कौन कहता है कि भारतीय भाषाओं
में काम नहीं हो सकता !
जरा दिल से, अंग्रेजी की दासता तो निकालो
यारो ।
-अजय मलिक ‘निंदित’
जहाँ चाह, वहाँ राह।
अगर सच्ची चाहत हो, तो ऐसा क्या है, जो नहीं हो
सकता?
हिंदी
के मामले में यह चाहत हिंदी को आहत करने तक सीमित होकर रह जाती है। जो चल रहा है, वह सब पहले भी
लंबे समय से चलता रहा है और आगे भी निर्विकार रूप से चलता रहेगा।
हमारी
भारतीय व्यवस्था में जो भी आगे की सोचता है उसे सामूहिक और लोकतंत्रीय प्रयासों से
पीछे धकेल दिया जाता है ताकि वह भीड़ में दब-कुचल कर धूल धूसरित हो जाए और लोकतंत्रीय भीड़ के
हुल्लड़ का वर्चस्व स्थायित्व पा जाए।
एक सरकारी संस्था ने
सरकार के लिए सरकारी धन से वर्ष 1993-94 के आसपास
कंप्यूटर के माध्यम से राजभाषा हिंदी सिखाने के प्रबोध, प्रवीण,
प्राज्ञ नामक सरकारी पाठ्यक्रमों के लिए लीला सॉफ्टवेयर्स विकसित करने की प्रक्रिया शुरू की। डॉस का
जमाना था। बाजार में आते-आते वर्ष 2000 आ गया। इन सॉफ्टवेयर्स का मूल्य निर्धारित किया गया लगभग 27 हजार रुपये। हिंदी के प्रचार-प्रसार के दायित्व को ध्यान
में रखते हुए सुझाव दिया गया था कि इन सॉफ्टवेयर्स को
निशुल्क वितरित करने पर विचार किया जाए या फिर खाली सीडी के मूल्य से
डेढ़ या दोगुना यानी दस-बीस या तीस रुपये रखा जाए। सरकारी व्यवस्था में सुझावों पर विचार करने में विलंब होना जगजाहिर है, परंतु समय की अबाध गति किसी के रोके नहीं रुकती। सभी ब्यूरोक्रेट्स तक भी लाख कोशिश के
बावजूद साठ साल के होने से नहीं बच पाते।
लीला सॉफ्टवेयर्स की बिक्री
अधिकांशत: सरकारी सस्थानों तक सीमित रही और लागत के अनुरूप नगण्य रही। मूलत: ये
सॉफ्टवेयर्स माइक्रोसॉफ्ट विंडोज
98, 98(ii) संस्करणों के लिए
निर्मित किए गए थे और एक डोंगल को प्रिंटर पोर्ट में लगाने पर ही काम करते थे,
लेकिन तब तक विंडोज 2000 और एक्सपी भी आ चुके थे। विंडोज
एम ई (मिलेनियम) अपनी असफलता के कारण अपनी पहचान तक नहीं बना पाया। अधिकांश
कार्यालयों में लोग लीला सॉफ्टवेयर्स को विंडोज एक्सपी पर इंस्टाल करने की कोशिश करते और असफल हो जाते।
वर्ष 2009 में हमने
‘हिंदी सबके लिए’ ब्लॉग की शुरुआत कर यह समझाने की
कोशिश की कि हिंदी वर्णमाला से लेकर हिंदी के विभिन्न
स्तरों के ज्ञान के लिए हिंदी सिखाने वाले अनेक निशुल्क इंटरेक्टिव कार्यक्रम/ ट्यूटर नेट पर उपलब्ध हैं। लीला
सॉफ्टवेयर्स से डोंगल की समाप्ति हुई और निशुल्क होते-होते वर्ष 2011 आ गया। मोबाइल फोन ने स्मार्टफोन का रूप धारण कर ब्लेकहोल की तरह अनेक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को लील लिया।
वर्ष 2018-19 के दौरान तत्कालीन राजभाषा सचिव श्री प्रभास
कुमार झा के कार्यकाल में मोबाइल एप के रूप में ‘लीला
राजभाषा’ सॉफ्टवेयर्स एंड्रॉइड एवं आइओएस के लिए निशुल्क उपलब्ध हो पाए। यानी लगभग 24 वर्ष का सफर
पूरा करने के बाद व्यवस्था ने हिंदी सीखने-सीखने के लिए ये एप आम जनता को उपलब्ध कराए। यदि यह प्रक्रिया लीला के जन्म के समय ही अपना ली गई होती तो अंग्रेजी को फलने-फूलने में कुछ तो कठिनाई
अवश्य होती और हिंदी के प्रचार-प्रसार में व्यय कम होता।
इसी सरकारी संस्था ने हिंदी
अनुवाद का एक उपकरण/ यंत्र तैयार किया और नाम दिया – ‘मंत्र राजभाषा’। यह मंत्र
