Sep 11, 2010

तो मैं तर जाऊं ...

(इस लेख में व्यक्त विचार एक भारतीय नागरिक के नाते पूर्णत: मेरे व्यक्तिगत विचार हैं।इनका किसी सरकारी विभाग आदि से कोई संबंध नहीं है।)
जब एन सी ई आर टी में पढ़ रहा था तब भी व्यवहार कुशल नहीं था। अपने अध्यापकों का स्नेह तब भी पाया था। वे मेरी अव्यावहारिकता में कुछ अलग देखते थे जो जबरदस्त पढ़ाकुओं में नहीं होता था। मैंने मूर्खताएं भी कुछ कम नहीं की थीं। ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि वह मेरा बिना लाग-लपेट वाला स्वाभाविक व्यवहार था। शैक्षिक एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन डिप्लोमा पाठ्यक्रम की परीक्षा में हिंदी में लिखने वाला और विशेष योग्यता के साथ पास होने वाला शायद मैं पहला लड़का था। प्रोफ़ेसर सक्सेना जो राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा शुरू कराने वालों में से एक थे, हमारे विभागाध्यक्ष थे। डॉ बी० फालाचंद्रा हमारे कोर्स कोर्डिनेटर थे। कुल मिलाकर शैक्षिक मनोविज्ञान एवं परामर्श विभाग के लोग अपने क्षेत्र के जाने-माने विद्वान थे।

मैं हिंदी भाषा के प्रति पागल था मगर राजभाषा के रूप में हिंदी की कोई समझ नहीं थी। हिंदी शिक्षण योजना क्या है, राजभाषा विभाग क्या है? -इस सब की मुझे रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी। मैं एक प्रशिक्षित परामर्शदाता बनकर हिंदी के लिए हिंदी शिक्षण योजना में चला आया।

