कल
रात टीवी पर एक छोटा सा समाचार था- शिक्षाविद एवं प्रशासनिक अधिकारी श्री अनिल
बोरडिया नहीं रहे। श्रद्धांजलि स्वरूप यह पोस्ट मैं तभी डालना चाहता था किन्तु 103
बुखार में बैठना भी संभव नहीं हो पाया। कई लोग यह पूछ सकते हैं कि अनिल
बोरडिया जी से मेरा या हिंदी सबके लिए का क्या संबंध हो सकता है?
सच तो ये है कि स्वयं बोरडिया जी को भी 25 वर्ष पुरानी वह घटना याद न रही होगी।
वर्ष 1987-88 में "हम पाँच" नई दिल्ली स्थित शास्त्री भवन परिसर में एक पेड़ के नीचे
आमरण अनशन पर बैठ गए थे। हमारे पास न कोई पंडाल था,
न ही कोई प्रायोजक। हमारे पास वित्तीय साधन भी कोई नहीं था। हम थोड़े से सनकी
किस्म के प्राणी हुआ करते थे। जाड़े की रात ऊपर से बारिश। हम कुकड़ रहे थे।
हम
पांचों में बोलने का काम श्यामरुद्र पाठक जी किया करते थे। श्याम जी की सबसे बड़ी
विशेषता यह थी कि वे हिंदी, अँग्रेजी और संस्कृत में पूरे अधिकार के साथ
धारा-प्रवाह लगातार बोलते रह सकते थे। वे अपनी बात बिल्कुल एक टेपरिकार्डर की तरह
बिना एक शब्द इधर-उधर किए बोलते थे। मैं बिलकुल चुप पड़ा रहने वाला प्राणी था। डॉ
मुनीश्वर गुप्त दूसरे प्रवक्ता थे। पुष्पेंद्र चौहान जी अलग ढंग से सोचते थे और
विनोद कुमार गौतम जी मेरी तरह चुप रहते थे। आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा से
अँग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कराने का मुद्दा था। श्यामरुद्र पाठक एमएस फिजिक्स की
अंतिम वर्ष की परीक्षा के सभी प्रश्न-पत्र हिंदी में लिखकर अपना परीक्षाफल रुकवाने
का आनंद ले चुके थे। विनोद कुमार गौतम को दो बार हिंदी में लिखने के कारण एएमआईई
की परीक्षा में शून्य अंक पाने का गौरव हासिल हो चुका था और मैं एम एड का
परीक्षाफल रुकवाने का श्रेय शिरोधार्य किए बैठा था। डॉ मुनीश्वर गुप्त को एमडी की
डिग्री हिंदी में लिखने पर भी मिल चुकी थी और पुष्पेंद्र चौहान दिल्ली बार
काउंसिल में अँग्रेजी का पर्चा बिना लिखे पंजीकरण पा चुके थे।
एक
प्रेस फोटोग्राफर चाहते थे कि जिंदाबाद-मुर्दाबाद की मुद्रा में एक फोटो हो जाए
मगर हम पांचों सनकी इसपर सहमत नहीं थे। हमें ये भी पता नहीं था कि वास्तव में
हमारे ज्ञापन या अभ्यावेदन कोई पढ़ भी रहा या नहीं। सतर्कता विभाग का एक अधिकारी
जेएनयू का छात्र बनकर हमारे खेमे में घुसपैठ करना चाहता था परंतु हम पाँच,
छह बनने को तैयार नहीं थे। हमारे अनशन का दूसरा या तीसरा दिन था। शायद रविवार की
सुबह दस या ग्यारह बजे का समय था। हम लोग एक पुरानी दरी पर स्वयं को समेटे बैठे
थे। तभी हाथ में ब्रीफकेस थामे एक लंबे से भारी भरकम व्यक्तित्व ने आकर पूछा- बच्चो बात क्या है,
आप लोग क्या चाहते हैं?
