हिंदी
प्रेमियॊं के लिए दॊ अच्छी खबरें
(याहू हिन्दी तथा फेसबुक से साभार )
वाशिंगटन। अमेरिका में बड़ी संख्या में रह रहे गैर अंग्रेजी भाषी प्रवासी समुदायों में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी उर्दू की स्वीकार्यता से चकित अमेरिकी समाज भी इसे अपनाने को तैयार हो रहा है।
दुनिया भर से विभिन्न भाषा भाषी समुदायों के लाखों लोगों के अमेरिका में आ बसने के साथ ही इन वर्गो में सांस्कृतिक चुनौतियां सामने आ रही हैं जिनमें भाषा की समस्या प्रमुख है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एशियाई भाषा एवं साहित्य विभाग के प्रोफेसर डा. एमजे वारसी देश में हो रही इस दिलचस्प क्रांति का बयान करते हुए बताते है कि गैर अंग्रेजी भाषी पृष्ठभूमि के अफ्रीकी, एशियाई लैटिन अमेरिकी आदि देशों के लोगों के परिवारों के बच्चे स्कूलों में शिक्षा पाकर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगते हैं लेकिन मां बाप की अंग्रेजी समझ तो लेते हैं लेकिन बोलने में दिक्कत आती है। इसीलिए वे जवाब हिन्दी या उर्दू में देते हैं। डा. वारसी के अनुसार ऐसे माता-पिता हिंदी या उर्दू बहुत आसानी से सीख लेते हैं। बच्चों को भी इस भाषा में बात करने में अच्छा लगता है। उनके अनुसार 11 सितंबर के हमले के बाद अमेरिका में एक सकारात्मक परिवर्तन भी आया है। यहां के समाज में दूसरे समुदायों की संस्कृतियों एवं धर्म
को जानने की इच्छा जागृत हुई है। ऐसे में इस्लाम को समझने जानने का माध्यम उर्दू बनी। अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश और अफगानिस्तान के लाखों विद्यार्थियों का जमावड़ा है, इन सबकी संपर्क भाषा हिंदी उर्दू ही है। इन विश्व विद्यालयों में दक्षिण एशिया छात्र संघ गठित किए गए हैं जो प्रति सेमेस्टर सांस्कृतिक सप्ताह का आयोजन करते हैं। डा. वारसी ने बताया कि दक्षिण एशियाई छात्र संघ विश्वविद्यालय परिसरों में ईद, होली, दीवाली, दशहरा आदि सभी त्यौहार मनाते हैं तथा नृत्य एवं संगीत समारोह, कवि सम्मेलन और मुशायरों का भी आयोजन करते हैं। उन्होंने बताया कि मुस्लिम समाज में उर्दू के प्रचलन को सकारात्मक ढंग से लिया गया है। दक्षिण एशिया की एक 51 वर्षीय महिला आबिदा सादिक ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि इससे उनके बच्चों को अपनी जड़ों को पहचानने में मदद मिलेगी। बात यही तक सीमित नहीं है। अमेरिकी समाज भी हिंदी-उर्दू के चलन को अपनाने के लिए तैयार दिखता है। हाल ही में लखनऊ से उर्दू की पढ़ाई कर लौटे वाशिंगटन विश्वविद्यालय के छात्र स्टीकन विल्सन का कहना है कि भाषा सिर्फ संचार का माध्यम ही नहीं बल्कि समुदाय के सामूहिक इतिहास एवं विरासत का आइना है।
को जानने की इच्छा जागृत हुई है। ऐसे में इस्लाम को समझने जानने का माध्यम उर्दू बनी। अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश और अफगानिस्तान के लाखों विद्यार्थियों का जमावड़ा है, इन सबकी संपर्क भाषा हिंदी उर्दू ही है। इन विश्व विद्यालयों में दक्षिण एशिया छात्र संघ गठित किए गए हैं जो प्रति सेमेस्टर सांस्कृतिक सप्ताह का आयोजन करते हैं। डा. वारसी ने बताया कि दक्षिण एशियाई छात्र संघ विश्वविद्यालय परिसरों में ईद, होली, दीवाली, दशहरा आदि सभी त्यौहार मनाते हैं तथा नृत्य एवं संगीत समारोह, कवि सम्मेलन और मुशायरों का भी आयोजन करते हैं। उन्होंने बताया कि मुस्लिम समाज में उर्दू के प्रचलन को सकारात्मक ढंग से लिया गया है। दक्षिण एशिया की एक 51 वर्षीय महिला आबिदा सादिक ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि इससे उनके बच्चों को अपनी जड़ों को पहचानने में मदद मिलेगी। बात यही तक सीमित नहीं है। अमेरिकी समाज भी हिंदी-उर्दू के चलन को अपनाने के लिए तैयार दिखता है। हाल ही में लखनऊ से उर्दू की पढ़ाई कर लौटे वाशिंगटन विश्वविद्यालय के छात्र स्टीकन विल्सन का कहना है कि भाषा सिर्फ संचार का माध्यम ही नहीं बल्कि समुदाय के सामूहिक इतिहास एवं विरासत का आइना है।
अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों को हुआ हिंदी से प्रेम
नई दिल्ली। अंग्रेजी भाषा के बढ़ते वर्चस्व के बीच हिंदी के दीवानों के लिए एक अच्छी खबर है। पेंग्विन के बाद हापर कालिंस ने हिंदी साहित्य के प्रकाशन का रुख किया है। यह कदम निश्चित रूप से विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी के रुतबे को बढ़ाता है।
2005 में पेंग्विन पब्लिकेशन ने जन्नत और अन्य कहानियां तथा शकुंतला के साथ हिंदी के क्षेत्र में कदम रखा था। तब से अब तक यह प्रकाशन कई किताबों को हिंदी में प्रकाशित कर चुका है। ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक रवींद्र कालिया ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के हिंदी के बाजार में आने से लेखकों का शोषण कम होगा। लेखकों को ये प्रकाशक जितनी रकम दे रहे हैं, उतनी भारत के प्रकाशक नहीं दे रहे थे।
उन्होंने कहा कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारतीय प्रकाशकों को चुनौती मिलने से प्रकाशन उद्योग की तस्वीर बदलेगी। इन प्रकाशकों का प्रोडक्शन भी बेहतर होता है। ये प्रकाशक यदि हिंदी के उत्तम साहित्य को अंग्रेजी में प्रकाशित करें तो बेहतर होगा।
वाणी प्रकाशन के प्रदीप सैनी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के आने से बड़े प्रकाशकों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ज्यादातर अनुवादित कृतियां पेश करते हैं, जबकि हम बड़े साहित्यकारों की मौलिक रचनाओं को बरसों से प्रकाशित करते आ रहे हैं।
राजकमल प्रकाशन के सतीश कुमार ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के आने से बाजार में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। राजकमल पिछले साठ साल से इस क्षेत्र में हैं। हालांकि छोटे प्रकाशकों पर अवश्य इसका प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि हिंदी प्रकाशन की तासीर एकदम अलग है, जिसे समझने में अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों को तकलीफ होगी। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक गोदाम में रखने के लिए किताबें नहीं छापते।
हापर कालिन्स की कतिका ने कहा कि कई ऐसे लेखक हैं, जिन्हें सामने आना चाहिए लेकिन वे सामने नहीं आ पाते। हापर कालिन्स हिंदी के बाजार में आ रहा है, ताकि ऐसे लेखक भी सामने आएं। वैसे भी हिंदी का बाजार तेजी से आगे बढ़ रहा है।
उन्होंने कहा कि हमारा विशेष जोर फिक्शन और नान फिक्शन पर ही होगा। राजनीति जैसे कई अलहदा पहलुओं पर भी हम ध्यान देंगे। हम चाहेंगे की हिंदी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और इसके लिए हम लेखकों को अपने साथ जोड़ेंगे। दाम के अंतर पर उन्होंने कहा कि हिंदी बाजार के हिसाब से दाम जरूर कम करने होंगे, लेकिन इसके लिए हम क्वालिटी से समझौता नहीं करेंगे।
(याहू हिन्दी तथा फेसबुक से साभार )
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