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Feb 18, 2025
राजभाषा नीति संबंधी यह पावरपॉइंट वीडियो शायद अनेक राजभाषा कर्मियों के लिए उपयोगी हो सकता है ..
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संघ की सरकारी राजभाषा का वैधानिक और व्यावहारिक पक्ष : -अजय मलिक “निंदित”
(यह एक पुराना आलेख है, शायद किसी को उपयोगी प्रतीत हो!)
संघ की सरकारी राजभाषा का वैधानिक और
व्यावहारिक पक्ष
-अजय मलिक “निंदित”
हमारा संविधान कब, कैसे और क्यों बना? हमारे संविधान के किसी भाग के किसी
अनुच्छेद में कोई प्रावधान विशेष क्यों
किया गया? हमारे
संविधान में की गई व्यवस्थाएँ अच्छी हैं या बुरी, सही हैं या सही नहीं हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिन्हें
जाने-अनजाने हर बहस
का मुद्दा बनाया जाता
है। पिछले पृष्ठों पर एक विश्लेषक की
दृष्टि से मैंने भी इन सब पर ख़ूब चर्चा की है। लेकिन जब तक विधि द्वारा कोई अन्य
व्यवस्था न हो जाए, एक
आम भारतीय नागरिक के नाते इन प्रश्नों
के उत्तरों की खोज में उलझने से कहीं बेहतर क्या यह स्वीकारना सही नहीं है कि हमने, हमारे पूर्वजों ने, हमारी व्यवस्था ने जो विधान हमें दिया है, वह सर्वोपरि है। उसका प्रत्येक
अनुच्छेद,
प्रत्येक पंक्ति और प्रत्येक शब्द 'विधि' अर्थात कानून है और कानून का पालन करना
हर नागरिक का
प्रथम कर्तव्य है? एक ऐसा कर्तव्य जो अगर थोपा हुआ भी प्रतीत होता है, तब भी विधि द्वारा अन्य कोई व्यवस्था किए जाने
तक उसका पालन करने से बचा नहीं जा सकता? सन 1950 से हमारा अपना विधान हमारे
पास है, जिसे स्वयं हम भारत के लोगों ने अपने लिए तैयार किया है।
संविधान में
समसामयिक आवश्यकताओं
के अनुरूप संशोधन आदि
के लिए हमारे लोकतान्त्रिक रूप से चुने गए जन
प्रतिनिधियों की सर्वोच्च सभा यानी हमारी संसद है। हमारे लिए, हमारे द्वारा दिए गए विधान में किसी बात, तथ्य या कथ्य का क्या मतलब है अर्थात्
संवैधानिक प्रावधानों का वास्तविक अभिप्राय क्या
है,
इसकी व्याख्या करने के लिए हमारा सर्वोच्च
न्यायालय है।
इन सब सरल दिखने
वाली बातों का
एहसास हम सबको है।
व्यवस्था ने हमें यानी समाज को विधान की सीमाओं में बाँधे रखने के लिए कार्यपालिका की स्पष्ट अवधारणा की है। अगर मैं उसी कार्यपालिका में सेवारत एक सेवक हूँ,
जिसे देश के प्रथम नागरिक के प्रसाद एवं
दिशा निर्देंशों के अनुरूप मेरे पद के लिए तय की गई सीमाओं में विधान का पालन करना और कराना है तो अपने मालिक यानी नियोक्ता से मैं जो
भी आदेश,
निदेश, निर्देश, सलाह अथवा मार्गदर्शन पाता हूँ, उन्हीं
के अनुरूप मैं अपनी
सीमाओं में ‘पेंडुलम’ की तरह गतिशील होने के लिए वचनबद्ध हूँ।
मैंने यह वचनबद्धता या बाध्यता देश के नागरिक के
