मन की उदासी या उदास मन, आवारा फिल्म का वह संवाद “दिल और कानून... कानून और दिल; कानून किसी दिल को नहीं मानता... और दिल भी किसी कानून को नहीं मानता...” स्वर्गीय डॉ0 के पी अग्रवाल की बहुत याद आती है... विशेषकर सितंबर का महीना शुरू होने पर... ऐसे गुरु, शुभचिंतक और जिगरी दोस्त के बिना उदास मन की उदासी और अधिक बढ़ जाती है।
यादें... न कहीं आरंभ, न कोई अंत... अनंत हैं ये। वर्ष 1988, दिसंबर का महीना... कड़ाके की सर्दी... तीन दिन का उपवास... लोग हँसते थे मगर कहता कोई कुछ नहीं था। लोग मुझे कोई बड़ा पत्रकार वगैरहा समझते थे। मेरे बारे में लोगों की कल्पनाएँ मेरी कल्पना से हमेशा परे ही रहीं। लोग मुझे समझते थे और मैं न लोगों को समझ पाता था, न उनकी समझ को और न स्वयं को... आज तक वही स्थिति है। ... दिसंबर की उस कड़ाके की सर्दी में प्रो0 माथुर साहब ने किसी से बुलवाया था मुझे। एन सी ई आर टी के लॉन के दो चक्कर लगाने के बाद उन्होंने कहा था- “... अपनी बात के लिए तीन दिन का उपवास करना अपने आप में बड़ी बात है। तुम्हारी बात सही है या गलत; तुम्हारा तरीका सही है या गलत... इन बातों में मैं नहीं पड़ता। मैं सिर्फ इतना समझता हूँ कि अपनी गलत बात के लिए भी अगर कोई तीन दिन से उपवास पर है तो उस गलती के प्रायश्चित के लिए भी यह पर्याप्त है।" आज मुझे भी खूब हंसी आती है उपवास की उस कहानी को याद कर... मेरे वो दोस्त, वो परिचित जाने कहाँ होंगे... प्रो0 माथुर साहब का भी मुझे अब कोई पता नहीं है। मगर उनकी शिक्षा अनमोल थी अविस्मरणीय... वे सांख्यिकी पढ़ाते थे और उनके व्याख्यान में समंदर से भी अधिक गहराई होती थी, बहुत कम लोग समझ पाते थे... मगर यदि एक भी विद्यार्थी समझ रहा होता तो वे बाकी सब को भूल जाते थे। मुझे सांख्यिकी की समझ उनसे मिली और पूरे अंक भी... शिक्षक दिवस पर अपने गुरुजन प्रो0 माथुर को प्रणाम।
यादें... डॉ0 के पी अग्रवाल के एक सहपाठी को पिछले दिनों एक बड़े संस्थान के कुलपति के रूप में पाया... परिस्थितियों ने उन्हें भी मेरा गुरु बनाया था... गुरु दक्षिणा में उन्होंने एकलव्य की तरह मेरा अंगूठा नहीं माँगा; बिन माँगे ही सब कुछ ले लिया था। बहुत भारी पड़ी थी वह गुरु दक्षिणा मेरे लिए... उनका कहना था- “कोई तुम पर पंद्रह-बीस हजार रूपए हर महीने खर्च कर रहा है...” सच्चाई यह थी कि अपने एक मित्र से प्रति माह दो सौ रुपए उधार लेकर किसी तरह मैं अपनी पढ़ाई कर रहा था। हिंदी और अंग्रेज़ी के इस गोरख धंधे ने मुझे क्या-क्या दिन नहीं दिखाए। मगर गुरु तो गुरु हैं, शिष्य को उनसे किसी न किसी रूप में कुछ तो मिलता ही है। शिक्षा के भी अनेक रूप हैं, वह केवल किताबी नहीं हो सकती। ... और उसी गुरुता के लिए उन्हें भी प्रणाम।
यादें... ढेर सारी यादें... डॉ बी फालचंद्रा आजकल मैसूर में रहते हैं। वे भी मेरे गुरु-दोस्त बने। उनका हंसमुख स्वभाव, बेबाक अंदाज...वे हँसते हुए कहते- “इनमें क्या है, क्या देखते हो तुम, क्या ढूँढते हो तुम... कहीं कुछ नहीं है, कुछ नहीं मिलेगा... सब खाली है...खोखला है... माया है... इसी माया के जरिए लोग बेवकूफ बनते और बनाए जाते हैं। तुम कुछ नहीं भूलोगे मगर भूल जाने में ही भलाई है।" उनकी शादी में गया था मैं... बेंगलूर में 1989 में...उसके बाद 1992 और फिर सिर्फ एक मुलाक़ात अधूरी सी। प्रोफेसर साहब आपको मेरा प्रणाम।
यादें....बेहिसाब यादें....
-अजय मलिक
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