आज बाईस बरस बाद यह सोचने का कोई अर्थ नहीं है कि मेरा निर्णय सही था अथवा गलत। मद्रास में पहली तैनाती हुई। दिल्ली से बहुत दूर जाने की सनक में मैं स्वेच्छा से लक्षद्वीप चला गया जहां कोई भी जाना नहीं चाहता था। वहाँ आत्मावलोकन का अच्छा अवसर मिला। वहीँ नौकरी के कायदे-क़ानून सीखने का अवसर भी मिला। वर्तमान मुख्य सूचना आयुक्त श्री वज़ाहत हबीबुल्ला साहेब तब लक्षद्वीप के प्रशासक थे और वे ही मेरे पहले सर्वकार्यभारी अधिकारी थे। उनकी विनम्रता और सादगी आज भी याद आती है। लक्षद्वीप के कवरत्ती द्वीप से तिरुचिरापल्ली और वहाँ से मुंबई। मुंबई में सब कुछ मिला, माँ मुंबा का आशीर्वाद भी मिला, दोस्त मिले, फ़िल्मकार-लेखक-कवि-सहयोगी-विरोधी-प्रतियोगी... इनमें बहुत सारे अच्छे थे और कुछ ऐसे भी थे जो बेमेल थे।
मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं चेन्नई मेँ आकर बसूँगा। सोचा तो और भी बहुत कुछ नहीं था जो हुआ। 1997 में मैं मुंबई में बसना चाहता था। बोरीवली पश्चिम में आई सी कालोनी में एक मित्र की मार्फ़त एक फ्लैट की बात लगभग तय हो चुकी थी। ऋण मिलने में भी कोई बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं थी। पत्नी और छ: माह का बेटा मेरे साथ थे। मगर तभी कुछ लोगों को हिंदी के प्रति मेरी सनक से उनकी अँग्रेज़ी मिठाई पर चढ़ा हिंदी का मुलम्मा साफ होता नज़र आया। अलीबाग में हिंदी के नाम पर कुछ अँग्रेज़ी बेचने वालों की महफ़िल जमी।वहाँ से लौटकर राजभाषा हिंदी के एक बहुत बड़े रावण ने मेरे कमरे में लगी "सत्यमेव जयते" की प्लेट की ओर इशारा करते हुए पूरे अट्टहास के साथ कहा- "सत्यमेव जयते नहीं, सत्यमेव जायते..."
हालांकि वे सज्जन अब इस दुनियाँ में नहीं हैं मगर आज भी उस आवाज को मैं महसूस करता हूँ और जब भी ऐसा होता है मैं इसे झुठलाने की कोशिश करता हूँ। झूठ में एकता की बड़ी ताकत होती है। सच को सहारा कम ही मिलता है। सच सब्र के सहारे संभलता है। हिन्दी के प्रति समर्पण और अँग्रेजी के लड्डुओं से परहेज की वजह से वर्ष 1997 में मेरे हालात ऐसे बना दिए गए कि मुझे पत्नी और बेटे को रातों रात त्रिवेंद्रम भेजना पड़ा। ऐसे हालात 1987 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एम एड की परीक्षा हिंदी में लिखने के दौरान भी मैं देख चुका था। पर तब मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी।
मुझे रातों रात मुंबई छोड़ने को विवश होना पड़ा। मेरे क्वाटर में तीन दिन के अंदर इतनी दीमक लगी कि भंडारा से लौटने पर जब मैं जमीन पर पड़ा बिस्तर फैलाकर लेता तो कमीज में छेद हो गए। दिल्ली कैट ...फिर दिल्ली हाई कोर्ट और फिर माननीय सुप्रीम कोर्ट… मैं हिंदी की लड़ाई हार गया था मगर अँग्रेज़ी की बटालियनें अपनी जीत का जश्न मनाने की स्थिति में नहीं थीं। मगर मैंने पाया कि हिंदी के लिए अकेले चलने वाले को देखकर अँग्रेज़ी की बड़ी-बड़ी बटालियनें ज्यादा परेशान हो जाती हैं।
हिन्दी की नौकरी करते हुए बाईस बरस में मुझे 15 बार स्थानांतरण/तैनाती आदेश मिले हैं। मुझे हर बार अंग्रेज़ी ने हराने, थकाने यहाँ तक कि मार देने की कोशिश की है मगर हिन्दी की सनक में कुछ तो ऐसा जरूर है जो अंतिम साँस से पहले फिर से जीने का संबल देता है या फिर कोई अनजानी शक्ति… ईश्वर… या मेरी नियति ही कुछ मुझसे कराना चाहता रहा है।

मैंने हर जगह बहुत गहराई तक इस बात को जानने-समझने की कोशिश की कि सभी तरह से सशक्त और संसार भर में फलती-फूलती हिंदी आखिर इतनी कमजोर क्यों मानी जाती है ? लोग सरकार की राजभाषा नीति पर अंगुली उठाते हैं पर मेरा मानना है कि हमारी राजभाषा नीति एक बेहद संतुलित और सभी तरह से सशक्त नीति है जिसमें किसी भी तरह की कोई कमी नहीं है। प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना में क्या बुराई है? हमारी राजभाषा नीति के ये मूल तत्व कानून तोड़ने की तो अनुमति नहीं देते… ये तत्व हमें स्व: अनुशासन की राह दिखाना चाहते हैं। स्व: प्रेरणा से बढ़कर हो भी क्या सकता है? ये मैं, आप और हम हैं जो राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम, संकल्प, नियमों राष्ट्रपति जी के आदेशों की मनमानी व्याख्या करते हैं और जैसे भी हो अँग्रेजी के सामने नतमस्तक हुए बिना चैन नहीं पाते। महामहिम राष्ट्रपति जी की ओर से हम सब केंद्रीय सरकार के कर्मचारी उनके आदेशों के पालन के लिए वेतन पाते हैं। हमारे नियोक्ता ने तो हमें अँग्रेजी में कार्य करने के आदेश कभी नहीं दिए। उनके आदेश राजभाषा हिन्दी में कार्य करने के लिए जारी किए जाते रहें हैं। जहां द्विभाषिकता की बात है वहाँ भी हिन्दी के बाद अँग्रेजी पाठ की बात कही गई है। फिर हम क्यों अपने नियोक्ता की बात को समझने को तैयार नहीं हैं!

