May 18, 2020

वो नौ-दो ग्यारह के नौ दिन-3

हम लोग तो अच्छे से खड़ी करके आए थे, मगर   ....
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उस दिन ताजमहल देखने के बाद थकान से पूरा शरीर मालगाड़ी के कोयले के खुले डिब्बे जैसा हो गया था, जिसमें से जो जब और जितना चाहे कोयला चुरा सकता है। रात गुजारने का कोई साधन नहीं था। हमारे लिए होटल का मतलब ढाबे तक सीमित थाजिसे संस्कारी लोग तब भी रेस्तराँ या रेस्टोरेन्ट कहते थे। 

हम ये पूरी ईमानदारी से खुलेआम स्वीकारते हैं कि हम बिलकुल भी ये नहीं जानते थे कि ढाबे को होटल कहना ठीक उसी तरह होता है जैसे कि भद्र जन एक दूसरे की बखिया उधेड़ने से पहले अत्यंत सम्मानपूर्वक कहते हैं- "देखिए, मैं केवल संसदीय भाषा का ही प्रयोग कर सकता हूँ इसलिए बाइज्जत मैं (आपकी बेइज्जती करते हुए) ये कहना चाहूँगा कि आपने कुकर्म किया है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ परंतु यह संभावना तो आप भी मानेंगे कि ऐसा करने वाला कोई भी हो सकता है...आप भी हो सकते हैं और... मेरे कहने का अभिप्राय: यह बिलकुल नहीं है कि वे आप थे याकि नहीं थे... कोई भी हो सकता है और कोई में आप शामिल नहीं हैं ऐसा नहीं माना जा सकता हैलेकिन मैं... आप ही थे यह कह कर आपको शर्मिंदा नहीं करना चाहता हूँ। मैं तो यही कहूँगा कि जिसने भी किया वह होटल में था या ढाबे में था..." 

कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमें होटल शब्द का जितना अर्थादि पता था, वह परवासी मजदूरों की तरह मात्र कसबाई था । यह शब्द हमारे तहसीली शहर में जिन खुले ढाबों के बाहर लिखा होता था, वहाँ बाहर से ही पीतल के बड़े-बड़े भगोने दिखाई देते थे। उस जमाने में मांसाहारी लिखने से अधिकांश होटल मालिक परहेज करते थे, क्योंकि उन्हें शायद मालूम होता था कि जिसे वे होटल लिखवा रहे हैं, वह होटल नहीं, बल्कि छोटे शहर में बना हुआ नमीयुक्त अति कोमल प्राकृतिक कालीन के कभी-कभार गोबर लिपे कच्चे फर्श से सुशोभित ढाबा मात्र है, जहां रेलवाई से थोड़ी सी अधिक गरम चाय, भरपूर सडे हुए महीनों से उबल रहे अज्ञात ब्रांड के किसी तैलीय पदार्थ में दिल खोलकर तले गए समोसे, कुछ दाल-वाल और रोटी-तरकारी वगैरा की सीमित उपलब्धता के साथ-साथ धुंधलके के बाद बोरी के टाट के परदे के पीछे पूर्णत: स्वदेशी माल थैली में अनुकंपा के आधार पर आपकी दयनीय दशा की पुष्टि होने के बाद प्राप्य है, बस...बहुत ज्यादा अप्राप्यों की अपेक्षा कृपया खुलेआम न करें।


...आज भी हमारे देहाती लोग होटल के इसी अभिप्राय: के साथ धड़ल्ले से जी रहे हैं।

दूसरे प्रकार के होटल जिन्हें सराय से लेकर लॉज, प्रथम, द्वितीय, थ्री, फोर या पंचतारा आदि कहा जाता है और जिनके साथ अब डीलक्स वीलेक्स जैसे और भी कई विशेषण जुडने लगे हैं, गाँव के  सभी सभ्य जनों के लिए वर्जित की श्रेणी में आते थे... यह मानने की परंपरा उस वक्त गौरवान्वित करने वाली थी कि हम गाँव के अनपढ़ देहाती, उन पढे-लिखे शहरियों से कहीं अच्छे हैं, जो बेलबॉटम और अलसेशन कुत्ते के कॉलर वाली कमीज पहनते हैं और ऊपर वाले होटलों में जाते हैं। कुल जमा ढाबे से इतर अर्थ वाले होटलों में जाना वाहियात किस्म के होने का अकाट्य प्रमाण माना जाता था और इसमें किसी तरह के शक-सबाह का सवाल ही नहीं उठता था कि होटल में जाकर रुकने वाला आदमी अच्छा भी हो सकता है       

