(यह कहानी श्री महेंद्र कुमार जी ने मुझे अप्रेल 2010 में ईमेल द्वारा भेजी थी। कहानी "बरहा देवनागरी" फॉन्ट में थी और मेरे लिए इसे यूनिकोड में परिवर्तित कर पाना एवरेस्ट फतह कर पाने जैसा हो गया। श्री जगदीप दाँगी जी से राजभाषा समूह पर एक पोस्ट आई जिसमें सुझाव दिया गया कि उनके द्वारा तैयार प्रखर देवनागरी फॉन्ट कन्वर्टर से बरहा फॉन्ट में बने दस्तावेज़ों को भी शत-प्रतिशत शुद्धता के साथ यूनिकोड में कन्वर्ट किया जा सकता है। प्रखर के डेमो वर्जन का प्रयोग मैं प्रशिक्षण के दौरान काफी समय से कर रहा था मगर आज मुझे प्रखर फॉन्ट कन्वर्टर की मूल प्रति प्राप्त हुई और परिणाम आपके सामने है। दो साल बाद मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ और प्रखर की प्रखरता कैसी है जरूर बताइएगा । श्री महेंद्र कुमार जी केंद्रीय विद्यालय सीएलआरआई, चेन्नई में हिन्दी शिक्षक हैं, किसी जमाने में इप्टा से जुड़े रहे हैं और हाल ही में उनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। -अजय मलिक )
एक कहानी ऐसी भी.......
महेन्द्र कुमार
शहर का 'इलियट बीच'..... शाम का समय । अक्सर वहाँ सुबह-शाम सैलानी आते । बड़ी चहल-पहल रहती, रौनक रहती । यही वह उपयुक्त जगह थी जिसके एक कोने में बैठकर वे दोनों दोस्त
घंटों समय बिताते । यह उनके मिलने और सुख-दुख बाँटने के लिए शायद
इस शहर का सर्वाधिक सुरक्षित कोना था । आज भी बड़े उत्साह के साथ शर्मा जी ने आवाज
लगाई थी उन्हें, टहलने में साथ देने के लिए । लेकिन पता नहीं
क्यों मास्टर साहब ने अपना उत्साह ही नहीं दिखाया । सूनी आँखों से समुद्र की उठती-गिरती लहरों को निहारते हुए उन्होंने शर्मा जी को ही अपने पास बुलाया......
और बैठने के लिए कहा । शर्मा जी ने देखा कि वे काफी उदास और गुमसुम बैठे
हैं । इसलिए उन्हें निराश न करने की इच्छा से सोचा कि चलो थोड़ी देर बैठकर गपशप कर
लेते हैं फिर......। यह सोचकर कि "जे न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिन्हहीं बिलोकत पातक भारी", बैठ गए । और
पूछा कि आखिर बात क्या है? क्यों आज बड़े गंभीर बने बैठे हैं?
कहीं स्कूल में किसी से अनबन तो नहीं हो गई? वैसे
स्वभाव से मास्टर साहब बड़े ही धीर-गंभीर व्यक्ति थे ।
"नहीं । अनबन क्यों होगी"- बड़ा संक्षिप्त सा उत्तर दिया उन्होंने । तो आखिर वजह क्या है इस गंभीरता की?
शर्मा जी ने फिर से सवाल किया ।
उन्होंने कहना शुरु किया । शर्मा जी आपसे तो मैं कुछ
छिपाता नहीं । एक बात है जो मेरे दिल को अक्सर कचोटती रहती है कि मैं गाँव में क्यों
पैदा हुआ? यदि पैदा हुआ तो इतना पढ़-लिखकर
बुद्धिजीवी क्यों नहीं बन पाया जितना ये शहर वाले हैं ? हाँ,
यह सही है कि मनुष्य की बुद्धि ने बड़े-बड़े कारनामे
दिखाए हैं सारे संसार में । पर यह भी तो सत्य है कि उसकी बुद्धि ने ही आज पूरी दुनिया को या यूँ कहिए कि संपूर्ण
जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है ।
'अच्छा-अच्छा दार्शनिक मत बनिए । सीधे कहिए बात क्या है'-शर्मा
जी ने कहा ।
उन्होंने कहा -
"बात तो निहायत व्यक्तिगत है जो अक्सर मुझे आहत करती रहती है ।
लेकिन क्या करूँ? भले ही हमारा देश अभी बुद्ध, गाँधी,
विवेकानंद की भावनाओं को पूरी तरह नहीं समझ पाया हो लेकिन अमरीका या इंग्लैंड को जीने लगा है
। यहाँ की जीवन-शैली में इतनी
तेजी से बदलाव आया है कि पूछिए मत । जीवन से इतनी दूरी देखकर रूह काँप उठती है मेरी ।"
हाँ, तो आप मेरी उदासी का कारण जानना चाह रहे थे
न ?
