Dec 21, 2016

एक लघु कथा - "बैंच"

बैंच

                    -अजय मलिक (c) 


अस्सी साल की उम्र कम नहीं होती और वह हँसते -हँसते कब पचासी पार कर गई, पता ही नहीं चला। हर सुबह पार्क की इसी बैंच पर आकर घंटों बैठ कर वह चलती-फिरती ज़िंदगी को देखती रहती है। बैंच भी उसी की तरह बुढ़ा गई है मगर उसके चेहरे की तरह झुर्रियां नहीं आई हैं। बैंच घिसकर चमकने लगी है, वह होले से बैंच के चिकनेपन को महसूस करने के लिए खुरदुरी सूखी अंगुलियों से सहलाती है।

दस साल हो गए पति को गुज़रे। तब कभी-कभी दोनों इस बैंच पर आकर बैठते थे, तब अंगुलियों में इतना खुरदरापन नहीं था। पति ने कभी उन अंगुलियों पर ध्यान नहीं दिया। उसने कभी इसकी शिकायत भी नहीं की। चालीस बरस पहले किसी ने कहा था-तुम्हारी ये कोमल अंगुलियाँ कितनी सुंदर हैं, हमेशा हँसती रहती हैं। तब से वह ख़ुद भी हँसने लगी। एक दिन हँसते -हँसते वह बोल पड़ी- अगला जन्म तुम्हें सौंपती हूँ, इस जन्म का हिसाब तो औरों ने कर दिया...अब बाकी कुछ भी नहीं है।

जाने क्यों वह जीना नहीं चाहता था और अगले जन्म की भी चाह नहीं रखता था। उसकी अंगुलियों के हँसने का राज बताकर चुपके से बहुत जल्दी चला गया। पति को कभी उसके हँसने का रहस्य पता नहीं चल सका।

वह अभी भी जीते रहना चाहती है दो जन्मों के बराबर। उसे उन दोनों के लिए इसी जन्म में जी लेना होगा। हँसते-हँसते उसका अन्तर्मन कितना चिकना हो गया है, ठीक इस बैंच की तरह। हँसी की इस चादर पर कोई दुख नहीं ठहरता...

 

No comments:

Post a Comment