नाते तथा सरकारी सेवक के नाते अपनी सेवा (वचनबद्धता) के बदले मिलने वाले वेतन के तहत स्वयं, स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव के स्वीकार की है। नियोक्ता ने मुझे नियुक्ति के लिए बाध्य नहीं
किया था बल्कि मैंने स्वयं नियोक्ता की सभी सेवा शर्तों को स्वेच्छा से स्वीकार
करते हुए नियुक्ति के लिए प्रार्थना की थी और नियोक्ता ने मेरी प्रार्थना को
स्वीकार करते हुए मुझे नियुक्ति का सौभाग्य प्रदान किया।
मैं अगर सेना का
सिपाही हूँ तो
देश की सीमाओं की
रक्षा हेतु लड़ना,
दुश्मन पर गोलियाँ
चलाना, दुश्मन का संहार करना और शहीद हो जाना मेरा
कर्तव्य है। अहिंसा इसमें कहीं आड़े नहीं आ सकती।
मैं यदि एक सर्जन हूँ तो नासूर को निकालना मेरा कर्तव्य है फिर इसके लिए चाहे चीर-फ़ाड़ ही क्यों न करनी पड़े। यदि मैं एक न्यायाधीश हूँ तो मेरा
कर्तव्य है कि निर्मम हत्यारे को मृत्युदंड का आदेश दूँ। यहाँ भी अहिंसा आड़े नहीं आती।
लेकिन समाज और व्यवस्था की अहिंसा की व्याख्या या परिभाषा मेरी वैयक्तिक व्याख्या से भिन्न हो
सकती है। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? क्या
मुझे अपनी अहिंसा की व्याख्या के अनुरूप दुश्मन पर गोली चलाने से इंकार कर कोर्ट मार्शल का सामना करना
चाहिए?
क्या न्यायाधीश के
रूप में मुझे निर्मम हत्यारे को फाँसी पर लटकाने
का आदेश न देकर पद त्याग कर भर्त्सना
का सामना/महाभियोग का सामना करना चाहिए? फिर
व्यवस्था जो चाहे
करे?
यहाँ माननीय गृह
मंत्री जी के प्रत्येक वर्ष हिंदी दिवस पर जारी संदेशों का उल्लेख आवश्यक है,
जिनमें लगातार केंद्र सरकार के सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों से आग्रह और अपील की
जाति है कि राजभाषा संबंधी हिंदी की तिमाही प्रगति रिपोर्टों में वास्तविक और तथ्यपरक
आंकड़े एवं सूचनाएँ ही दी जाएँ।
माननीय
गृह मंत्री जी चाहें तो “आग्रह” और “अपील” के स्थान पर संसद द्वारा
पारित संकल्प को यथार्थ रूप देने के लिए “निदेश” या “आदेश” जैसे शब्दों का प्रयोग करने
पर विचार कर सकते हैं।
यदि सरकार की नीतियों के कार्यान्वयन के लिए मुझे वेतन दिया जा रहा है,
यदि यह मेरा कर्तव्य है तो मेरे नियोक्ता को मुझसे आग्रह या अपील करने की भला क्या
आवश्यकता है? इतने पर भी अगर नियोक्ता
द्वारा आग्रह या अपील की जा रही है तो यह मेरे नियोक्ता की सहृदयता
का प्रमाण है, उनका बड़प्पन है और मुझे इस
बड़प्पन की गरिमा रखनी ही चाहिए।
दूसरी बात हिंदी के प्रगामी प्रयोग से
संबन्धित तिमाही रिपोर्टों के आंकड़ों की है। माननीय गृह मंत्री जी को यह
अपील करने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि इन रिपोर्टों में सही आंकड़े दिए जाएँ। क्या
इन रिपोर्टों में दिए जा रहे आंकड़ों में कोई त्रुटि है?