हमारी नीति यह थी कि जो भी बात करना चाहता है उसे हमारे साथ,
हमारे पास बैठकर बात करनी होगी। श्याम जी ने उस विशाल व्यक्तित्व से आग्रह किया कि
कृपया बैठ जाइए। वे बैठ गए। श्याम जी अपने अंदाज़ में शुरू हो गए। पाँच मिनट,
दस मिनट फिर पंद्रह मिनट गुजर गए, श्याम जी विस्तार से सप्रमाण अपनी बात बताते रहे।
तब पूछने वाले सज्जन ने प्रस्ताव रखते हुए कहा – क्यों न हम अंदर चलकर बात करें?
तब हम लोगों ने पूछा - श्रीमान आपका परिचय... ? उन्होंने अपना नाम बताया - मैं अनिल बोरडिया हूँ,
शिक्षा सचिव ...आप लोग मेरे ही खिलाफ तो अनशन कर रहे हैं।
हम पांचों एक दूसरे का
चेहरा ताकने लगे। फिर उनके केबिन में हम लोग उनके साथ जा बैठे। उन्हें एनसीईआरटी
और आईआईटी दिल्ली के सर्वेक्षण का ब्यौरा दिया तो वे सारी बात समझ गए। उन्होंने
हमें भरोसा दिलाया कि वे भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वालों को न्याय दिलाकर
रहेंगे। आईआईटी के निदेशक मण्डल को इसमें परेशानी थी। बैठक पर बैठक होती रहीं। बोरडिया
साहब ने कहा - "जितना समय लगाना है लगा लीजिए पर भारतीय भाषाओं को आईआईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा में जगह देनी ही होगी।" मैं आज तक नहीं जान पाया कि हमारे अनशन स्थल पर
बैठक के बाद गद्दे कहाँ से आएँ, पंडाल कहाँ से लगा?
शास्त्री भवन प्रांगण में
दफा 144 लगी रहती थी मगर हम लोगों का न कोई विरोध हुआ,
न कोई गिरफ़्तारी हुई। पांचवे दिन हम लोग बहुत चल-फिरने लायक नहीं रह गए थे,
पेट की अतड़िया ऐंठने लगी थीं। एक बार फिर बैठक शुरू हुई। अनिल बोर्डिया जी ने कहा - " इन पांचों
के सामने ही सारी बात होनी चाहिए।" हम लोग कुर्सियों पर बैठने में असहज महसूस कर
रहे थे। फिर पैरों को पेट से चिपका कर बैठ गए। शाम को जब जब मांगें मान लिए जाने
का पत्र टाइप हुआ तो वह अँग्रेजी में था। अनिल बोर्दिया जी ने कहा- कम से कम ये पत्र तो
हिंदी में होना चाहिए था! उनके एक मातहत ने खींसे निपोरते हुआ कहा- सर,
हिंदी में टाइप करने वाला आज नहीं आया है। बहुत सारी बातें हैं जिनका जिक्र कुछ
लोगों को अच्छा नहीं भी लग सकता है, मगर अगर आईआईटी जेईई में भारतीय भाषाएँ माध्यम
बनीं तो उसका बहुत कुछ श्रेय अनिल बोरडिया जी को भी जाता है।
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साल से अधिक बीत गए राजभाषा विभाग में चाकरी करते हुए मगर यहाँ स्वर्गीय अनिल
बोरडिया जी जैसा हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के प्रति समर्पित व्यक्ति गाहे-बगाहे ही
मुझे मिला होगा। यहाँ भांति-भांति के व्यक्तित्व मुझे मिले मगर अधिकांश को हिंदी से
अधिक हिंदी की नौकरी से लगाव के लिए जुगाड़ लगाते हुए पाया। उन दिनों दैनिक हिंदुस्तान
में लालमणि मिश्रा जी हमारे आंदोलन की कवरेज कराया करते थे। सेवा निवृत होने पर अनिल
बोरडिया जी मिश्रा जी को अपनी किताब देने आए थे। अनिल जी के हिंदी के सरकारी महीने
में परलोकवासी हो जाने से हिंदी के एक सच्चे समर्थक को खो देने का एहसास हो रहा है।
मैं उस आमरण अनशन के बाद कभी भी उनसे मिलने का सौभाग्य नहीं पा सका मगर दिल से सोचने
वाला यह अनाड़ी उन्हें कभी नहीं भुला पाया। बस उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना
के साथ समाप्त करता हूँ।
- अजय मलिक (c)