मुझे जो समझ मेँ आया वह कस्तूरी कुंडल बसे ... क़ी तर्ज़ पर यही है कि हमारा "मैं" हिंदी के प्रति इतना दयनीय है कि उस पर सब को तरस आता है। मैं अगर स्वयं हिन्दी को सरकारी काम के बहाने दोयम दर्जे पर रखूँगा तो फिर दूसरा कौन उसे पहले दर्जे पर रखेगा? मैंने तीन राजभाषा सम्मेलन क्रमश: त्रिवेन्द्रम, कोचिन तथा सिलीगुड़ी में कराए। सम्मेलन में आने वाले बहुत सारे अतिथियों को पंजीकरण पुस्तिका में अंग्रेज़ी में नाम लिखते देखा। महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, अंडमान , पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु,पॉण्डिचेरी, लक्षद्वीप में मैं जहाँ भी गया शायद ही किसी ने गेट पास हिन्दी या द्विभाषी में दिया होगा। मैंने अपना नाम हर रजिस्टर में हिन्दी में लिखा और उन रजिस्टरों में शायद हिन्दी में वही एकमात्र प्रविष्टि थी।

मैंने अनेक कार्यालयों को द्विभाषी रबड़ मोहर के प्रयोग के लिए राजी कर लिया मगर आज स्वयं अगर मुझे हर माह खुली चुनौती के साथ वेतन पर्ची पर अंग्रेज़ी की रबर मोहर लगाकर दी जाए याकि तमिलनाडु मेँ मेरी नाम पट्टिका त्रिभाषी की बजाय द्विभाषी में बनवाकर लगाई जाए तो मुझे क्या करना चाहिए?मैंने बहुत सारे लोगों को हिन्दी यूनिकोड का पाठ पढ़ाया है। जाने कितने वरिष्ठ अधिकारियों को भारतीय भाषाओं में ई-मेल भेजना सिखाया मगर दिए तले का अंधेरा लाख कोशिशों के बाद भी दूर नहीं हुआ।
एक प्रश्न बार-बार मन में उठता है कि एक हिन्दी प्राध्यापक को हिन्दी प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त कर्मचारी न जुटा पाने पर मैमो मिलता है मगर जिन्हें माननीय संसदीय समिति के दिशानिर्देशों, महामहिम राष्ट्रपति जी के 1960 के आदेशों का पालन करते हुए प्रशिक्षण के लिए कर्मचारी भेजने हैं उन्हें मैमो देने का साहस किसी को क्यों कर नहीं होता? क्या महामहिम राष्ट्रपति जी के आदेशों के उल्लंघन को राष्ट्रद्रोह माने जाने के लिए कानून नहीं बनाया जा सकता? प्रशिक्षण के लिए कर्मचारी अगर शेष हैं तो उन्हें हिन्दी प्रशिक्षण कक्षाओं में भेजने के लिए जो जिम्मेदार हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन क्यों नहीं किया? एक अधिकारहीन हिन्दी प्राध्यापक को चाबुक मारने से क्या हासिल होगा?

मैं जहाँ भी जाता हूँ मुझे कहा जाता है-“ पूर्णकालिक गहन हिन्दी प्रशिक्षण के लिए किसी को भी भेज पाना संभव नहीं है, दफ़्तर का काम रुक जाएगा।” क्या कर्मचारियों को हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कराना दफ्तर का काम नहीं है? क्या माननीय संसदीय राजभाषा समिति के निरीक्षण के समय भी यही जवाब दिया जा सकता है?

