एक कहानी : गोखरू
यह
कहानी दो बुज़ुर्गों की जबानी सुनने को मिली। दोनों का रोज का उठना-बैठना था। कभी
एक इस घर आकर भूली-बिसरी यादों के गमछे से आज के प्रदूषित माहौल की धूल झाड़ जाता तो कभी दूसरा उस घर जाकर बिना शक्कर की चाय की चुसकियों की मिठास का कड़वापन झेल
आता।
मैं
उनकी दिनचर्या का अचानक ही कुछ मिनटों के लिए हिस्सा बन गया था।
इनके
नाम हैं चमन सिंह और नवल सिंह। चमन सिंह पिछले दिनों अचानक बीमार पड़ गए। दिल की धड़कने
अचानक बेकाबू हो गईं। उन्होंने पत्नी के मना करने पर भी बाइक निकाली और पत्नी के
साथ गैस की दवा लेने निकल पड़े। डॉक्टर ने समझाया कि मामला गैस का नहीं,
बल्कि दिल का है और काफी गंभीर है ... तत्काल अस्पताल में भर्ती हो जाइए।
चमन
सिंह समझ गए कि दवा की कीमत दिल के नाम पर वसूलने का इरादा है डॉक्टर का। छह हज़ार
रुपए यूँ ही तो नहीं दिए जा सकते हैं। रुपए उगाने वाली कोई खदान-वदान भी उनके
पास नहीं थी। खाद की एक दुकान खोलकर पैसों की फसल न उगा पाने के कारण बंद करने की नौबत
से वे वैसे ही बेहद परेशान चल रहे थे।
डॉक्टरों की योग्यता पर शक करने का चलन उनके खानदान की एक अलग ही बीमारी थी।
डॉक्टरों की योग्यता पर शक करने का चलन उनके खानदान की एक अलग ही बीमारी थी।
चमन
सिंह घर चले आए। रास्ते भर डॉक्टर को कोसते रहे और पत्नी को समझाते रहे कि इन
डॉक्टरों के चक्कर में पड़ने से क्या-क्या नुकसान झेलने पड़ सकते हैं। एक दवा की दुकान रास्ते में पड़ती थी वहाँ से गैस
की दवा भी ले ली।
पत्नी बेचारी करती भी तो क्या करती ! चुपचाप सुनने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। घर पहुँचकर चाय बनानी चाही तो दूध पर बिल्ली की इनायत हुई मिली। चाय जरूरी थी और नवल सिंह के आने का भी समय होने को था। उन्होंने दूध का डिब्बा उठाया और दुकान की ओर प्रस्थान कर गईं। चमन सिंह ने गैस की दवा गटकी और सुबह-सुबह जो जबदस्त चिकनाई भरी पूड़ियाँ चटकारे ले लेकर चबाईं थीं, उनसे उत्पन्न संभावित गैस को ठिकाने लगाने में जुट गए।
पत्नी बेचारी करती भी तो क्या करती ! चुपचाप सुनने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। घर पहुँचकर चाय बनानी चाही तो दूध पर बिल्ली की इनायत हुई मिली। चाय जरूरी थी और नवल सिंह के आने का भी समय होने को था। उन्होंने दूध का डिब्बा उठाया और दुकान की ओर प्रस्थान कर गईं। चमन सिंह ने गैस की दवा गटकी और सुबह-सुबह जो जबदस्त चिकनाई भरी पूड़ियाँ चटकारे ले लेकर चबाईं थीं, उनसे उत्पन्न संभावित गैस को ठिकाने लगाने में जुट गए।
दस-पंद्रह
मिनट में गैस द्रव में बदल गई और पसीने की शक्ल में सारे शरीर से छनने लगी। हाथ
ऐंठने लगे, सिर घूमने लगा और अन्जाने तीखे दर्द के आगोश में
पूरी तरह जकड़ जाने के बाद उन्हें कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि खानदानी परंपरा के निर्वाह के लिए कुछ डॉक्टरों को अयोग्य मानना पद सकता है मगर सब डॉक्टर अयोग्य नहीं हो सकते।
किसी
तरह फोन उठाया और भतीजे के बेटे को बुला भेजा। वह बिना लाइसेंस का अवयस्क ड्राइवर चमन सिंह को पास के अस्पताल ले गया। वहाँ भी डॉक्टर समझदार लगे। उन्होंने चमन