संविधान के
अनुच्छेद 343
(1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि
में लिखी गई ‘हिंदी’ है। संविधान के अनुच्छेद 345 के तहत अनुच्छेद 346 तथा 347 के प्रावधानों के अधीन विभिन्न राज्यों के विधान मंडलों द्वारा किए गए
उपबंधों के तहत उनकी अपनी-अपनी एक या
एकाधिक राजभाषाएँ हैं। तमिलनाडु की राजभाषा तमिल है। केरल की राजभाषाएँ मलयालम एवं अंग्रेज्री हैं। यही स्थिति
अन्य राज्यों की है। मैं वर्तमान में तमिलनाडु का निवासी हूँ। मैंने स्वेच्छा से
तमिलनाडु की
राजधानी में अपना घर
तलाशा है। अगर मुझे तमिल नहीं आती तो यह मेरी कमज़ोरी है। एक बहुत बड़ी कमज़ोरी, जिसे मुझे दूर करना चाहिए, किंतु स्वेच्छा से तमिलनाडु का निवासी बनने के बाद
क्या मुझे यह कहने का अधिकार है कि मुझ पर तमिल थोपी गई है।
मैं अगर केरल में
तैनात हूँ और मुझे मलयालम का ज्ञान नहीं है तो यह मेरी एक बड़ी व्यक्तिगत कमजोरी है किन्तु
केंद्रीय सरकार का कर्मचारी होने के कारण मुझे
मलयालम में काम नहीं करना पड़ता, क्योंकि हमारी व्यवस्था के विधान के अनुसार मुझे हिंदी या हिंदी के अतिरिक्त
एक निर्धारित सीमा में अँग्रेज़ी के प्रयोग
की छूट है। किंतु दफ्तर के बाहर यदि मुझे चपाती, तंदूरी रोटी या मक्के की रोटी और सरसों का साग
नहीं मिलता और चावल-सांबर-रसम या इडली-दोसा
खाकर ही मुझे काम चलाना पड़ता है तो यह विवशता व्यवस्था ने मुझ पर नहीं थोपी है बल्कि यह विवशता मैंने
स्वेच्छा से सरकारी सेवा के बदले वेतन हेतु
स्वयं स्वीकार की है। जिन सेवा-शर्तों के साथ मैंने नौकरी करना स्वीकार किया उनके तहत देश के किसी भी
हिस्से में सेवा करने का दायित्व मुझ
पर डाला जा सकता है। मैं अगर इसे स्वीकार न करते हुए त्यागपत्र देकर पलायन कर जाऊँगा तो कोई अन्य सरकारी
सेवक इसे स्वीकार करेगा। यदि मेरी सेवा शर्तें
संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं तो मुझे इसकी अपील की छूट है, किंतु ये सेवा शर्तें संविधान की मूल
भावना के वास्तव में कितनी विपरीत हैं; हैं भी अथवा नहीं, इसका निर्णय करने का अधिकार मेरा नहीं, बल्कि न्यायालय का है।
अपने लेख ‘संविधान में राजभाषा : सिंहावलोकन और विश्लेषण’ में श्री ब्रज किशोर शर्मा ने कहा है - ‘नियम-विनियम आदि अपने जनक अधिनियम के
अनुरूप हो सकते हैं,
प्रतिकूल नहीं। कार्यालय आदेश या ज्ञापन तो नियमों के
विरुद्ध भी नहीं जा सकते।’ इसका अर्थ यह है कि संविधान सर्वोपरि है।
अधिनियम संविधान का अतिक्रमण नहीं कर सकता।
नियम, विनियम आदि का आधार अधिनियम होता है।
प्रश्न यह है कि कार्यालय
आदेश या ज्ञापन
नियमों के विरुद्ध हैं अथवा नहीं, इसका निर्णय कैसे किया जाए? नियम आदि अधिनियम के प्रतिकूल हैं अथवा
नहीं इसकी व्याख्या या आख्या कहाँ
से प्राप्त की जाए?
अधिनियम, संविधान का अतिक्रमण करता है अथवा नहीं ; इसका निर्णय कौन करे ?