तो सुनिए, जानते हैं आप- अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने जब
शिक्षक के रूप में अपने जीवन की पारी खेलनी शुरु की तो उत्साह से बड़ा लबालब था । किंतु
वह अकस्मात या अकारण नहीं था । बचपन में अति साधारण विद्यार्थी होने के बावजूद मुझे
अपने शिक्षकों का प्यार तथा उचित मार्गदर्शन पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । हलांकि
अपने स्कूली दिनों में, जब सबकी आँखों में इंजीनियर, डाक्टर, वकील, वैज्ञानिक बनने के
सपने तिरते हैं मैं भी
एक स्वप्नदर्शी ही था । पर वो कहावत है न कि 'लिखा करम में जो
भी विधाता मिटाने वाला कोई नहीं, माता पिता ने जनम दिया पर करम
का दाता कोई नहीं' .....। सो करम ने अपना रंग दिखाया । जीवन में
आए शिक्षकों ने मेरे हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी और आज मैं एक शिक्षक हूँ । वह भी
संपूर्ण समर्पण भाव से । अपने अध्ययन काल के दौरान ही यह महसूस करने लगा था कि इससे
महान और श्रेष्ठ कर्म हो नहीं सकता । यहाँ जीवन भर विद्यार्थी बने रहने और सीखने के
अवसर मिलते रहेंगे और मैं अपने जीवन काल में तन से भले ही वृद्ध हो जाऊँ पर मन से युवा ही बना रहूँगा ।
शर्मा जी ने कहा-
'हाँ, यह तो सच है । पचास के करीब पहुँचने वाले
हैं किंतु मन युवाओं जैसा ही है । फिर..?
उन्होंने एक लंबी साँस ली और
फिर शर्मा जी से कहना शुरु किया -" जानते हैं आप,
यह मेरी खुशकिस्मती है कि आज भी मैं अपने शिक्षकों के ही साथ जीता हूँ ?
शर्मा जी ने पूछा-वह कैसे ?
मन से । मेरे एक परम आदरणीय
प्रोफेसर थे- महेश बाबू जिन्हें मीलों पैदल चलने की आदत थी
। यह आदत उन्होंने बड़े अभ्यास से बनाई थी - अपने स्वास्थ्य को
बनाए रखने के लिए । मैंने एक दिन अपने प्रोफेसर साहब से पूछा था - " सर, आप दस-दस किलोमीटर तक अकेले
कैसे टहल लेते हैं ? आपका मन कैसे लगता है ?
प्रोफेसर साहब ने जवाब दिया
था कि मैं अकेले कहाँ होता हूँ । ''
मैंने पूछा था - फिर आपके साथ और कौन-कौन टहलते हैं?
