बचपन में प्याज से प्रेम जैसी कोई बात न थी. प्याज के महीन कतलों को सब्जी या दाल में जला भुना देखकर चिडचिडाहट होती थी. गाँव में अरहर की दाल से होने वाली उकताहट का ब्यान करना मुश्किल है, ऊपर से प्याज का काला-काला सा तड़का देखकर अजीब सी बोरियत हुआ करती थी. मगर आज प्याज बस सपने की चीज़ बनकर रह गई है. पत्नी रोज प्याज का भाव और उससे जुड़े किससे सुनाती है कि कैसे उसने उसे न खरीदने की हिम्मत दिखाई. अब तो बस यही एक गीत की पैरोडी मनमीत बन गई है -
प्याज को प्याज ही रहने दो कोई नाम न दो हमने देखी है प्याजों की महकती खुशबू,
एक एहसास है ये, रूह से महसूस करो ...
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