एक सरकारी
कर्मचारी के नाते मुझे
यदि किसी कार्यालय
आदेश में ‘नियम
विरुद्धता’
नज़र आती है तो मुझे इसे सक्षम अधिकारी
या प्राधिकारी के संज्ञान में लाना है। यदि फिर भी मुझे नियम विरुद्धता प्रतीत होती है तो मुझे
न्यायालय में अपील करनी है। सर्वोच्च अदालत की व्याख्या अंतिम और सर्वमान्य है। राजभाषा के
मामले से जुड़े कुछ निर्णय नीचे दिए जा रहे हैं-
उच्चतम न्यायालय के कुछ महत्वपूर्ण
निर्णय
भारत सरकार बनाम मुरोसोली मारन एवं
अन्य
(1977 AIR 225, 1977 SCR (2) 314, 1977 SCC (2) 416)
06 दिसंबर 1976 को भारत सरकार बनाम मुरासोली
मारन मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के
लिए हिंदी का प्रशिक्षण प्राप्त करने की अनिवार्यता विधिसम्मत है। यह प्रशिक्षण
कार्यालय समय में दिया जाता है और परीक्षा में पास होने पर पुरस्कार दिए जाते हैं, वेतन वृद्धि दी जाती है। परीक्षा में असफल
होने पर कोई दंड भी नहीं दिया जाता। अत: इस प्रशिक्षण की कक्षाओं में नियमित
उपस्थिति, परीक्षाओं में भाग लेने की
अनिवार्यता का होना असंवैधानिक नहीं है। निर्णय में बताया गया था कि सरकारी
कर्मचारियों के हिंदी सीख लेने पर अतिरिक्त अर्हता प्रदान करना अनुच्छेद 351 का
उल्लंघन नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों के हिंदी प्रशिक्षण से
संबंधित राष्ट्रपति के 1960
के आदेशों तथा इससे संबंधित
अन्य सभी आदेशों को सही ठहराते हुए बहाल कर दिया। इस आदेश में माननीय उच्चतम
न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 254, 343, 344, 349 और 351 पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। इसी के साथ राजभाषा
(ओं) के अधिनियम, 1963 (यथासंशोधित-1967) की वैधता को
भी स्थापित किया है।
मिथिलेश कुमार बनाम भारत सरकार एवं
अन्य
(CIVIL APPEAL NO. 4472 OF 2013; निर्णय की तिथि: 01-05-2013)
मुंबई कैट
(केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण) और मुंबई उच्च न्यायालय के फैसलों को पलटते हुए देश
की सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदी में आरोप पत्र पाने के अधिकार पर ऐतिहासिक फैसला
दिया। यह मामला मुम्बई के एक नौ सेना
कर्मी मिथिलेश कुमार का था, जिसे उच्चाधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार व उनका आदेश न
मानने पर एक आरोप पत्र दिया गया था। नौ सेना कर्मी ने राजभाषा (ओं के) नियम 1976
के नियम -7 के तहत हिंदी भाषा में आरोप पत्र की मांग की थी। जिसे उनके विभाग ने ठुकरा
दिया। उन्होंने विभागीय जाँच में भाग नहीं लिया और विभाग ने नौ सेना कर्मचारी पर
कार्यवाही कर सजा के रूप में उसके वेतनमान में कटौती कर दी। जिसे नौ सेना कर्मचारी
ने आरोप पत्र हिंदी में न मिलने के कारण को आधार बनाते हुए विभागीय जाँच को रद्द
करने की माँग की। माननीय उच्चतम न्यायालय ने सरकार की इस दलील को ठुकरा दिया कि
याचिकाकर्ता अँग्रेज़ी जानता है तथा अँग्रेज़ी विषय के साथ स्नातक है, इसलिए उसे
हिंदी में आरोप-पत्र आदि देने की आवश्यकता नहीं है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने
अपने आदेश में कहा कि संसद द्वारा विधिवत पारित राजभाषा नियम 1976 के प्रावधान
सरकार के लिए भी बाध्यकारी हैं। अत: नियम 7 के तहत वादी को हिंदी में आरोप पत्र
मांगने का तथा सम्पूर्ण अनुशासनिक कार्रवाई में हिंदी के प्रयोग की मांग करने का
पूरा अधिकार है। राजभाषा (ओं के) नियमों के अनुरूप सरकार को वादी की मांग
स्वीकारनी ही चाहिए थी। न्यायालय ने अँग्रेज़ी में जारी आरोप पत्र तथा उसके आधार