प्रोफेसर साहब ने बताया था
कि उनके साथ कभी हिन्दी के कथा सम्राट प्रेमचंद होते हैं तो कभी रूसी लेखक गोर्की तो
कभी चीनी कहानीकार लु-शून.....। यह बात
अचानक से मेरी समझ में नहीं आयी । धीरे-धीरे जब मैं खुद कविता
लिखने के रास्ते पर आगे बढ़ा या यूँ कहें कि लिखने लगा और गंभीर साहित्य पढ़ने लगा
जिसके पात्र कभी-कभी मेरे सपने में भी यदा-कदा दर्शन देने लगे तब उनका कहना कुछ-कुछ समझ में आया
क्योंकि वे एक जबर्दस्त पाठक थे । दुनिया के बड़े-बड़े साहित्यकारों
की महान रचनाएँ ही उनकी अभिन्न साथी हुआ करती थीं । खुद भी एक लेखक और कवि थे । बस
क्या था ! मेरे मानस-पटल पर इसकी ऐसी छाप
पड़ी कि आज वे सारे शिक्षक जो उन दिनों मेरे आदर्श थे, साए की
तरह मेरे साथ रहने लगे । और अब स्थिति ऐसी है कि मैं उनसे एक क्षण भी अलग नहीं रहता। कठिन घड़ी आने पर तो मैं उन्हीं से बातें करके अपनी समस्याओं से निजात पाता हूँ।
यह एक महज संयोग ही था कि मैंने वर्तमान व्यवस्था में
अपना जीवन गुजारने के लिए या यूँ कह लीजिए कि खपने के लिए शिक्षक बनने की ट्रेनिंग
कर ली । यहाँ यह बताना आवश्यक नहीं कि ट्रेनिंग कैसे पूरी हुई? दुबारा कहता हूँ कि वह महज एक संयोग था । लेकिन ट्रेनिंग हो गई पूरी और यह
ट्रेनिंग पूरी होते ही मैं हसीन सपनों की दुनिया में खो गया । एक महान शिक्षक बनने
का सपना । छोटे-छोटे बच्चों का संग.......उनकी भावनाओं तथा कल्पनाओं की खूबसूरत दुनिया में घुसपैठ कर उनकी प्रतिभा को
पहचानना तथा 'गुरु कुम्हार शिष कुम्भ' की
तरह खोट निकालकर उन्हें देश के सच्चे नागरिक बनाने का सपना......। गांधी, नेहरू, कलाम आदि के रूप में बच्चों को देखना...... उनके भीतर
छिपी प्रतिभा को उजागर कर उन्हें देश और समाज के विकास की कड़ी बनाने का सपना.....।
अपने शिक्षकीय जीवन के शुरुआती
दिनों में लगा कि मेरे सपने अवश्य साकार होंगे । छोटी-मोटी ऐसी
अनेक घटनाएँ मेरे सामने आईं जिससे मुझे अपने शिक्षक रूप पर गर्व महसूस होने लगा । गर्व
से फूला मैं पूरे प्राणपण से अपने कर्तव्य
निर्वाह में जुट गया । लेकिन एक बात बता दूँ कि इस दौरान मैं
खुद एक सच्चा विद्यार्थी बन गया । मेरे अध्ययन और अनुभव की दुनिया में गहन विस्तार
आता गया । इस अध्ययन और अनुभव दोनों से मैं अपने संपर्क में आने वाले हर विद्यार्थी
को लाभान्वित करने की हर संभव कोशिश करने लगा । मेरा आत्मविश्वास दृढ़ होता गया कि
अपने विद्यार्थियों के लिए मुझे चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना क्यों न
करनी पड़े.....अवश्य करूँगा । और इन कठिनाइयों में मिलीं सफलताएँ
ही मुझमें दिन ब दिन नया उत्साह भरती रहीं । इस प्रकार मैं अपने पथ पर दूने उत्साह
से आगे बढ़ता गया ।
पता नहीं कभी-कभी इन मासूम बच्चों के चेहरे पर मुझे क्या दिख जाता कि मैं उनके साथ जुड़ने
की अपनी इच्छा को रोक नहीं पाता । उनके साथ जुड़ने, उनका विश्वास
जीतने और फिर अपना कार्य शुरु करने के अवसर की तलाश में जुट जाता । जब कभी मेरी कमजोरियाँ
मुझे पीछे खींचने लगतीं तो या मैं खुद को असहाय महसूस करने लगता तो मेरे पिता जी की
कही ये बातें याद आ जातीं कि 'जब भी कोई अच्छा कार्य शुरु करो
तो आलोचनाओं से या बाधाओं से डरकर कभी पीछे मत मुड़ो । यह दुनिया है जिसकी परवाह तुम्हें
करनी है, दुनिया कभी तुम्हारी परवाह नहीं करेगी ।' मुझमें हिम्मत बँधातीं और मैं फिर एक कदम आगे बढ़ाने के लिए तत्पर हो जाता
।
अलग-अलग
प्रांतों में नए-नए अनुभव बटोरता मैं स्थानांतरित होकर एक दिन
इस शहर में आ गया । और
इस शहर ने सचमुच मुझे एक ऐसे अनुभव से साक्षात्कार कराया जिससे अनजान मैं अब तक अपनी
ही दुनिया में मशगूल था । जिस तरह एक स्वतंत्र चिड़िया
हर तरह के खतरे
से अनजान सारे आकाश में निर्भीक उड़ान भरती है उसी तरह से मैं भी इस दुनिया को मान
रहा था जहाँ के जीवनाकाश में मैं विचरण कर रहा था ।
शर्मा जी बड़ी गंभीरता से
सुन रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि बात जरूर कोई साधारण नहीं है वर्ना मास्टर साहब
इतना विचलित नहीं होते । फिर भी अनजान बनते हुए कहा - " अरे तो, इसमें विचलित होने वाली क्या बात है
?"