मुझ पर तीन वर्ष पूर्व एक आरोप लगाया गया कि मैं तमिलनाडु में हिन्दी थोप रहा हूँ। ऐसे अनेक लोग हैं जो यह नहीं जानते कि केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से “ग” क्षेत्र (तमिलनाडु सहित)में स्थित राज्य सरकारों, उनके कार्यालयों तथा वहाँ रहने वाले व्यक्तियों के साथ केवल “अंग्रेज़ी” में पत्राचार किए जाने की व्यवस्था राजभाषा नियम 1976 के नियम 3(3) में की गई है। फिर तमिलनाडु में हिन्दी थोपने का सवाल कहाँ से उठता है? ये अलग बात है कि ग क्षेत्र में कार्यरत एक प्रबुद्ध उपनिदेशक कार्यान्वयन ने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत लिख मारा कि राजभाषा नियम 3(3), “ग” क्षेत्र पर लागू ही नहीं होता ‼

माननीय संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिशों पर जारी महामहिम राष्ट्रपति जी के आदेश आठवां खंड पैरा- 1 (च) मेँ लिखा है- “संसदीय राजभाषा समिति द्वारा पिछले खंडों में की गई सिफारिशों पर पारित किये गये राष्ट्रपति के आदेशों का कार्यान्वयन सभी केन्द्रीय कार्यालयों के लिए बाध्यकारी हो।” यह सिफारिश स्वीकार की गई और इससे पूर्व के सात खंडों पर जारी आदेशों के ‘पूर्ण कार्यान्वयन’ के आदेश दिए गए। यदि उक्त सात खंडो की सिफारिशों का पूर्ण कार्यान्वयन कर दिया जाए तो फिर राजभाषा अधिनियम तथा नियम चाहे उनका प्रभाव कहीं है अथवा नहीं सभी कुछ अपने आप कार्यान्वित हो जाता है। … मगर.... इस ‘पूर्ण कार्यान्वयन’ से आखिर अभिप्राय क्या है?

आज इस हिंदी पखवाड़े के दौरान मुझे एक दुखद घटना याद आ रही है जिसमें एक सर्वोच्च प्रतिष्ठित संस्था के सहायक महाप्रबंधक द्वारा एक प्रतियोगिता के मूल्यांकन के समय 50 प्रतिशत काम करने वाले को 15 में से 18 अंक दिए गए थे और शत-प्रतिशत काम करने वाले को 9 अंक। मैं वहाँ भी चुप नहीं रह पाया था। इस हिन्दी दिवस पर यदि हम केवल राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 3 (1 से 5 तक) को सही से समझ और समझा सकें और केवल तीन शब्दों “प्रतिवेदन”, “सामान्य आदेश” तथा “हिंदी पत्र” का सही मतलब सबसे पहले हिंदीवालों को समझा सकें तो बहुत कुछ बिना किए ही हो जाएगा।

कुछ और भी मुद्दे नीचे दिए गए हैं जिनपर बिना पूर्वाग्रह के चिंतन किया जा सकता है-

क्या हम हिंदी पढ़ाने के ऐसे पाठ्यक्रम, ऐसी पुस्तकें नहीं तैयार कर सकते जिन्हें पढ़ने-पढ़ाने में मज़ा आए, जो प्रीतिकर हों? -ऐसे पाठ्यक्रम जिन्हें हिंदीतर भाषियों से पहले हिंदी भाषी पढ़ना चाहें?

क्या हम आंकड़ों की बजाय अपनी भाषाओं में किए जाने वाले काम की गुणवत्ता के लिए ऐसे आकर्षक लक्ष्य नहीं बना सकते जिन्हें छू लेने के लिए बड़े से लेकर छोटे तक सभी अधिकारी/ कर्मचारी दौड़ने लगें, धक्कामुक्की पर उतार आएँ?

क्या हम दफ्तरों में अंग्रेज़ी काम, अंग्रेज़ी पत्राचार, अंग्रेज़ी में टिप्पण, अंग्रेज़ी में डिक्टेशन का अधिकतम प्रतिशत निर्धारित नहीं कर सकते, जो हर वर्ष घटता जाए?