पर की अँग्रेज़ी में की गई समस्त कार्रवाई और दी गई सज़ा को असंवैधानिक घोषित करते
हुए निरस्त कर दिया तथा आदेश दिया कि सरकार यदि चाहे तो पुन: हिंदी में आरोप पत्र
देकर कार्रवाई शुरू कर सकती है।
केरल उच्च न्यायालय का निर्णय
केरल राज्य सरकार ने दिनांक 12.3.1987 को कुछ विभागों में सभी सरकारी पत्राचार
मलयालम में किए जाने का आदेश जारी किया।
श्री के. एम. राघवन,
चिट्टी इंस्पेक्टर ने
इस आदेश को यह कहकर मानने
से इंकार कर दिया कि
संविधान अथवा विधि द्वारा बनाया गया कोई कानून सरकार को केवल मलयालम को राजभाषा बनाने की
शक्तियाँ प्रदान नहीं करता ।
इस मामले में केरल
उच्च न्यायालय
ने अपने दिनांक 17.8.1998 के निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 345 की व्याख्या करते हुए कहा कि केरल राजभाषा
अधिनियम 1969
( यथा संशोधित 1973) की धारा- 1 (क) के अनुसार मलयालम एवं अँग्रेज़ी
दोनों भाषाओं का प्रयोग
सरकारी प्रयोजनों के
लिए किया जा सकता है। किंतु धारा-1 (ख)
में सरकार को
सरकारी प्रयोजनों के
लिए मलयालम या अँग्रेज़ी भाषा के प्रयोग हेतु अधिसूचना जारी करने की शक्तियाँ भी प्राप्त हैं।
साथ ही सरकारी प्रयोजनों के लिए अँग्रेज़ी
भाषा के प्रयोग को जारी रखने के विधान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 345 में किसी राज्य को सरकारी प्रयोजनों के लिए अँग्रेज़ी भाषा के प्रयोग को जारी
रखने की आवश्यकता तभी तक है, जब तक कि विधि
द्वारा राज्य विधान मंडल द्वारा अन्य कोई व्यवस्था नहीं की जाती। राज्य विधान मंडल को हिंदी अथवा अँग्रेज़ी
के अतिरिक्त किसी
अन्य भाषा के राजभाषा के रूप में प्रयोग हेतु कानून
बनाने की शक्तियाँ प्राप्त हैं। अतः वादी
का यह तर्क सही नहीं है कि सरकारी अधिसूचना के अनुक्रम में कुछ विभागों में सभी पत्राचार मलयालम में
किए जाने संबंधी आदेश के बाद भी अँग्रेज़ी
का प्रयोग सरकारी प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है।
माननीय केरल उच्च
न्यायालय ने के. एम. राघवन बनाम केरल राज्य सरकार
मामले में दि. 17-08-1998 का आदेश (ओ. पी. नं0 13344/1998 L) सरकारी प्रयोजनों के लिए राजभाषा के
प्रयोग का विरोध करने से जुड़े
मामले का निपटाया करते हुए कहा –
“The petitioner as a
duty bound government servant is bound to obey the orders of superior officers
which are quite consistent with the law of the land. It is not a case where the
superior officers issued instructions without any jurisdiction or inconsistent
with any of the law or of the constitution as wrongly contended by the
petitioner. When the government takes a policy decision to use Malayalam as
official language and in that direction takes necessary steps for the use of
Malayalam language in certain departments, the petitioner cannot contend that
he is not bound by such a decision. If such an argument is accepted as correct
every officer will be justified in defying the instructions of superior officer
stating that the policy decision of the government is wrong or unsustainable.
The petitioner cannot act in such a manner derogatory of his status as a
government servant. Under these circumstances, I do not find any justification
to interfere with the order of suspension. The original petition is, therefore,
dismissed.”
