Oct 20, 2009

लक्षद्वीप की सैर - 1

-अजय मलिक
1989 अगस्त,16, मुझे मद्रास आए साढ़े तीन महीने हो चुके थे। दिल्ली की यादें पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं और मैं दिल्ली से दूर-बहुत दूर चला जाना चाहता था. मद्रास से भी हजारों मील दूर। तीन महीनों में कई ऐसे लोग मिले जो मित्र लगते थे । उस समय मित्र लगना मुझे पक्के दोस्त होना लगता था पर आज यही कहना उपयुक्त रहेगा कि वे बहुत अच्छे दोस्त लगते थे - राकेश, चित्रा, पूर्णिमा, नरेश, विजया और उषा भी। इन सबसे प्रीति सी महसूस होती थी मगर दिल्ली के दिलजले को सबसे दूर भाग जाने का मन था। खादी का कुछ-कुछ गेरुए रंग का कुर्ता और सफ़ेद पाजामा , यही मेरा पहनावा होता था। गाजियाबाद से चलते हुए पिताजी ने एक बड़ा सा वीआइपी सूटकेस खरीद दिया था। उसी सूटकेस में मैंने सारे बर्तन भर दिए थे - साथ में तवा, चिमटा, भगोना वगैरा भी। एक कार्टून में लगभग पचास किलो किताबें भर दी थीं।
मद्रास सेंट्रल पर कोचिन हार्बर टर्मिनस तक जाने वाली रेलगाड़ी में बैठा हुआ मैं अपने जीवन का बहुत बड़ा ख्वाब पूरा होने का इंतजार कर रहा था। गाड़ी रवाना होने से पंद्रह मिनट पहले मुझे टेपरिकार्डर थमा दिया गया और बस एक हज़ार एक सौ रूपए की फरमाइस की गई। मैंने रूपए चुकता कर दिए और रेलगाड़ी चल पड़ी। यह घटना भी मेरे जीवन के बड़े हादसों में से एक थी। वातानुकूलित डिब्बे में यह मेरे जीवन की पहली यात्रा थी।
मद्रास की बेहद उमस भरी गर्मी से शुरू हुए इस सफ़र की समाप्ति से करीब तीन घंटे पहले जब आँख खुली तो खिड़की के बाहर पानी की बूदें झरती सी लगीं । दरवाजे पर जाकर देखा तो जहां तक नज़र गई चारों और बड़े-बड़े हरे पत्तों से सारा मैदान अटा हुआ लगा। हरे सख्त पत्तों पर गिरती हुई पानी की तेज बौछारों को देखकर एक अद्भुत सी परिपूर्णता का आभास हुआ। अजीब सा सुकून जिसे व्यक्त कर पाना आज भी संभव नहीं है। वह आनंद था या आत्मविभोरता मैं नहीं जानता। केरल की गीली धरती पर कदम रखने का यह मेरा पहला अवसर था। एरणाकुलम के आगे डिब्बे में मेरे अलावा और कोई यात्री नहीं था।
शायद कविता नाम था उस लाज का...मुझे वहां दो दिन रुकना था क्योंकि आगे की यात्रा के लिए तीसरे दिन ही वायुदूत की उड़ान थी। इन दो दिनों में मुझे आगे की यात्रा के लिए परमिट भी लेना था। मलयालम का एक शब्द तक नहीं आता था और अंग्रेजी बोलने का अभ्यास नहीं था। लाज में नहा-धोकर टेपरिकार्डर चलाया लेकिन उससे गाने की जगह खिचर-खिचर जैसी आवाज़ आने लगी। मैं समझ गया लपेटने वाले ने मुझे ग्यारह सौ रूपए में कबाड़ थमा दिया था। मेरे तब तक के जीवन का बहुत बड़ा सपना चूर-चूर हो चुका था। पगार (वेतन ) सिर्फ दो हजार के आसपास मिलती थी।
किसी तरह पूछताछ कर लक्षद्वीप प्रशासन के दफ्तर का पता लगाया और दो दिन में परमिट ले लिया। एक फिल्म भी शायद कोचिन में देखी थी जिसका नाम अब याद नहीं है। तीसरे दिन एक आटोरिक्शा में तवे-चिमटे वाला सूटकेस और किताबों का कार्टून रख कर कोचिन हवाई अड्डे पहुंचा। सामान का वज़न निर्धारित सीमा से चार गुना ज्यादा था जिसके अतिरिक्त पैसे देने पड़े। हवाई यात्रा के जोश में सब कुछ अच्छा लग रहा था।
वह चालीस या पैंतालीस सीटों वाला विमान था। एक सवा घंटे की वह पहली हवाई यात्रा भुलाए नहीं भूलती। आँखों में कई तरह के ख्वाब तैर रहे थे। लक्षद्वीप के बारे में केवल कल्पना ही कर सकता था... कुछ पहाड़ होंगे, कुछ झरने, कुछ नदियाँ वगैरा। विमान जब उतरने लगा तो देखा नीचे एक लम्बी सी हरी पट्टी भर है, शुरू में चने के पौधे जैसे लग रहे नारियल के पेड़ धीरे-धीरे साफ़ नज़र आने लगे। हवाई अड्डे पर वीरानी थी या सन्नाटा, यह बता पाना कठिन है। यह अगत्ती द्वीप था। मुझे कवरत्ती जाना था मगर चारों और समुद्र के अलावा कुछ नहीं था। आगे कैसे जाना होगा इसकी कोई जानकारी मुझे नहीं थी। अब मुझे पहली बार कुछ घबराहट सी महसूस हो रही थी। पहाड़, झरने, नदिया ....

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