दिल, दिमाग और दृष्टि सभी में जैसे शून्य समा गया है. एक अजीब सा मोहभंग सा महसूस होता है. कुछ कहना चाहता हूँ, कुछ करना चाहता हूँ मगर फल यानी परिणाम तक पहुँच जाता हूँ... कर्म रह जाता है, निष्फल परिणाम के बारे में सोचकर. शायद इसी निष्क्रियता से बचाने के लिए कर्म करने और फल के बारे में न सोचने का उपदेश दिया गया है श्रीमद्भागवत गीता में.
शायद यही वज़ह है कि आदमी फल के बिना कोई काम नहीं करता, अपेक्षाएं और अधिक आग्रह करती हैं. कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता. मरने के भय से आदमी जीना ही अगर छोड़ दे तो फिर बचता क्या है? शून्य भी तो कुछ है. सभी तो शून्य है... फिर संज्ञाशून्य हो जाने से डरने की क्या आवश्यकता है. सारा ब्रह्माण्ड याकि परमात्मा ही जब शून्य है तो ब्रह्मा के अंश यानी आत्मा के शून्य होने से शरीर को आपत्ति क्यों होती है? फिर इस माया का मोह भी शून्य क्यों नहीं हो जाता...
-अजय मलिक
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