सिंह को सघन चिकित्सा कक्ष में डलवा दिया और चीर-फाड़ की तैयारी में जुट गए।
आधुनिक
बेहद महीन बरमे से उनकी नसों की गाद को हटाने का काम शुरू कर दिया गया। जब होश आया
तो चमन सिंह काफी राहत महसूस कर रहे थे। समझदार डाक्टरों के बिल की परवाह अब नहीं
रही थी। तीन दिन में पौने दो लाख का बिल भरा गया। उन्हें बताया नहीं गया था।
हालांकि उन्हें अब इस रकम की ज्यादा परवाह नहीं होने वाली थी। जान बची तो लाखों
पाए।
घर
आने पर फिर नवल सिंह के साथ छोटी छोटी बैठकों की अड्डेबाजी शुरू हो गई। दवा खाते
और दिल बहलाने के लिए पुरानी यादों में तैरने लगते। सरकारी मुलाजमत की थी तो कुछ
पेंशन-वेंशन भी मिलती थी। सरकार से इलाज खर्च की भरपाई की उम्मीद थी। बीमारी का
बिल सरकार को भेजा गया मगर बाबू की बाबूगीरी का कमाल ये कि पौने दो लाख रुपए अस्सी
हजार में बदल दिए गए, बाकी काट-पीट के हवाले हो गए। असली मशक्कत का समय
तो अब आया था। चमन सिंह ने भुगतान लेने से इंकार कर दिया। बाबू ने आपत्ति लगा दी।
बाबू ने सिर्फ बिल भर पास किया था, भुगतान लाने आने का कोई न्यौता वगैरहा थोड़े ही भेजा था।
मैं
उस दिन चमन सिंह के पास बैठा था और इसी बीच नवल सिंह भी आ गए। मेरा परिचय कराने के
बाद बात आगे बढ़ी। चमन सिंह के बिल का दुखड़ा सुनने के बाद नवल सिंह ने एक जीजा-साले का किस्सा कुछ यूँ बयाँ किया-
साले
साहब जिनसे चमन सिंह भी बाक़ायदा परिचित थे, एक ब्लॉक के बीडीओ बन गए। उसी ब्लॉक में उनके जीजा जी
का गाँव भी पड़ता था। सब्सिडी हटाओ का आज जैसा माहौल तब नहीं था। सब सब्सिडी देना
चाहते थे और बाकी बचे हुए सबके सब सब्सिडी लेना चाहते थे। एक हज़ार की सब्सिडी का चैक से
भुगतान होता था और पाँच सौ रुपए पहले जमा करने पड़ते थे। ये पाँच सौ रुपए रिश्वत
बिल्कुल नहीं थी। ये रुपए किसी भी तरह की संभावित आपत्ति से बचने के लिए सहर्ष दिए जाते
थे। सारा मामला बेहद ईमानदारी का था। पाँच सौ की नकद सुरक्षा राशि जमा कराते ही एक
दस्तख़त भर करने से एक हज़ार का चैक हाज़िर कर दिया जाता था। आपत्ति तो क्या किसी आफत
का बाप भी चीं-पटाक या कूं-कूं नहीं कर सकता था।
जीजा
को भी सब्सिडी की भनक थी। वह बेहद खुश था। होता भी क्यूँ नहीं जब जोरू का भाई यानि खासम खास अपना निजी साला बीडीओ बनकर आया था। वैसे इससे पहले भी जीजा ने सब्सिडी बहुत बार ली
थी मगर हर बार आपत्ति निवारण राशि नकद जमा करानी पड़ी थी। इस बार उन्हें पूरी
उम्मीद थी कि आपत्ति और उससे बचाव की राशि का सवाल ही नहीं उठने वाला है। अपना
साला जो बीडीओ है। और जो बीडीओ है वो ही तो आपत्ति उठाने वाला होता था।
जीजा
जी निश्चित समय और तारीख पर बीडीओ दफ्तर पहुँच गए। साले ने जीजा जी की खूब आव भगत
की। जीजा ने जब सब्सिडी का मामला उठाया तो साले साहब ने बाबू को बुला कर परिचय कराने के बाद कहा- “ बाबू साहब
हमारे जीजा जी से बात कर लो, सारी बात अच्छे से समझ लो।“
जीजा
जी से बाबू साहब ने बात की और कागज़-पत्र तैयार कर बीडीओ साहब के सामने पेश कर दिए।
बीडीओ साहब ने पूछा-“ पैसे आ गए?”