किसी गली के नुक्कड़ परशायद किसी होटल में हमने सवा रुपए की चार रोटी के साथ एक दाल और दो सब्जी मुफ्त वाली थाली से पेट पूजा की थी। होटल वाले ने सलाद के लिए पूछा था या नहीं ...पता नहीं। तब हमारे लिए सलाद कोई मायने नहीं रखता थाहमारे अल्प विकसित दिमागी शब्दकोश के लिए वह नया शब्द रहा होगा ... भोजन के साथ दाल, रोटी और सब्जी से इतर जिसे हम जानते-समझते थे वह सिर्फ प्याज थी, जिसे प्रवासी मजदूर रह चुके अनुभवी लोग कांदा कहकर अपनी श्रेष्ठता का परिचय देने से बाज नहीं आते थे...उन्होंने विभाजन की त्रासदी झेली नहीं थी और कोरोना के दौर में किसी संभावित लॉकडाउन में पैदल घिसटने के वीडियो वगैरा बनाकर टीवी चैनलों पर राजनीति का गरम मसाला बनाए जाने की कल्पना वे कर नहीं सकते थे। वह प्याज जो गाँव में करेले की सब्जी में बहुतायत से डाली जाती थी और अकसर माँ जिसकी आधी गँठी को दराँत से चीर-भाड़ कर सरसों के तेल में जलाकर कुछ छोंकने-वोंकने में इस्तेमाल करती थी, तब तक राजनैतिक कतर-ब्यौत के लिए उपयुक्त नहीं समझी जा सकी थी। 

हम तब तक सलाद में प्याज की करिने से गोल-गोल काटी गई कतलियों की संकल्पना तक नहीं पहुंच सके थे। घर में साग-सब्जी की कटाई का एकमात्र वैज्ञानिक उपकरण दराँत हुआ करता था...बड़े उपकरण के रूप में न्यार (चारा) काटने की मशीन होती थी। चाकू जिसे प्यार और दर के मिश्रित भाव के साथ चक्कू या छुरा कहकर पुकारा जाता था, या तो घर में होता नहीं था या फिर खोटा जंग वंग लगा होता था। गंडासे, बल्लम (भाले) वगैरा का प्याज व्याज से कोई संबंध नहीं होता था, इसलिए उसकी चर्चा यहाँ अनावश्यक कहलाएगी। 

... तो हमारे लिए प्याज की गँठी काटने की बजाय मुक्का मारकर फोड़ने की चीज हुआ करती थी, जिसके साथ हम उपले की आंच में सेंकी गईं सख्त करारी मोटी-मोटी घी से चुपड़ी नमकीन रोटियाँ बेहद चाव से खाने के अभ्यस्त थे। आज भी यह हमारे लिए सबसे लजीज खाना है... सन् 2014 में हैदराबाद में एक तथाकथित मित्र ने एक दिन अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने और हमारे इस प्रिय पकवान को परोसने का पक्का वादा किया था... उसके बाद उसका वादा तो "वादा तेरा वादा" की तर्ज़ पर सेटेलाइट के साथ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कर दिया गया और अर्धमित्र खुद किसी माल्या की तरह वादे के कर्ज़ से आहत होकर विदेश भाग गया...

अब किसी ब्रिटेन, अमेरिका या सिंगापूर-विंगापुर की अदालत में प्याज की दो गँठी और चूल्हाजली दो मोटी रोटियों के लिए मुकदमा तो नहीं चलाया जा सकता है ना ...

उस रात्रिभोज के बाद हमने अपनी-अपनी अटैचियाँ उठाकर आगे का कार्यक्रम तय किया था। हम लोग किसी तरह बेहोश होने से खुद को बचाते हुए सोने की जुगत में थे। यह निद्राग्नि हमें बार-बार बेहोश करने का भरपूर प्रयास करती और हम उसे मरे मन से डांट-फटकार देते । 

उस जमाने में भी आगरा सिर्फ किसी गली के नुक्कड़ तक सीमित नहीं था। 

आगरा में तब भी ताजमहल और लालकिले के अलावा बहुत सारी सड़केंबहुत सारे बाजार और सैंकड़ों गलियां हुआ करती थीं। इन्हीं गलियों में से किसी अज्ञात गली के नुक्कड़ पर किसी होटल में हमने खाना खाया था। कौन जानता था कि उसी आगरा में एक दिन बहुत सारे सठियाए 
और गैर सठियाए मित्र होंगे और वे हमें उनसठिया जाने मात्र के आधार पर किसी गली के नुक्कड़ वाले होटल में पुरानी थाली भी नहीं खाने देंगे। अब उन थालियों के साथ सवा रुपए की चार रोटियाँ कहने का जोखिम भी कोई भला क्या उठाएगा...