नामक यंत्र निशुल्क था। वर्ष 2004-05 के आसपास अपने शुरुआती दौर में इस निशुल्क
यंत्र को स्थापित करने के लिए जिस एमएसक्यूएल सर्वर की बाध्यता रूपी आवश्यकता थी,
उसकी कीमत थी करीब 70 हजार ! निशुल्क मंत्र पर
सवार होने की सीढ़ी का मूल्य आम जन के बजट से बाहर होने
के कारणवर्ष 2008 आते-आते मंत्र फेल हो गया और गूगल अनुवाद ने उसकी सल्तनत पर कब्जा कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
उसी सरकारी संस्था ने
वर्ष 2006 के आसपास “श्रुतलेखन राजभाषा” का उपहार सरकार को सरकारी धन के एवज में दिया। मंत्र की तरह यह उपहार
निशुल्क नहीं था, बल्कि कीमत रखी गई करीब 6-7 हजार। इस कीमत की वजह थी आईबीएम के एक सॉफ्टवेयर ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ के इंजन का प्रयोग, जिसकी रायल्टी के रूप में यह कीमत अदा की जाती थी। विंडोज एक्स पी का
जमाना था। श्रुतलेखन के लिए एक विशेष प्रकार का माइक का भी संधान किया गया था।
बिना उस विशेष माइक के श्रुतलेखन सुनता कुछ और था एवं समझता कुछ और था। विंडोज
एक्सपी के सर्विस पैक आने के साथ-साथ माइक्रोसॉफ्ट का नया ओपेरेटिंग सिस्टम आया
‘विंडोज विस्ता’ और फिर विंडोज-7 आते-आते श्रुतलेखन के कान
खराब होने शुरू हो गए। गूगल वॉयस टाइपिंग, गूगल डॉक्स ने श्रुतलेखन को बहरा बना दिया।
राजभाषा विभाग के
कार्यक्रमों में अक्टूबर-नवंबर 2015 में गूगल वाइस टाइपिंग का पहला प्रदर्शन करने का अवसर मुझे मिला भारतीय रिजर्व बैंक की
अध्यक्षता में बैंक नराकास, पटना
द्वारा आयोजित संयुक्त नराकास बैठक के दौरान तत्कालीन सचिव राजभाषा श्री गिरीश
शंकर की उपस्थिति में। इसके
बाद राजभाषा विभाग ने वर्ष 2015 से अब तक अपनेतकनीकी सम्मेलनों में अगर किसी
चीज को सर्वाधिक महत्व दिया तो वह है गूगल वाइस
टाइपिंग। यह वॉयस टाइपिंग एंड्रॉयड मोबाइल और कंप्यूटर
दोनों पर संभव हुई।
धीरे-धीरे गूगल वाइस
टाइपिंग के समानांतर आईफोन की वाइस टाइपिंग, माइक्रोसॉफ्ट की
विंडोज 10+ एमएस ऑफिस 365 की डिक्टेशन
तथा विंडोज-11 की किसी भी उपकरण में हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में बोलकर टाइप करने की
सुविधाएं उपलब्ध होती चली
गईं।
लीप ऑफिस भारतीय भाषाओं
में काम करने के लिए नॉन यूनिकोड के जमाने में बेहतरीन ऑफिस सूट था।
इसके लिए एमएस ऑफिस की अलग से आवश्यकता नहीं होती थी। फरवरी-मार्च,
2000 में माइक्रोसॉफ्ट विंडोज-2000 आने पर
जमाना बदल चुका था। हार्डवेयर और प्रोसेसिंग की सीमाएं 8 बिट
से बहुत आगे 32 बिट तक पहुँच चुकी थीं। युनिकोड का आगाज हो
चुका था, लेकिन यह नॉन युनिकोड प्लेटफ़ॉर्म पर भारतीय भाषाओं के द्विभाषी/बहुभाषी सॉफ्टवेयर
निर्माताओं के व्यापार को बहुत बड़ा धक्का लगाने वाला था। शायद यही वजह थी कि एक सामान्य पीसी उपभोक्ता/प्रयोक्ता तक यह जानकारी ही सही से नहीं पहुंचाई गई थी कि यूनिकोड प्लेटफॉर्म पर बने ऑपरेटिंग
सिस्टम आने के बाद हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में टाइपिंग के लिए लीप ऑफिस,
अक्षर फॉर विंडोज,अंकुर, आकृति, श्री शक्ति, आई एस एम, ए पी एस 2000+ आदि किसी भी सॉफ्टवेयर की आवश्यकता
समाप्त हो चुकी है।
पेज मेकर पर नॉन यूनिकोड प्लेटफॉर्म पर
