अब ना जाने
क्योंकर यादें
चुपके चुपके
खो जाती हैं ।
सूने पथ को
हरदम तकतीं
खोई अँखियाँ
रो जाती हैं ।
लोग लफ़ंगे
ज़ालिम जग है
भूलें अक्सर
हो जाती हैं ।
सुनते सुनते
झूठे वादे
बस तकलीफ़ें
हो जाती हैं।
सबको अपना
मान मान कर
बाकी बतियाँ
सो जाती हैं ।
है उन्हें पता
सब कच्चा चिट्ठा
बस अरज़ी ही
खो जाती हैं ।
कौन सुनेगा
खरी खरी, जब
बातें नकली
हो जाती हैं ।
-अजय मलिक (c)
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