"बात है शर्मा जी"-
मास्टर साहब ने कहा ।
"क्या बात है?”
शर्मा जी ने फिर कहा
तब मास्टर साहब ने फिर कहना
शुरु किया- सारा देश और समाज जानता है कि किसी भी देश के बच्चे
ही उस राष्ट्र के कर्णधार होते हैं । और उसका निर्माता शिक्षक ही होता है फिर शिक्षक
अपने कर्तव्य का निर्वाह भावनायुक्त होकर नहीं बल्कि बुद्धि से क्यों करता है
? शिक्षकों की इस वणिकबुद्धि के कारण ही तो आज का समाज भी उसे वणिक मानने
लगा है ? ऐसे में मुझ जैसे शिक्षक की क्या दशा होगी, आप अनुमान लगा सकते हैं ।
वैसे तो मेरे जीवन में ऐसे
अनगिनत छात्र आए जिन्होंने मुझे अपने जीवन का आदर्श माना और रेस में आगे निकल गए ।
लेकिन एक ऐसा छात्र मिला जिसे बहुआयामी प्रतिभासम्पन्न तो सभी कहते लेकिन वह सबकी आँखों से अनदेखा रहा ।
बहुप्रतिभासम्पन्न है तो है । लोगों
को उससे क्या लेना-देना ? जैसे अन्य विद्यार्थी वैसे
ही वह भी । लेकिन वह मेरी नजरों से नहीं बच सका ।
यह भी महज एक संयोग ही था कि
एक बार मुझे उसकी कक्षा में किसी दूसरे शिक्षक की अनुपस्थिति के कारण जाना पड़ा । मैं
कक्षा में गया । अपने स्वभाव के अनुसार मैंने चालीस मिनट यूँ ही बैठकर गुजारने की बजाय
इधर-उधर के सवाल पूछने लगा । सबसे ज्यादा उत्साहित और सही उत्तर
देकर अपनी जगह पर बैठा उसका आत्मविश्वास-दीप्त चेहरा देखकर एक
ओर मैं दंग था तो दूसरी तरफ उसकी मासूमियत देखकर अनायास मेरे हृदय में एक अजीब सी हलचल
होने लगी । सोचने लगा- "काश मैं इसके लिए कुछ कर पाता ।"
शर्मा जी वो एक कहावत सुनी है न आपने- "जहाँ
चाह वहाँ राह ।" एक-दो वर्षों तक विद्यालय-प्रांगण में इधर-उधर आते जाते जब कभी मैं उसे दिख जाता,
उसकी आँखों में एक अजीब चमक पैदा हो जाती
और चेहरे पर एक वात्सल्यभरी मुस्कान । उसकी आँखें यह कहती हुई जान पड़तीं कि सर आप
फिर कब मेरे क्लास में आइएगा । मैं भी एक अजीब
तड़प से भरकर उसे अपनी आँखों से यह कहने की कोशिश करता कि ईश्वर
ने यदि चाहा तो तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी । आखिरकार वह राह मुझे मिल ही गई । तीसरे वर्ष
नए सत्र में वह मेरी कक्षा में आ गया जिसका मैं क्लास टीचर बना । मैंने मन ही मन यह अवसर प्रदान करने के लिए
ईश्वर को कितना धन्यवाद दिया मुझे याद नहीं ।
एक के बाद एक उस लड़के ने
अपनी हुनर का जलवा दिखाना शुरु किया । चाहे शैक्षिक क्रिया-कलाप
हो या सांस्कृतिक गतिविधियाँ -हर क्षेत्र में उसने अपना जलवा
दिखाया । उसने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अनेक प्रतियोगिताओं में पुरस्कार
जीत कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया । जब भी वह किसी महान लेखक की रचनाएँ पढ़ता,
