अंधेरा ... इस घनघोर अंधेरे में खड़ा हुआ मैं, उजाले में चलते-फिरते, गुलाटियाँ लगाते, गिलोरियाँ खेलते, गोटियाँ बिठाते कई तरह के चेहरों को, बड़ी आसानी से देख पाता हूँ। मुझे अंधेरे में गुम हो गया मान लिया गया है। मैं शायद ब्रह्मांड का हिस्सा बन गया हूँ... ब्लैक होल में समाकर सब ऊर्जाएँ सबसे बड़ी ऊर्जा का हिस्सा बन जाती हैं। अंधेरा जो सबसे बड़ी ऊर्जा है। अंधेरे से सब उजाले में जाना चाहते हैं ... उजाले से कोई भी अंधेरे में नहीं आना चाहता, मगर आना तो पड़ता है। ऐसा कोई नहीं जो अंधेरे में समाने से बच सके। घर का अंधेरा सब मिटाना चाहते हैं; बाकी किसी जगह बिखरे अंधेरे को कोई देखना तक नहीं चाहता। इस अंधेरे में छुपे रहस्यों को क्यों कोई जानना-समझना-छूना-पहचानना नहीं चाहता।
अजी क्या कर लोगे... करने वाले ने लताड़ा तो जवाब बन गया –अजी कर लो जो भी मार-पीट करनी है हमारे साथ, बस हमें तो घर बैठे खाने का कोई जुगाड़ करवा दो...यहाँ भी कुछ खाना अपने साथ खिलवा दो...वहाँ भी अपनी कुछ झूठन हमें दिलवा दो...जहाँ आप जाओ हमें भी ले चलो, हम तो आपके साथ हैं... बस दरोगा बनवा दो... दरोगा भी घर में बनवा दो... घर में भी कोई पी टी - परेड का चक्कर ना हो जी भाई साहब जी । बस आप कुछ ऐसा ही करवा दो, जिसमें ऐश करने के सिवाय और कुछ न करना पड़े... ऐश भी ऐसी हो जिसमें हमें हिलना-डुलना तक न पड़े जी।
उजाला - “करवा देंगे...पर आगे क्या होगा, कह नहीं सकते।“
अजी जो होगा देखा जाएगा। बस आप किसी भी तरह ऐसा करवा दो, वैसा करवा दो... ऐसा-वैसा करवा दो। या फिर वैसा-ऐसा ही करवा दो...कुछ भी करवा दो, जो न करवा सको वो भी करवा दो...
उजाला – “आप बस थोड़ी देर अंधेरे में खड़े होकर दिखाओ, फिर मेरे करीब आओ।“
ना जी, भाई साहब जी आप तो मरवा दोगे जी...वहाँ अंधेरे में...ना जी ना भाई साहब जी, ऐसा मत कहो जी, मैं तो अभी-अभी आया हूँ जी, पता नहीं कहाँ से जी... पर अंधेरे में ना भेजो जी... मुश्किल से आपके पास उजाले में आया हूँ जी, चाहे अपनी लकुटी कमरिया ले लो जी...बस मुझे तो उजाले में रहने दो जी...चाहे ज़ोर से पटक दो जी...
उजाला – “ क्या तुम्हें उजाला दिखाई देता है?”
ये कैसा सवाल है जी भाई साहब जी; मुझे तो उजाला ही उजाला दिखाई दे रहा है जी…अंधेरा थोड़े ही दिखाई देता है जी...
उजाला – “ आप उजाले में उजाले देख रहे हैं...अंधेर से डर रहे हैं मगर मैं उजाला होकर भी अपने आपको नहीं देख पा रहा हूँ । मैं तो चारों ओर से अंधेरे से घिरा हूँ और अंधेरे से ही दिखाई देता हूँ। आप मुझे उजाले से देख पा रहे हैं और मेरे चारों तरफ घिरे और लगातार फ़ेल रहे अंधेरे को नहीं देख पा रहे हैं... आप विलक्षण हैं। मैं तो अस्थाई ऊर्जा हूँ और मेरा भी स्थायित्व अंधेरे में ही निहित है। आप भी अंधेरे को नज़र अंदाज मत कीजिए।“
अजी भाई साहब जी, तभी तो कह रहा हूँ कि आप तो मरवा दोगे... मुझे तो अंधेरे के नाम से भी डर लगता है। मैं तो उजाला ही उजाला चाहता हूँ जी।
उजाला – “बिना अंधेरे के उजाला आपको नहीं मिलेगा। आप उजाले का हिस्सा नहीं है, उजाला स्वयं जब अंधेरे पर निर्भर है तो आप उजाले पर कैसे सब कुछ छोड़ सकते हैं? फिल्म भी उजली अंधेरे में ही दिखती है।”
अजी आप तो मरवाकर ही मानेंगे। मुझे तो आप उजाले में चाहे टी वी दिखवा दो जी... बस अंधेरे का नाम मत लो। फिल्म बनाते तो उजाले में हैं, तो मुझे तो बस फ़िल्मों में ही भिजवा दो...मुझे सिनेमा नहीं चाहिए। मुझे फिल्म देखनी थोड़े ही है...बस कुछ करवा दो जी भाई साहब जी।
उजाला – “ अब रात होने जा रही है, सूर्यास्त हो चुका है... मुझे भी अब यहाँ रहने की इजाजत नहीं है, यह अंधेरे की जागीर है... हर ओर अंधेरे का ही साम्राज्य है। जहाँ भी तुम उजाले से आकर्षित हो रहे है, वह अंधेरे का फैलाया हुआ जाल है, मृग मारीचिका है। वह सर्वव्यापी है, सार्वभौमिक है। मुझे अब चलना है, तुम स्वयं को संभालो ।”
अजी भाई साहब जी, सुनो तो जी ....
-अजय मलिक
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