राजस्थान उच्च न्यायालय का निर्णय
इसी क्रम में राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर खंडपीठ के वरुण
पंडित बनाम भारत सरकार एवं अन्य के मामले
में दि. 06.05.2005 को दिए गए निर्णय पर चर्चा करना
प्रासांगिक होगा
। इस निर्णय के
अनुसार सभी राष्ट्रीयकृत बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं को द्विभाषी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण/साफ़्टवेयर
का प्रयोग करना है। उपर्युक्त निर्णय
के आधार पर सरकार ने आदेश जारी किए कि सभी मंत्रालय/विभाग एवं उनके अधीनस्थ कार्यालय, उपक्रम आदि सुनिश्चित करें कि उनके सभी
कार्यालयों में
उपयोग किए जाने वाले
सभी कंप्यूटर्स एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण/साफ्टवेयर द्विभाषी हों जिनमें हिंदी में काम करने
की सुविधा हो। इस मामले में अवमानना
याचिका भी दायर हुई और अंतत: उच्चतम न्यायालय ने मामले का निपटारा इस आदेश के साथ किया कि ‘जहाँ फिजिबिलिटी है वहाँ इलेक्ट्रानिक
उपकरणों में
द्विभाषिकता
सुनिश्चित की जाए’। उल्लेखनीय है कि आधुनिक सभी कंप्यूटर्स में बहुभाषिकता की “फिजिबिलिटी” है।
अन्य अदालती आदेश
एक अन्य निर्णय केंद्रीय प्रशासनिक
अधिकरण, गुवाहाटी ने दि. 13.6.2006 को जितेन्द्र कुमार सिंह एवं अन्य
बनाम भारत सरकार के मामले में सुनाया है, जिसमें स्थानीय भाषा के ज्ञान की
व्याख्या की गई है। उक्त निर्णय में वादी ने लम्बे समय तक नागालैंड में रहने तथा
इंटरमीडिएट के बाद नागालैंड में ही अपनी शिक्षा पूरी करने के आधार पर स्थानीय भाषा
का ज्ञान होने का दावा किया था। जिस पद के लिए दावा किया गया था, उस पद हेतु
अर्हताओं में दसवीं तक एक विषय के रूप में स्थानीय भाषा के अध्ययन को स्थानीय भाषा
का कार्यसाधक ज्ञान होने का आधार माना गया था। कैट ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा
कि वादियों को स्थानीय भाषा का ज्ञान नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी पढाई एक विषय
के रूंप में स्थानीय भाषा लेकर पूरी नहीं की है।
‘दलवी
बनाम तमिलनाडु राज्य’ मामले
में उच्चतम न्यायालय के 1976 के निर्णय पर भी नज्रर डाली जानी चाहिए जिसमें
संवैधानिक प्रावधानों के विरोध करने पर सरकारी सुविधाएँ दिए जाने को त्रुटिपूर्ण
बताया गया था।
यहाँ ध्यान देने की
बात यह है कि केंदीय सरकार के लगभग 32 लाख कर्मचारियों को हिंदी सिखाने से कोई बड़ा
अंतर आने वाला नहीं है, क्योंकि देश की कुल 125 करोड़ की
आबादी में इन कर्मचारियों का प्रतिशत मात्र 0.25 है और इनमें सभी हिंदीतर भाषी
नहीं हैं। यदि इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लगभग 26 लाख कर्मचारियों
तथा अर्द्ध सरकारी उपक्रमों के 23-24 लाख
कर्मचारियों को भी जोड़ लिया जाए तब भी यह संख्या 82 लाख अर्थात् देश की कुल आबादी
का मात्र 0.65 प्रतिशत ही है।
वर्ष 1952 से दिसंबर
2022 तक 71 वर्षों में हिंदी शिक्षण योजना द्वारा लगभग सोलह लाख कर्मचारियों को हिंदी भाषा का प्रशिक्षण
दिया है। प्रशिक्षण के ये आंकड़े ऐसे हैं, जिन्हें आसानी से 5 या 6 लाख पर लाया जा
सकता है, क्योंकि ये कुल तीन भाषा पाठ्यक्रमों के लिए अलग-अलग रजिस्टर में नाम
लिखने वाले कार्मिकों के आंकड़े हैं। इनमें से कितनों ने वास्तव में परीक्षाएँ
उत्तीर्ण की हैं, इसका विवरण दे पाना कठिन है। विवाद
