अक्तूबर 2016 में चेन्नई से आया था । कई मित्रों से मिलना संभव नहीं हो सका था। कुछ बेहद व्यस्त थे और मिल पाने में असमर्थ थे । अक्तूबर 2016 दुबारा नहीं आएगा और आना चाहिए भी नहीं क्योंकि यह उतना प्रीतिकर...उतना सुकून भरा नहीं था, जितना इसे होना चाहिए था । कोलकाता आकर एक अंधी गली की कभी न खत्म होने वाली दौड़ में शामिल हो गया । दिवाली पर शायद पहली बार हमारे बच्चे अकेले रहे । मैं कोलकाता में, पत्नी गाजियाबाद में, बेटी हॉस्टल में और बेटा चेन्नई के घर में। बहुत कम लोगों को शुभकामना संदेश भेजे... और मिले उनसे भी कम । कुछ ऐसे मित्र जो कभी नहीं भूलते थे वे भी भूल गए ।
खुद को काम में डुबा देने के सिवाय दूसरा कोई चारा भी न था। सिर पर काम आया भी इतना था कि कल्पना नहीं की जा सकती। पच्चीस शहरों में अस्सी निरीक्षण और दिन सिर्फ पाँच जो बढ़कर नौ हो गए थे। नवंबर की शुरुआत दुखद रही ...यहाँ भी कल्पना से परे कुछ ऐसा घटित हुआ कि स्वास्थ्य पर असर डाल गया। किसी भी स्थिति में रक्तचाप से बचा रहने वाला आदमी अचानक उच्च रक्तचाप का शिकार हो गया। मन हुआ कि सब छोड़-छाड़ कर वापस चेन्नई लौटा जाए। 16 नवंबर तक चक्कर खाते सिर के साथ घूमता रहा और मन के बिना यानी बेमन से...
1986 में हिन्दी आंदोलन से जब पूरी तरह जुडा था तब कभी पछतावा होगा यह नहीं सोचा था मगर नवम्बर 2016 में वे दिन याद आए जब पहली बार राजभाषा कार्यान्वयन में आया था...तीस साल बाद मुझे लगा कि मैं हार गया हूँ ... दुनिया से, हिन्दी वालों से, अपने मन से और तन से भी ...
मैं सिवाय समय के किसी को दोष नहीं देना चाहता मगर यदि ऐसे ही चलता रहा तो सब समाप्त हो जाएगा...अपनी भाषाएँ हम बचा नहीं पाएंगे।
बच्चों के जन्मदिन एक से तीस नवंबर के बीच पड़ते हैं ... इस बरस पहली बार बच्चों के जन्मदिन पर माता-पिता साथ नहीं रहे।
दिसंबर तो दिल दहला देने वाला निकला... चेन्नई के ऐसे-ऐसे दरख्त ढह गए, जिनके कभी हिलने की भी संभावना नहीं थी। तूफान ने सब लील लिया। कई बार कोई संदेश तक नहीं मिला... तूफानी हवाएँ अनेक शीशे के शामियाने उड़ा ले गईं... कुछ स्टील के स्तंभ जिनकी नींव बेहद पुख्ता थी वे भी उखड़ गए। मन, जब टूटने पर आया तो टूटता ही चला गया, सब कुछ बिखर सा गया।
ये दिसंबर भी बीत ही जाएगा... बस इतना ही कहूँगा कि वर्ष 2016 एक घाव सा दे गया । भरोसा कई जगह से टूटा । 2017 की शुरुआत चेन्नई से करूंगा...कुछ साँसे फिर सँजोऊंगा , शायद कोई रास्ता निकले ।
बार बार लगता है कि नौकरी की यात्रा के थमने का वक्त आ गया है।
-अजय मलिक
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