यदि हिंदी में डिक्टेशन 20 प्रतिशत होगी तो शत-प्रतिशत हिंदी में काम कैसे हो पाएगा?

अंग्रेज़ी टाइपिस्ट को रोमन कुंजी पटल (की-बोर्ड) पर अंगुलियाँ चलाने का अभ्यास होता है, वर्तमान में उपलब्ध कंप्यूटर सोफ्टवेयर्स के प्रयोग से बिना समय गवाए क्या उसे उसी रोमन की बोर्ड से हिंदी एवं भारतीय भाषाओं में टाइप करने का सिर्फ दो घंटे का प्रशिक्षण देकर तत्काल हिंदी यूनिकोड टाइपिंग के काम पर नहीं लगाया जा सकता?

क्या हम हिंदी भाषा के कार्यालयीन प्रशिक्षण की व्यवस्था भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर की तर्ज़ पर पूर्ण कालिक, एक वर्ष के पाठ्यक्रम के रूप में नहीं कर सकते जहां हॉस्टल, प्रशिक्षण के लिए आवश्यक सभी संसाधन आदि की समुचित व्यवस्था हो?

यदि सभी तरह की सुविधाओं के साथ अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने के लिए 1100 घंटे (ग्यारह सौ घंटे) तथा दस माह का पूर्णकालिक समय स्कूल अध्यापकों को भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर में दिया जाता है तो हिंदी को टिप्पण आलेखन के स्तर तक सीखने में एक हिंदीतर भाषी सामान्य कर्मचारी को कितना समय दिया जाना चाहिए?

यदि आई ए एस, आई पी एस के लिए परिवीक्षा काल में हिंदी तथा कैडर राज्य की राजभाषा सीखना अनिवार्य है तो बाकी के लिए क्या परेशानी है?

क्या परिविक्षाकाल की अवधि को हिंदी प्रशिक्षण के बिना पूर्ण न मानने की व्यवस्था नहीं की जा सकती?क्या पेंशन जारी करने के लिए हिंदी प्रशिक्षण पूरा किए जाने की शर्त नहीं जोड़ी जा सकती?

ऐसा कुछ हो जाए तो ….

4 comments:

  1. बहुत ही बेबाक़ी से आपने अपनी राय रखी है। मैं भी दक्षिण में पांच साल गुज़ार आया हूं। अपने जो लिखा है उससे दो-चार तो होना पड़ता ही है।
    यदि हिंदी में डिक्टेशन 20 प्रतिशत होगी तो शत-प्रतिशत हिंदी में काम कैसे हो पाएगा?
    ये मज़ेदार रहा। इतने से इसे देख रहा हूं, पर जो ध्यान आपने दिलाया तो माज़रा समझ आया।
    बहुत अच्छा आलेख।

    आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!

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  2. उक्त लेख में,राजभाषा हिंदी की जिस दॆनीय स्थिति का बेबाक विवरण आपने दिया हॆ,उससे मॆं ही नहीं,वह हर हिंदी-प्रेमी सहमत होगा-जिसने भी सरकारी सेवा के दॊरान इस पीडा को भोगा हॆ.आपने सही कहा भारत-सरकार की राजभाषा-नीति में कोई दोष नहीं हॆ.दो्ष हॆ तो कुछ अंग्रे्जीपरस्त अधिकारियों की नियत में.मॆं भी एक सरकारी सेवक होने के सा्थ-साथ साहि्त्यिक व्यक्ति हूं.इसी ्विषय पर मे्रा ब्लाग राजभाषा विकास मंच हॆ.आपके परिचय के साथ-इस लेख को वहां प्रकशित करना चाहता हूं-यदि आपकी अनुमति हो,तो.

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  3. धन्यवाद।
    अवश्य कीजिए।

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  4. बहुत सही, सच्चा और ईमानदार बखान है. हिम्मत की तो दाद देनी पड़ेगी.

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