बाबू
गश खा गया और बोला - “ साहब, वो तो आपके जीजा जी थे तो उनसे पैसे की बात...”
बीडीओ
ने बाबू को अपने सामने की कुर्सी पर बिठा लिया और सच्चे, उम्दा तथा ताजा व्यावहारिक ज्ञान की बंद कोठारी का अचानक दरवाजा खोलते हुए बोले- “ यह बेहद सच्ची और पते की बात है कि वो मेरा जीजा है और मैं
उसका साला। उसे अच्छी तरह मालूम है कि मैं यहाँ का बीडीओ हूँ। - और बीडीओ क्या होता है,
कैसे जीता है, कितना कमाता है...ये सब भी उसे मालूम है। जब मैं
अपनी भांजी या भांजे का भात भरने जाऊँगा तब वो मुझे अपना साला कम और बीडीओ ज्यादा
मानेगा। वो मेरी जेब बीडीओ की जेब मानकर खाली कराएगा। तब वो भूल जाएगा कि मेरी
तनख्वाह कितनी है! उसे बस इतना ही याद रहेगा कि सब्सिडी की आपत्तिनुमा आफत से बचाव
की कितनी रकम मिली। वो उस रकम के हिसाब से भात भरवाएगा। वो मुझे तब किसी कीमत पर
छोड़ने वाला नहीं है।“
“नियम
तो नियम है, फिर वह कागजी हो या जबानी। ...और नियम सबके लिए
समान होना ही चाहिए। नियम के आड़े न कोई जीजा आना चाहिए,
न ही किसी का कोई साला फटकना चाहिए। न सब्सिडी में नियम टूटना चाहिए और न ही भात और कोथली
में”।
बाबू
की समझ में सारी बात आ गई। तीन दिन बाद बीडीओ के जीजा जी आए और बाबू से चैक लेने
के लिए मिले। बाबू ने बताया कि आप की सब्सिडी पर तो आपत्ति लग गई है। जीजा जी
हैरान हो गए। उनका साला बीडीओ है और फिर भी उसकी सब्सिडी पर आपत्ति लग गई! -ऐसा कैसे
हो सकता है?
वे
बीडीओ के कमरे में घुस गए और सारी बात ब्यान कर दी। बीडीओ ने बाबू को बुलाया और
पूछा - “इनकी सब्सिडी पर आपत्ति कैसे लग गई? ...जब इनके पैसे आ गए तो आपत्ति कैसे लगी?”
फिर
बिना बाबू के उत्तर की प्रतीक्षा किए वे जीजा जी से मुखातिब हुए- “आप इनके साथ
जाइए और अभी के अभी आपत्ति हटवाइए”।
“...
बाबू जी, इनकी आपत्ति शाम तक हट जानी चाहिए और इनका चैक आज ही जारी हो जाना चाहिए। समझ गए ना। ये मेरे जीजाजी हैं।बहुत काम-धाम वाले बिजी आदमी हैं, रोज-रोज इस दफ्तर का चक्कर ये नहीं लगा
सकते...”