बने ऑपरेटिंग सिस्टम्स (ओएस) पर कृतिदेव आदि फ़ॉन्ट्स में टाइपिंग करने वाले विशाल
समूह को आज भी युनिकोड प्लेटफ़ॉर्म पर बने ओएस पर बिना नॉन यूनिकोड
फ़ॉन्ट्स में टाइप करने से इतर कुछ और सोचने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। अपने देश में यूनिकोड की चर्चा सही ढंग से वर्ष 2008 से पहले शुरू ही नहीं हो पाई थी, हालांकि तब तक
विंडोज विस्ता और विंडोज 7 पर चर्चा शुरू हो चुकी थी। कुल
मिलाकर कंप्यूटर आपूर्ति कर्ता/विक्रेता को कोई भारतीय भाषाओं के संबंध में यूनिकोड फॉन्ट्स की जरूरत का एहसास ही नहीं कराता था यानी केवल अंग्रेजी में मूल रूप से कार्य करने वाले कंप्यूटर्स की ही
खरीद-बिक्री होती थी।
मेरा स्पष्ट रूप से यह
मानना है कि यदि बिल गेट्स ने विंडोज विस्ता और उसके बाद के माइक्रोसॉफ्ट विंडोज/
सर्वर ओएस में स्वत: (बाय डिफ़ॉल्ट) भारतीय भाषाओं अर्थात इंडिक लेंग्युवेज के फ़ोल्डर इंस्टालेशन
की सुविधा न दी होती और स्वत: इंस्टालेशन के समय पूर्ववत
अगर केवल अंग्रेजी भाषा का ही चयन हो पाता, तो शायद आज भी भारतीय कंप्यूटर प्रयोक्ता नॉन यूनिकोड द्विभाषी सॉफ्टवेयर निर्माताओं
की तलाश कभी न छोड़ता !
कुल मिलाकर सरकारी स्तर
पर भारतीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा की बजाय अपेक्षा की मानसिकता विकसित की गई होती
तो आज गूगल वाइस टाइपिंग के स्थान पर ‘भारत वाइस टाइपिंग’: गूगल ट्रांसलेट के
स्थान पर “भारत भाषा अनुवाद एप” निशुल्क सारी दुनिया में उपलब्ध होते। आज भी
कोई सही गुणवत्ता वाली ओ सी आर (ऑप्टिकल कैरेक्टर
रिकॉग्नीशन) भारतीय भाषाओं के लिए बाजार में नहीं है,
जबकि गूगल लेंस के माध्यम से अद्वितीय ऑप्टिकल करेक्टर रिकॉग्नीशन
की सुविधा सभी भारतीय भाषाओं के लिए भी निशुल्क गूगल पर उपलब्ध है।
सरकारी तौर पर करीब चार
वर्षों से ‘कंठस्थ” नामक स्मृति आधारित अनुवाद की सुविधा विकसित
करने के प्रयास चल रहे हैं। कंठस्थ की स्मृति में द्विभाषी/ बहुभाषी
सामग्री को भरने का काम चल रहा है। यह एक अच्छा प्रयास है, लेकिन
यह ठीक वैसा ही है जैसा राजभाषा मंत्र अथवा श्रुतलेखन अथवा लीला प्रबोध प्रवीण,
प्राज्ञ के रूप में दशकों पहले हुआ था। चार-पाँच साल में कंप्यूटर
और सूचना प्रोद्योगिकी की दुनिया पूरी तरह बदल जाती है। उदाहरण के लिए आज आई 3,
5, 7,9 प्रोसेसर की 12वीं पीढ़ी बाजार में
आ चुकी है। इन प्रोसेसर्स की 8वीं पीढ़ी से पूर्व के
प्रोसेसर्स पर विंडोज 11 की स्थापना सहज रूप में संभव नहीं
है यानी 4-5 साल पुराने प्रोसेसर्स विंडोज11 के लिए कॉम्पिटेबल नहीं है। दूसरी ओर पिछले पाँच साल से सरकारी तौर पर
कंठस्थ विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं। कंठस्थ के लिए होना ये चाहिए था कि जो भी भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के राजपत्रों की द्विभाषी या बहुभाषी
सामग्री उपलब्ध थी उसे अधिकतम 6 माह में सम्पादन योग्य
स्वरूप अर्थात वर्ड स्वरूप में अपलोड कर दिया जाना चाहिए था। ऐसा करने से विशाल डाटा
बेस बन चुका होता।
परंतु मैं इससे भिन्न
सोचना चाहता हूँ। मेरा यह मानना है कि कंप्यूटर निर्माता और ऑपरेटिंग सिस्टम/अन्य
सॉफ्टवेयर एप आदि बनाने वाली माइक्रोसॉफ्ट, इंटेल, अजूज, गूगल, एप्पल आदि