जो उसकी नितांत व्यक्तिगत रुचि थी, तो उनसे अभिभूत
होकर सैकड़ों सवाल मुझसे पूछता । उस समय उसकी आँखों में हृदय का सारा दर्द उमड़ पड़ता
। उसके सवालों से यह स्पष्ट होता कि वह उन लोगों की तरह बनना चाहता है जिनकी जिंदगी
का उद्देश्य अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए होता है । वे ही उसके ख्यालों में आदर्श
बनते । इसमें कभी वह विवेकानंद को आदर्श मानता तो कभी गाँधी को, कभी अब्राहम लिंकन बनना चाहता तो कभी कलाम बनकर अपने देश को दुनिया में सबसे
अग्रिम पंक्ति लाने की बात करता ।
तब मुझे ऐसा लगता
कि इसके पास वह सब कुछ है जो एक होनहार
और प्रतिभावान के पास होनी चाहिए । सिर्फ इसकी भावना और संवेदना को मरने से बचा लिया
जाए तो शायद न केवल देश बल्कि पूरी मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है । लेकिन........
लेकिन क्या
?-शर्मा जी ने पूछा ।
लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगा समाज की बौद्धिकता की जकड़ में आने लगा । तब तक वह हायर
सेकेंडरी का छात्र बन चुका था जिसमें पढ़नेवाले छात्रों का सपना ही कुछ और होता है
। आशय तो आप ही समझ ही गए होंगे । उसकी नजरें भी बदलने लगीं । उसकी आँखों पर भी आधुनिकता
का काला चश्मा चढ़ने लगा । भावना की जगह बुद्धि लेने लगी । परिणामस्वरूप वह अत्यधिक
तार्किक होता गया । हर चीज को हानि-लाभ की कसौटी पर कसकर देखने
की उसकी आदत बनती गई। मेरी सारी सीख कपूर की तरह हवा बनकर उड़ गई ।
और इस तरह वह भी इस शहर की
विषैली हवा से अछूता नहीं रह सका । उसकी आँखों पर पहले से ही अतिबौद्धिकता का परदा
पड़ा था जिसे हटाकर मैं उसे एक सफल और सच्चा भारतीय बनाना चाहता था जिसकी प्रतिभा से
देश की भावी पीढ़ी को रोशनी मिल सके । लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह तो आकाशकुसुम होता
है जिसे पाना दुर्लभ ही नहीं असंभव है । और अंततः इन्हीं शहरवासयों की तरह वह भी शहरी
पुतला बनकर मेरे सपनों पर पानी फेर गया ।
और इस तरह उसे अत्याधुनिक शहरी संस्कारों में
पिसते देखकर मेरा हृदय विदीर्ण होता रहा । बहुत कोशिश की कि उसे अति बौद्धिकता के दलदल
से बाहर निकाल एक सच्चा इंसान बनाऊँ जो देश और समाज का नया गाँधी या कलाम बन करोड़ों
लोगों के पथ में रोशनी बिखेर सके लेकिन.........।
इतना कहकर वे शून्य आँखों से
काले आकाश में टिमटिमाते तारों को निहारते हुए अवसाद की गहराइयों में डूब गए । ऐसा लगा मानों
फिर से किसी नई प्रतिभा की तलाश में उनकी आँखें अपनी यात्रा पर निकल पड़ीं...........।।।।।।।।।।।
(१० मई २००९ को आकाशवाणी
चेन्नै द्वारा 'इन्द्रधनुष' कार्यक्रम के
अंतर्गत प्रसारित)
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