न जाने ये कैसी मँझधार,
न डूबे, ना पहुँचे उस पार,
इक इक बूँद तरस गयी धार
क्यूँ राही ठहर गए थक हार !
जिधर देखो बस खरपतवार
महकते फूल बने हैं खार
नाड़ पर रख देते तलवार
कि दुश्मनी खूब निभाते यार !
किसी से नहीं कोई तकरार
रात दिन फिर भी होते वार
बदलते रोज-रोज रंगरेज़
किसी को किसकी है दरकार!
राह चलने तक चलती प्रीत
बेसुरे लगते हैं सब गीत
कहाँ से आयी ऐसी रीत
कोई तो पल भर करे विचार!
-अजय मलिक (c)
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