अशिष्ट जी की यह विशिष्ट कहानी रोचक बन पड़ी है । आरंभ से अंत तक उत्कंठा से परिपूर्ण इस कहानी में बड़े साहब की रीति, नीति और ख्याति का भरपूर ख्याल रखा गया है, आखिर कहानी के वे नायक तो हैं ! लगता है बड़े साहब की सुमधुरता और सौगंद से मोहित छोटे बाबू को खलनायक बनाने का दुस्साहस न करके कहानीकार ने कहानी के प्रति बड़ा न्याय किया है ।
अशिष्ट जी की इस कहानी की सार्थकता का बयान थोड़ी-सी पंक्तियों में अभिव्यक्त करना एक बड़ा दुस्साहस ही कहलाएगा । कहानीकार ने समाज के दर्पण में सज-धजकर नज़र आनेवाले तथाकथित बड़े साहबों की ओर इशारा मात्र करते हुए, ऐसे विशिष्ट लोगों के साथ कैसे पेश आए, या उनके साथ लेन-देन में कैसी सावधानी बरती जाए, यह पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है । इस कहानी से निश्चय ही विवेकपूर्ण पाठकों का ज्ञानोदय होगा, मगर क्या वे मदद करने की अपनी मानसिकता बदल पाएंगे, बड़े साहब के वर्चस्व के मद्देनज़र यह बिल्कुल असंभव प्रतीत होता है । आखिर अशिष्ट जी ने भी अपने को ‘अशिष्ट’ नाम से प्रकट करके अपनी शिष्टता को ही प्रकट किया है, बड़े साहब के विरुद्ध किसी खलनायक को पैदा करने का विकट साहस नहीं किया है । ऐसे साहस को यदि हम अशिष्टता कह सकते हैं, तो कथाकार ने अपने लिए जो नाम चुना है, वह सार्थक ही लगेगा । यदि वे बड़े साहब की कहानी के भविष्य के किस्त भी पेश करते हुए नज़र आएंगे तो ‘शिष्ट’ नाम भी निरर्थक नहीं होगा । ऐसी कहानी हिंदी के हित में कहा तक सार्थक है, मुझ जैसे एक आम पाठक को पता नहीं, मगर यह कहना समीचीन होगा कि यह हिंद के हित में है । बड़े साहब कहीं और जुगाड़ लगाकर हिंद के पार विदेश में भी पहुँच पाने की स्थिति में, अशिष्ट जी को अपनी यह कहानी अंग्रेजी में भी पेश करनी होगी, क्योंकि तब तो यह कहानी दुनिया के हित में होगी । ऐसे ही विशिष्ट बड़े साहबों की बदौलत आज हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने की ठानकर इठला रही है । बड़े साहब की इस छोटी कहानी को हिंदी में अंतर्जाल पर पेश करनेवाले अशिष्ट जी भी अपनी इस उपलब्धि पर इठलाते हुए ही न बैठें, बड़े साहब की बड़ी-बड़ी कहानियाँ भी पेश करने का विनम्र प्रयास जरूर करें । एक आम पाठक इससे बढ़कर क्या व्याख्या कर सकता है इस कहानी की, बस अब बड़े आलोचकों की सुनने की लालसा बनी रहेगी जरूर ! ‘उनकी अदा’ कहीं यह तो नहीं कह रहा है कि ‘दग़ा किसी का सगा नहीं’ ?!
ए. पाठक
अशिष्ट जी की इस कहानी की सार्थकता का बयान थोड़ी-सी पंक्तियों में अभिव्यक्त करना एक बड़ा दुस्साहस ही कहलाएगा । कहानीकार ने समाज के दर्पण में सज-धजकर नज़र आनेवाले तथाकथित बड़े साहबों की ओर इशारा मात्र करते हुए, ऐसे विशिष्ट लोगों के साथ कैसे पेश आए, या उनके साथ लेन-देन में कैसी सावधानी बरती जाए, यह पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है । इस कहानी से निश्चय ही विवेकपूर्ण पाठकों का ज्ञानोदय होगा, मगर क्या वे मदद करने की अपनी मानसिकता बदल पाएंगे, बड़े साहब के वर्चस्व के मद्देनज़र यह बिल्कुल असंभव प्रतीत होता है । आखिर अशिष्ट जी ने भी अपने को ‘अशिष्ट’ नाम से प्रकट करके अपनी शिष्टता को ही प्रकट किया है, बड़े साहब के विरुद्ध किसी खलनायक को पैदा करने का विकट साहस नहीं किया है । ऐसे साहस को यदि हम अशिष्टता कह सकते हैं, तो कथाकार ने अपने लिए जो नाम चुना है, वह सार्थक ही लगेगा । यदि वे बड़े साहब की कहानी के भविष्य के किस्त भी पेश करते हुए नज़र आएंगे तो ‘शिष्ट’ नाम भी निरर्थक नहीं होगा । ऐसी कहानी हिंदी के हित में कहा तक सार्थक है, मुझ जैसे एक आम पाठक को पता नहीं, मगर यह कहना समीचीन होगा कि यह हिंद के हित में है । बड़े साहब कहीं और जुगाड़ लगाकर हिंद के पार विदेश में भी पहुँच पाने की स्थिति में, अशिष्ट जी को अपनी यह कहानी अंग्रेजी में भी पेश करनी होगी, क्योंकि तब तो यह कहानी दुनिया के हित में होगी । ऐसे ही विशिष्ट बड़े साहबों की बदौलत आज हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने की ठानकर इठला रही है । बड़े साहब की इस छोटी कहानी को हिंदी में अंतर्जाल पर पेश करनेवाले अशिष्ट जी भी अपनी इस उपलब्धि पर इठलाते हुए ही न बैठें, बड़े साहब की बड़ी-बड़ी कहानियाँ भी पेश करने का विनम्र प्रयास जरूर करें । एक आम पाठक इससे बढ़कर क्या व्याख्या कर सकता है इस कहानी की, बस अब बड़े आलोचकों की सुनने की लालसा बनी रहेगी जरूर ! ‘उनकी अदा’ कहीं यह तो नहीं कह रहा है कि ‘दग़ा किसी का सगा नहीं’ ?!
ए. पाठक
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