मुंबई में स्वर्गीय नौशाद अली साहब से वो पहली मुलाक़ात और फिर मुलाकातों का सिलसिला ... आज यूं ही अचानक वो ढ़ेर सारी ऑडियो कैसेट्स सामने आ गईं जिनमें कभी रिकार्ड किए गए इंटरव्यूज़ आज भी कैद हैं । सोचा क्यूँ न इन सबको सी डी में बदल दूँ और एम पी 3 में बदलकर ब्लॉग में अपलोड कर दूँ मगर टेप रिकार्डर नहीं मिला।
फिर याद आया गाँव का वह दौर जब हरट में बैलों को हाँकते हुए अपने बड़े भाई (ताऊ के बेटे ) से मुग़ल-ए-आज़म का वह गीत सुना था ' जब प्यार किया तो डरना क्या ...' बिजेंद्र यही नाम था उनका। हम बिजन्दर भैया कहकर बुलाते थे । अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। ताऊ भी चल बसे। ताऊ की बड़ी-बड़ी मूंछें और हल चलाते-चलाते सख्त हुई हथेलियाँ आज भी याद आती हैं। सिकंदराबाद से गाँव तक पाँच मील का उनके साथ किया गया सफ़र... कभी उनके कंधे पर तो कभी अंगुली पकड़े लगभग दौड़ लगाने जैसी कदम-ताल ... कभी बैलगाड़ी में अनाज पर तनी चौपट पर बैठे हुए खरबूजे का स्वाद। कभी उनके दोनों पैरों को पकड़ कर उछलती हुई मैडी पर संभलने की कोशिश में डर के मारे पसीने-पसीने हो जाना... गर्मी के मौसम में कुंडी वाले कुंए पर पतनाले के नीचे बकांद के पेड़ की छाया में वो ठंडे ताज़ा पानी में डुबकी लगाना ... वो गुजरा हुआ ज़माना । जाड़ों में अल सुबह सबके साथ छोल में जाना , नन्हें-नन्हें हाथों से बलकटी से ईंख काटना...कड़कडाती ठंड में रात को जोट लेकर कोल्हू पर जाना ...
अब तो वह गाँव ही कहीं खो गया ...
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