कम्पनियों के लिए भारत एक इतना बड़ा बाजार है कि सरकारी बाध्यता होने पर वे कोई भी
सुविधा इनबिल्ट उपलब्ध कराने को सहर्ष तैयार हो जाएंगे। भारत में कंप्यूटर ऐसे हों
जिनमें किसी भी भारतीय भाषा में तैयार होने वाला दस्तावेज़ स्वत: दूसरी किसी भी
भाषा में एक क्लिक के साथ उपलब्ध हो जाए। अलग से अनुवाद का झंझट क्यों हो? हिंदी में तैयार किया जा रहा दस्तावेज भारत में निर्मित या विक्रय किया गया कोई भी कंप्यूटर स्वत:
अंग्रेजी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में भी तैयार करता चला जाए। मेरी यह बात आज अटपटी सी लग सकती है, लेकिन मेरा
दावा है कि कंठस्थ का कुछ हो या न हो, लेकिन अगले 5 से 10 साल में संसार के सभी कंप्यूटर्स में संसार की किसी भी भाषा से अन्य किसी भी भाषा में स्वत:
दस्तावेज़ तैयार होते चले जाने की सुविधा उपलब्ध हो जाएगी। यह ठीक उसी तरह होगा,
जैसे मंत्र राजभाषा के स्थान पर गूगल अनुवाद, बिंग
अनुवाद, एम एस ऑफिस अनुवाद उपलब्ध हैं; श्रुतलेखन के स्थान पर हर तरह की वाइस टाइपिंग उपलब्ध है।
सरकारी तौर पर हिंदी के
प्रगामी प्रयोग की मॉनिटिरिंग के लिए तिमाही रिपोर्ट आदि में आँकड़े मांगे जाते हैं, इन आधारहीन
आंकड़ों की प्रामाणिकता के लिए लंबी-चौड़ी प्रक्रिया अपनाई जाती है। क्या इसके लिए
कोई अन्य उपाय नहीं हो सकता? आधार के जरिए भारत के 140
करोड़ लोगों का यदि सम्पूर्ण विवरण संकलित किया जा सकता है; कोर बैंकिंग के जरिए किसी भी बैंक, किसी भी बैंक के
ए टी एम से पैसे निकाले जा सकते हैं; पेटिएम, ऑनलाइन बैंकिंग, ऑन
लाइन किसी भी तरह की खरीददारी की जा सकती है; ऑन लाइन बिलों
का भुगतान किया जा सकता है; बायो मैट्रिक मशीनों से कहीं से
भी हाजरी लगाई जा सकती है।यानी जब सब कुछ ऑनलाइन किया जा सकता है, तो फिर सभी सरकारी/ केन्द्रीय कार्यालयों को नेट/सर्वर आदि से जोड़कर स्वत:
हिंदी अंग्रेजी में हो रहे कामकाज का विवरण क्यों प्राप्त नहीं किया जा सकता?
सभी कंप्यूटर से स्वत: भाषायी आधार पर हुए कार्य का विवरण क्यों किसी केन्द्रीकृत सर्वर
में जमा नहीं हो सकता? सूचना प्रोद्योगिकी के लिए यह बेहद
सरल सी बात होगी। कंप्यूटर में जैसे हम काम करने के लिए भाषा का चयन करते हैं,
वैसे ही कंप्यूटर आसानी से यह बताने में सक्षम हो सकता है कि किस
कार्यालय के किस कंप्यूटर से कितने शब्द/ अक्षर हिंदी
में टंकित किए गए, किस कार्मिक ने कितने समय, किस कंप्यूटर पर, किस भाषा में काम किया।
मगर प्रश्न फिर वही है कि चाहत
अर्थात इसके लिए इच्छा भी तो होनी चाहिए। मन में अपनी भाषाओं के प्रति ईमानदारी भी तो होनी चाहिए !क्या माँ को माँ कहकर
पुकारने के लिए किसी पुरस्कार या वित्तीय लाभ की शर्त रखे
जाने की आवश्यकता होनी चाहिए? जहाँ
चाह, वहाँ राह। बस एक ईमानदार इच्छा शक्ति काफी है। कंप्यूटर सब कुछ
कर सकता है, लेकिन इच्छा शक्ति सृजित नहीं कर सकता..
हमें टाइम पास करने की
प्रवृत्ति को त्यागकर समय का सदुपयोग करने की मानसिकता विकसित करनी होगी। बस इतने
भर से भारत सारे संसार पर छा जाने में सक्षम हो सकता है।
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
अजय मलिक Ajai Malik
9 दुर्गा
अपार्टमेंट्स,
1 गांधी स्ट्रीट
कानगम, तारामनी, चेन्नै -600113
9444713211
No comments:
Post a Comment