नवल
सिंह ने आगे बताया-
बिस्बा
का मामला तो चमन तुम्हें पता ही है...अरे वो ही अपना बिस्बनाथ। बड़ा ही नेक बंदा
था। इशारे भर से बात समझ लेता था। अपनी तो अपनी और न जाने कितने दूसरों की सब्सिडी
दिलवाई थी उसने। हिसाब-किताब और दुनियादारी बाखूबी समझता था। उसका कोई काम कभी नहीं रुकता था। ये
संयोग की ही बात थी कि एक बार उसकी सब्सिडी पर खजाने से आपत्ति लग कर आ गई। बीडीओ
के पास जब मामला आया तो उन्होंने बाबू से पूछा-
“ इनके पैसे आ गए थे क्या ”।
बाबू
ने हाँ में जवाब देते हुए कहा- “ साहब, बिस्बा जी के पैसे तो हमेशा की तरह इप्लीकेसन के साथ ही आ गए थे। हमने सब किलियर भी किया था... पता
नहीं टिरेजड़ी से आपत्ति कैसे लग गई? वहाँ भी हमने पूरी कलियारेंस फीस पहुँचाई थी!”
बीडीओ
साहब बड़े ही ईमानदार आदमी थे। उनका उसूल था कि पैसे आने के बाद किसी का भी काम नहीं रुकना चाहिए। बाबू की बात सुनकर बहुत गुस्सिया गए। बाबू से एक ही बात बोले- “बाबू जी,
हम कुछ नहीं जानते। जब पैसे आ गए तो आपत्ति कैसी? इनका भुगतान आज ही होना
चाहिए। चाहे चैक से हो या नकद”।
बाबू
ने आपत्ति को एक तरफ रख दिया और बिस्बा को हजार रूपर नकद थमाते हुए बोला-“ साहब,
बिल्कुल सही कहते हैं- ‘ जब पैसे आ गए तो आपत्ति किस बात की ?’
वह बाबू भी बड़ा ही होनहार था।
मैं
चमन सिंह की ओर ताकने लगा। वे सारी बात पहले से ही जानते थे मगर कुछ बीमारी की
उलझन की वजह से पैंसठिया गए थे।
नवल
सिंह ने अपना किस्सा भी सुनाया। देखो, बीमारी के बिल को जमा कराने जब मैं गया तो कलर्क
से पूछा-“ अब कब आऊँ?”
उसने
कहा-“ एक हफ्ते में आ जाइए”।
एक
हफ्ते बाद गया तो उसने कहा- “आपके बिल में कुछ समस्या है साहब !”
मैंने
कहा-“ देख बाबू, मुझे समस्या नहीं पूछनी। इस समस्या से तो तू निपट। मुझे सिर्फ ये बता कि
पैसे कितने लेगा? मैं तीन बार आने में किराए के सैंकड़ों रुपए लगाने और
धूल खाने में विश्वास नहीं रखता। साफ-साफ बता- पैसे कितने लेगा ?”
उसने
कहा- “ दो सौ!”
मैंने
उसे दो सौ दे दिए औए कहा – “किराये में दो सौ लगाने की बजाय तुझे देने में
मुझे कोई आपत्ति नहीं है।“ अब बता – “चैक लेने कब आऊँ?”
बाबू
ने कहा- “परसों ले जाइए साहब”।
चमन
सिंह सारी बात समझ गए। वे भी तो सरकारी मुलाजिम रहे थे। सबकी परेशानी वे भी बखूबी समझते
थे।
मुझे
मद्रास आना था। मैंने उनसे विदा ली और चला आया। मेरे कानों में नवल सिंह के वे वाक्य गूंज रहे थे जो कभी साला साहब यानी जीजा जी के बीडीओ ने कहे थे- “पैसे आ गए तो आपत्ति किस बात की??”
- अजय मलिक (सी)
No comments:
Post a Comment