Oct 12, 2009

मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ

(अजय मलिक की एक कविता )
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जी हाँ ,
काँटे बोता हूँ मैं
और अंकुरित होने पर
सींचता भी हूँ उन्हें खूब
और मालूम है
उनके उग आने पर
चलता भी हूँ उन पर खूब।
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फिर-फिर सींचता हूँ उन्हें
और काँटों की प्यास बुझने पर
अपने रक्त रंजित पैरों के ज़ख्मों को
सहलाता भी हूँ
मुस्कुराते हुए।
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फिर एक-एक कर सारे काँटों को
संभालकर निकालता हूँ
मरहम लगाने से मुझे भी
चैन मिलता है
मगर काँटों को बुरा लगता है।
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मगर पाँव ठीक होने पर जब मैं
फिर से काँटे बोता हूँ
फिर से वही सब दोहराता हूँ
तो हर बार मेरे पाँवों से
रक्त बह जाता है
और दर्द रह जाता है।
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पता नहीं काँटों को
खून में मिले दर्द को पीने में
मज़ा क्यूं नहीं आता ?
पर मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ।
जाने क्यूं...
जाने क्यूं?
.

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