"बाड़ खेत को खा गई" यह बहुत ही पुरानी, हर मौसम में मौजू और बेहद प्रचलित कहावत है। पहले वह सोचता था कि जो बाड़ खेत की चारदीवारी की तरह होती है वह खेत को कैसे खा सकती है भला? बड़े-बूढ़े समझाते थे- "बेटा जब तुम्हारे देखते-देखते यह सब होगा तब मान जाओगे। अभी बचपना है इसलिए बचकानी बाते करते हो, न जाने कितने खेत बाड़ के पेट में समा गए और ज़माना भौचक देखता रह गया।"
अब सब ओर वह यही देखता है कि खेत रो रहा है अपनी बेचारगी पर और बाड़ अट्टहास कर रही है अपनी दीवानगी पर। खेत को जैसे बाड़ ने अपने खूंखार जबड़ों में जकड़ा हुआ है... बड़े-बड़े नुकीले दांत खेत के सीने को छलनी करते जा रहे हैं मांस के लोथड़े चारों और बिखरे पड़े हैं... लहूलुहान है खेत का जर्रा-जर्रा... मगर यह सब देखकर भी जाने क्यों डरा हुआ सहमा-सहमा सा खामोश है विधाता ? क्या यही विधि का विधान है? क्या बाड़ और ब्लैक होल में कोई समानता है?
रेलगाड़ी का एक ऐसा इंजिन जिसके पहियों में जंग लगा हो, एक्सल टूटा हो, ब्रेक जाम हों, हर नट-बोल्ट से तेल रिस रहा हो, हर कल-पुर्जे से कान फोडू शोर निकलता हो, ऐसा इंजिन … अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस नवनिर्मित डिब्बों को कैसे किसी पड़ाव तक पहुंचा सकता है? कैसे उन डिब्बों की अत्याधुनिक सभी सुख सुविधाओं से लबालब शायिकाओं को कोई सवारी मिल सकती है ?
सवारी को अपनी मंजिल तक पहुंचना है, लचर इंजिन के कोचों में सुनसान-बियाबान जंगलों में पड़े रहना कोई यात्री क्यों पसंद करेगा? फिर भी इंजिन को इस बात का गर्व है कि वह किसी भी अत्याधुनिक तकनीकी से निर्मित डिब्बे को कहीं भी, किसी भी जगह जाम कर देने, रोक देने, नाकारा और अनुपयोगी साबित करने में न सिर्फ सक्षम है बल्कि माहिर भी है।
बाड़ के खाने के लिए जब कोई खेत नहीं बचेगा तब क्या होगा? क्या बाड़ का अस्तित्व खेतों के बिना बचा रह सकेगा? वह भगवान् को पुकारना चाहता है मगर भगवान् भी बाड़ से भयभीत भागते नज़र आते हैं... मगर कब तक और कहाँ तक भागेंगे भगवान् ... एक दिन तो भगवान् को भी बाड़ क़ी चपेट में आकर लहुलुहान हो जाना ही पड़ेगा क्योंकि बाड़ क़ी भूख कभी मिटने वाली नहीं है।
- अजय मलिक
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