( अज्ञेय जी की इस कविता को न जाने कितने बरसों से ढूंढ रहा था मैं..."पूर्वा" में पढ़ी इस कविता के कुछ अंश मुझे सदा याद रहे मगर पूरी कविता याद करने-गुनगुनाने की चाह हमेशा बनी रही। आज अचानक मुझे यह कविता दास्तां-ए-समीर नामक ब्लॉग पर मिल गई। समीर जी को धन्यवाद)
पूछ लूँ मैं नाम तेरा,
मिलन रजनी हो चुकी, विच्छेद का अब है सवेरा!
जा रहा हूँ और कितनी देर अब विश्राम होगा,
तू सदय है किन्तु तुझको और भी तो काम होगा!
प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ
क्यों?
समझ ले स्वीकार कर ले, यह कृतज्ञ प्रणाम मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
और होगा मूर्ख जिसने चिर-मिलन की आस पाली-
'पा चुका अपना चुका' - है कौन ऐसा भाग्यशाली ?
इस तड़ित को बाँध लेना, दैव से मैंने न माँगा-
मूर्ख उतना हूँ नही, इतना नहीं है भाग्य
मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
श्वाँस की हैं दो क्रियाएँ - खींचना फिर छोड़ देना,
कब भला संभव हमे इस अनुक्रम को तोड़ देना?
श्वाँस की उस संधि सा है इस जगत में प्यार का पल,
रुक सकेगा कौन कब तक बीच पथ में डाल डेरा?
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
घूमते हैं गगन में जो दीखते हैं स्वच्छंद तारे,
एक आँचल में पड़े भी अलग रहते हैं बिचारे-
भूल में पल भर भले छू जाएँ उनकी मेखलाएँ-
दास मैं भी हूँ नियति का क्या भला विश्वास मेरा!
पूछ लूँ मै नाम तेरा!
प्रेम को चिर एक्य कोई मूढ़ होगा तो कहेगा,
विरह की पीड़ा न हो तो प्रेम क्या जीता रहेगा?
जो सदा बांधे रहे वह एक कारावास होगा-
घर वही है जो थके का रैन भर का हो बसेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
प्रकृत भी है अनुभूति; वह रस-दायिनी
निष्पाप भी है,
मार्ग उसका रोकना ही पाप भी है, शाप भी है;
मिलन हो, मुख चूम लें; आई विदा, ले राह अपनी-
मैं न पूछूं, तुम न जानो, क्या रहा अंजाम मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
रात बीती, यद्यपि उसमें संग भी था, रंग भी था,
अलग अंगों में हमारे, स्फूर्त एक अनंग भी
था;
तीन की उस एकता में प्रलय ने तांडव किया था-
सृष्टि-भर को एक क्षण भर बाहुओं का बाँध घेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
सोच मत, 'यह प्रश्न क्यों, जब अलग ही हैं मार्ग अपने?'
सच नहीं होते,
इसी से भूलता है कौन सपने?
मोह हमको है नहीं पर द्वार आशा का खुला है-
क्या पता फिर सामना हो जाए तेरा और मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
कौन हम-तुम?
दुःख और सुख होते रहे, होते रहेंगे;
जान कर परिचय परस्पर हम किसे जाकर कहेंगे?
पूछता हूँ क्योंकि आगे जानता हूँ क्या बदा है-
प्रेम जग का,
और केवल नाम तेरा, नाम मेरा!
पूछ लूँ मैं नाम तेरा!
मिलन रजनी हो चुकी, विच्छेद का अब है सवेरा.....!!
सचिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय'
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