अब भी बहुत याद आता है
वह पुराना घर
वह घेर का ओसारा
बकांद के पेड़ तले बनी
वह चौमासे की टपकती रात में
बिन बारिश भी
घंटों बरसती छान।
बूढ़े बाबा की बुनी वह खाट
और उसके बान, पायतें
वह हुक्का-गुडगुडी-चिलम
और दहकते अंगारे।
कोल्हू की वह रात-रात भर चलती जोटें
ताजे गुड की महक और
खोई की भट्टी का वह धुंआधार अलाव।
कुंडीवाले कुएं पर तपती दुपहरी में
घंटों डुबकियां लगाना - नहाना
हरट के पतनाले की धार की गुलगुलियाँ,
वाह क्या खूब थी वह भी
हमारी जिंदादिल
चालीस साल पुरानी दुनियाँ।
अब पचास के चेहरे पर
सदाबहार तने तनाव के बीच
ए सी की सीली सीली सी हवा में
ये यादें पुरवाइयां भर जाती हैं...
वह पुराना घर
वह घेर का ओसारा
बकांद के पेड़ तले बनी
गाय की खोर।
वह चौमासे की टपकती रात में
बिन बारिश भी
घंटों बरसती छान।
बूढ़े बाबा की बुनी वह खाट
और उसके बान, पायतें
वह हुक्का-गुडगुडी-चिलम
और दहकते अंगारे।
कोल्हू की वह रात-रात भर चलती जोटें
ताजे गुड की महक और
खोई की भट्टी का वह धुंआधार अलाव।
कुंडीवाले कुएं पर तपती दुपहरी में
घंटों डुबकियां लगाना - नहाना
हरट के पतनाले की धार की गुलगुलियाँ,
वाह क्या खूब थी वह भी
हमारी जिंदादिल
चालीस साल पुरानी दुनियाँ।
अब पचास के चेहरे पर
सदाबहार तने तनाव के बीच
ए सी की सीली सीली सी हवा में
ये यादें पुरवाइयां भर जाती हैं...
- अजय मलिक
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