इस ख़ुशी को कैसे अभिव्यक्त करूँ !!
इस ख़ुशी की नींव जिन ग़मों पर रखी गई , उन्हें कैसे भुलाऊं... आज अगर वह होती तो थोड़ी बहुत गालियाँ सुनाकर हँसती...फिर दो-चार ताने देती और फिर हँसती, गर्व से गर्दन तानकर कहती- देख ले भैया, मैंने कर दिखाया यह भी। मैं उसकी गालियाँ सुनकर हँसता और उसे थोड़ा सा और चिढ़ाता ताकि वह कुछ और गालियाँ दे सके और फिर हँसे।
बचपन की यादें... उन यादों में उसकी गालियाँ बहुत भाती थीं। वक़्त अपना काम करता है और उससे बड़ा, उससे शक्तिशाली कोई नहीं। 20 फरवरी, 2003 का वह मनहूस दिन, एक दुर्घटना ने सब कुछ लील लिया। एक हँसता-मुस्कराता परिवार बैसाखियों पर आ गया। घर के मुखिया का एक समूचा पैर ही चला गया। उसके दोनों पैरों की हड्डियां जो टूटीं तो वह चारपाई पर आ गई। उसके स्वाभिमान का मैं सदैव कायल रहा। वह चारपाई से उठी भी मगर बार-बार चारपाई उस तक खिंच आती रही। परिस्थितियों ने ऐसा रंग बदला कि जहाँ इलाज संभव था वहीँ से वक़्त ने उसे वापस जाने पर मजबूर कर दिया और 29 नवम्बर को जन्मीं वह मेरी बहन पिछले वर्ष 11 नवम्बर को दुनियाँ से विदा हो गई। उसकी कराहटें आज भी कानों में गूँजती हैं।
घर के मुखिया की उदासी तक अपाहिज हो गई...और भी बहुत कुछ हुआ जिसे नहीं होना चाहिए था। गलतफहमियों का जंजाल बोलने से बढ़ता है तो चुप रहने से और भी ज्यादा उलझता है।
सुलझाता उसे वक्त ही है अन्यथा सारे प्रयास नाव को भंवर की ओर ही धकेलते हैं।
आज मैं उस मुखिया के चेहरे पर हजारों गुनी चमक देखने को आतुर हूँ। उन दोनों ने जिस धैर्य और संकल्प से शुरुआत की थी आज उसने बहुत सारी घूरती निगाहों को निश्तेज कर दिया है। बहन ने अपना जीवन न्योछावर करके, घर के मुखिया ने सब कुछ सहकर आज जो पाया है उसके लिए शब्द पूरे नहीं पड़ रहे हैं...
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