पाया तो ठीक तीस साल बाद तुम्हें
पोस्टकार्ड पर ही लिखूँगा …अंतिम बार… और पूछूँगा कि क्या सच से भागना तुम्हारे
लिए भाग्यशाली साबित हुआ!
वह स्वयं ही बुदबुदा उठी-
हाँ,
हाँ…हाँ…हूँ मैं भाग्यशाली…पर तुम झूठे थे, झूठे
हो…कोई वादा नहीं निभा सकते थे… बंजर थे…पथरीले… मैं जानती थी…अच्छी तरह जानती थी…
तुम वादा…तीस साल बाद भी एक खत लिखने का वादा...कुछ भी नहीं निभा पाए...सकते ही
नहीं थे...
सुनसान मकान में, जो अब घर नहीं था… अचानक वह फूट फूट कर रोने लगी थी। ढेर सारे आंसुओं से
सब पिघल गया था । करीब दो घंटे सिर्फ सन्नाटा गुनगुनाता रहा। मन शांत हुआ तो आत्मा
को भी तृप्ति का एहसास हुआ। मुँह धोकर उसने दरवाज़ा खोला…बाहर कोई नहीं था… आसमान
अब भी नीला दिख रहा था। उसने विजेता की तरह आसमान को मुँह बिचकाते हुए पटकनी देने
की कल्पना की और कार स्टार्ट कर वापस शहर की ओर मोड़ दी।
कुछ साल पहले गाँव के
नुक्कड़ पर नया डाकखाना बन गया था। डाकखाने से डाकिया बाहर निकाल रहा था। वह डाकखाने
के पास पहुँची ही थी कि डाकिये ने हाथ हिलाकर रुकने का इशारा किया। उसने कार रोक
कर खिड़की का शीशा नीचे किया तो डाकिये ने एक और पोस्ट कार्ड थमाते हुए कहा- “बुआ, ये बस अभी-अभी आया है।
पोस्ट कार्ड लेकर उसने
खिड़की का काँच चढ़ा दिया। पोस्ट कार्ड की लिखावट नीले आसमान के विस्तार का प्रमाण
थी। थोड़ी दूर आकार उसने कार रोकी और पोस्ट कार्ड को हौले से सहलाया, भरी हुई आँखों से जो अक्षर पढ़ने में आए वो थे- “मैंने कहा था ना कि एक
दिन मंदिर बनाकर ही रहूँगा !”
इस बार वह गर्व से सीना
फुलाकर रो रही थी। वह पूरी तरह पराजित होकर विजयी मुस्कान के साथ तीस साल पीछे चली
गई थी…यादें जीते जागते साक्षात पलों में परिवर्तित हो गई थीं, मगर वह जानती थी- सिर्फ़ सोचने से समय नहीं लौटता ।…बस यादें हैं जो कभी
धूमिल नहीं होतीं…भुलाने की असफल कोशिश बीते हुए अनमोल पलों का अपमान है । ‘आकाश’
यूं ही तो आकाश नहीं कहलाता! पृथ्वी अपने होने के घमंड में अपने अस्तित्व को भुला
बैठती है, मगर आकाश...पृथ्वी को कभी नहीं भूलता। हर वादा, जो धरती निभाने देती है,
आकाश जरूर निभाता है...उसका आकाश...
तीस साल बाद भव्य मंदिर का
निर्माण शुरू हो चुका था, मगर वह अपने मकान तक सीमित होकर रह गई थी। आकाश का सिर्फ
पोस्ट कार्ड था...दिया हुआ वचन था, वचन का निर्वाह था... उसके बच्चे थे, पति था...उसकी
जिद थी...पर वह स्वयं तीस साल पीछे ही एक पोस्ट कार्ड के अक्षरों तक सिमट कर कहीं
छूट गई थी... आकाश, अब उसका नहीं था...।
उसके मकान के पूजा घर में कोई
मूर्ति नहीं थी।
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