के मूल में हमेशा इन्हीं 5 या 6 लाख के लगभग सरकारी कर्मचारियों को रखकर राजनैतिक
दाँव खेले जाते रहे हैं और अँग्रेज़ी के ज़रिए अँग्रेज़ों के बाद शासन कर रहे अँग्रेज़ीदाँ
समर्थक प्रशासकों ने आम जनता को सदैव भ्रमित किया है।
भाषा के नाम पर अधिकांश राजनीति, अँग्रेज़ी का समर्थन और हिंदी का विरोध
केंद्रीय सरकार के कार्यालयों और उनमें कार्यरत भारत की कुल आबादी के 0.25 प्रतिशत
या कि अधिकतम 0.65 प्रतिशत को केंद्र बिंदु मानकर किया जाता रहा है, जबकि यह वर्ग
ऐसा है, जो अँग्रेज़ी की मानसिकता के विकास में शायद सहायक हो, मगर हिंदी सहित
भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार को बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं करता। इसका कारण
बिल्कुल स्पष्ट है - यह वर्ग आम जनता से अधिक केवल केंद्रीय सरकारी कर्मचारी वर्ग
के आंतरिक क्रियाकलापों तक ही हिंदी का अधिक प्रचार-प्रसार करता है। महाराष्ट्र और
गुजरात राज्य सरकारों की केंद्रीय सरकार के साथ पहले से ही हिंदी में पत्राचार पर
सहमति है। शेष “ग” क्षेत्र में स्थित राज्यों और उनके निवासियों के साथ यह वर्ग
केवल अँग्रेज़ी में पत्राचार के लिए कानूनी रूप से बाध्य है। हिंदीतर भाषियों पर
हिंदी थोपने की परिकल्पना वस्तुत: अँग्रेज़ी को थोपे रखने की वैधानिकता भर है।
उच्चतम न्यायालय की
संविधान पीठ ने 'प्रदीप जैन बनाम भारतीय संघ’ मामले में सरकार की विफलता और राजनीतिक फायदे
के लिए नागरिकों के बीच क्षेत्रीय और संकीर्ण भावनाओं के प्रोत्साहन के पहलू को इस
प्रकार रेखांकित किया है - 'आज हम पाते हैं कि देश की अखंडता को
क्षेत्रवाद, भाषाई और सांप्रदायिकता जैसी
विभाजनकारी ताकतों से ख़तरा है और सांप्रदायिक वफ़ादारी राष्ट्रीय जीवन में
प्रभुत्व पाती जा रही है,
जो राष्ट्रीय अखंडता को
नष्ट कर रही है। हम भूलते जा रहे हैं कि भारत एक देश
है और हम सभी भारतीय पहले हैं और अंत तक भारतीय ही हैं। यह खुद को याद दिलाने का समय है कि महान
दूरदर्शी और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - 'यदि भारत जीवित रहेगा तो कौन मरेगा और यदि
भारत मरेगा तो कौन जीवित रहेगा?’
इस बात को हमें अवश्य
महसूस करना चाहिए और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन के कई लोग इसे
कभी-कभी इतिहास की अज्ञानता के कारण और कभी-कभी जान बूझकर स्वार्थ को बढ़ावा देने
के लिए नज़रंदाज़ करते रहते हैं। क्षेत्रीय, भाषाई और सांप्रदायिकता के आधारों के बजाय राष्ट्रहित अनिवार्य रूप
से और हमेशा के लिए प्रबल होना चाहिए।’ (एआईआर
1984 एससी 1420, पैरा1)
अंत में मैं बस इतना
ही कि जिन वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने का अधिकार, उन प्रावधानों को बनाने वाली हमारी संसद को भी नहीं है, उनकी व्याख्या करने की छूट किसी को भी नहीं
है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई परिभाषाएँ और व्याख्याएँ स्वीकारने का
दायित्व और बाध्यताएँ हर भारतीय नागरिक के लिए हैं। हमारा, हम भारत के लोगों का यह परम कर्तव्य भी है कि जो विधान हमने
स्वयं अपने लिए दिया है, उसका सम्मान करें और न्यायालयों के निर्णयों का सम्पूर्ण
रूप से पालन करें।
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अजय मलिक”निंदित”
9, दुर्गा अपार्टमेंटस, 1- गांधी स्ट्रीट,
कानगम, तरमानी, चेन्नै -600113
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