आज उनका जन्मदिन है और कल उनकी बहुत याद आई। किसी एक पल के लिए नहीं बल्कि पूरे दिन उनकी याद ...यादों की जैसे मूसलाधार बारिश हो रही थी। मैं उनकी यादों में सराबोर थी फिर भी भीगी हुई नहीं लग रही थी। उनकी यादों की नमी बार-बार मेरी आँखों से छलक पड़ना चाहती थी। मैं मंच से अपनी बात कहते हुए हर पल उन्हें अपने पीछे साक्षात उपस्थित पा रही थी। साढ़े दस बरस पहले संसार से विदा ले चुकीं गीता जी मुझे जैसे पल-पल लोरी सुना रही थीं। ऐसा क्यूं होता है कि जो नहीं हैं वे अपने होने के अहसास से जीने की और बढ़ते जाने की प्रेरणा देते हैं और जो हैं उन्हें हम भुलाए रहते हैं ?
गीता जी को हिंदी से लगाव क्यों था ? अपनी गुरु के इस विशेष लगाव के बारे में मैं कभी नहीं जान पाई। हाँ, मुझे हिंदी से लगाव अपनी गुरु के लगाव के कारण ही हुआ। मलयालम भाषी होते हुए भी हिंदी के प्रति इस लगाव ने मुझे कभी न धोखा दिया, न ही कभी सिर झुकाने की नौबत ही आने दी। सच कहूं तो इसी हिंदी के प्रति श्रद्धा के कारण मैंने सिर उठाकर जीना सीखा। खैर, इस सब के दोहराने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि यह तो अपना-अपना नज़रिया है। परसों कुंजम्मा सेवानिवृत हो गईं। उनका फोन नंबर इंटनेट से तलाशा मगर तब तक रात के साढ़े दस हो गए थे। फोन तो मिला मगर बात न हो सकी। कल सुबह उनसे बात हुई। अच्छा लगा... बहुत अच्छा लगा। गीता जी बारह साल बड़ी थीं उनसे। आज होतीं तो सब कैसे तो बतिया रहे होते। समय असमय ही बीत जाता है। कुंजम्मा भी किसी क्षण मेरी प्रेरणा बनी थीं। वे सिंह थीं तो मैं मलिक बन गई।
यादों के इन झरोखों से क्या कुछ तो छलक गया है। यादों की बौछार से आखों का रूखापन कुछ कम हो गया। कल आई आई टी चेन्नै में इन यादों का साया मेरा रक्षा कवच बन गया और लोगों को लगा कि मैं बोल रही हूँ शायद कोई मेरठ वाली ...या फिर कोई पंजाबिन ... या फिर कोई अलीगढ़- आगरा - मथुरा वाली... देहातिन जाटनी... पर मेरे सिवाय ये कोई नहीं समझ पाया कि मैं स्वर्गीय गीता जी की प्रतिभा और मलिक बोल रही हूँ। है ना कुंजम्मा , क्या आप समझ पायीं इस रहस्य को ?
जाने वालों की यादें रह जाती साथ..
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