माना कि अब हम बुढ़ाने के कगार पर हैं और अगर हम शराफत से अपने बच्चों की बात मान लेंजिन्हें हमारे द्वारा उन्हें बच्चा कहकर पुकारा जाना असहनीय होने लगा है, तो हम कब के बुढ़ापे की कब्र में गिर चुके हैं... वैसे घर में यह भी विवाद का एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि हम बच्चों को बड़ा देखते तो हैं पर मानते नहींक्योंकि तब हमें स्वयं को निर्विवाद रूप से बूढ़ा मानना होगा...। 

सच मानिएघुटनों में चाहे कितना ही असहनीय दर्द क्यों न होने लगा हो, मूछों की सफेदी रिन कि सफेदी कि चमकार और घरेलू भोजन पकाऊ गैस सिलेंडर वाली उज्जवला योजना को मात क्यों न देने लगी हो, मगर हम जब खुद को दर्पण कि बजाय अपने मन के शीशे में निहारते-देखते हैं तो आज भी वहीं पंद्रह साल का लौंडा लाढ़ि से खात लांघता ही ही दिखाई पड़ता है, 
वह लौंडा, जो अपने से बड़े दोस्त को लेकर उसी की खटारा साइकिल पर बिठाकर बंबई के लिए भाग गया थाजिसकी तब दाढ़ी मूंछे तक नहीं निकली थीं। 

भागते रहने की वह क्रम पूरे प्रवाह के साथ आज 
भी बददस्तूर जारी है...

तब हमारे लिए मिल के पत्थर, रास्ता याद रखने के साधन भी सिनेमाघर हुआ कराते थे। उस दिन अपनी समझ के अनुसार कहीं (?) पहुँचने के लिए रास्ता पूछने का सही तरीका यह पूछना ही समझ आया था कि आस-पास यदि कोई सिनेमा घर है तो किधर है और कितनी दूरी पर है? किसी से पूछा था- सिनेमा कितनी दूर है!! हमें न किसी सिनेमा का नाम मालूम था ही उसके आसपास की किसी गली का...

जब पूछा, तो बताने वाले ने भी पूछा कि कौन सा सिनेमा चाहिए ... बताने वाले को हमने बताया कि जो भी सबसे पास में हो... जवाब मिला – सीधे आगे बढ़ते जाइए...आ जाएगा यानी कि अगर हम चलेंगे तो पहुँच ही जाएंगे।

हम चले थे और पहुँच भी गए थे। 

शायद एक रूप चालीस पैसे के टिकट के साथ हमने सिनेमा में प्रवेश किया था। यह बताने की बहुत आवश्यकता नहीं है कि उस जमाने में केवल बड़े शहरों के प्रसिद्ध सिनेमा घरों को छोड़कर अन्यत्र एसी तो क्या कूलर भी नहीं हुआ करते थे...

सिनेमा हाल तब तक थियेटर या मल्टीप्लेक्स नहीं बने थे। 

बालकनी को छोड़ शेष हाल में दीवारों पर लगे पंखों की खड़खड़ाहट भरी कराहटें डीडीएस यानी डोल्बी डिजिटल साउंड को मात देने वाली हुआ करती थीं। कितनी ठंडी हवा होती थी उन बिजली के फड़फड़ाते थके हारे पंखों की...बेचारे बारह-तेरह घंटे लगातार घिसता कराते थे... यदि कोई आसरा था तो बिजली भाग जाने का... जेनरेटर स्टार्ट होने में जितनी देर लगती उतनी देर वे सुकून पा लेते थे । उन पंखों की फख-फख हवा में सारा का सारा पसीना वाष्पित होने के बाद चिपचिपाहटयुक्त एक नए सांद्रित द्रव के रूप में परिवर्तित हो जाता था...यह नया द्रव खुजली के लिए बड़ा उर्वरक होता था।   


वातानुकूलन हमारे अनुकूल नहीं था...इसलिए यह विद्या तब तक हमारी दसवीं तक की किताबों में दर्ज़ नहीं हुआ करती थी। बाद में पता चला कि बारहवीं से चौदहवीं-पंद्रहवीं की पुस्तकें भी वातानुकूलन संबंधी कोरोना आदि के प्रदूषण से मुक्त थीं...हम उस जमाने से ही कोरोना तो क्या हर प्रकार के रोने-धोने के साथ जीना सीख चुके थे... न हम कहीं गए, न हमारा रोना धोना गया... शायद हमारे उस रोने धोने का ही कोई परिष्कृत रूप कोरोना के नाम से संकर (हाइब्रिड) होकर विकसित हुआ होगा...

अब हमें इस उनसठियाए बुढ़ापे में, जिसे कभी हम बचपन में तो मानते थे मगर अब नहीं मानते...कहा जा रहा है कि कोरोना जाने वाला नहीं है...उसके साथ जीना सीखना होगा। अब हम इन विद्वजनों को शोले के अग्रेज़ों के जमाने के जेलर असरानी की तरह कैसे समझाएँ कि हम जानते हैं, जानते हैं, जानते हैं... जब विश्वविख्यात महाप्रदूषित वायुमंडल के बावजूद दशकों से हमारा रोना-धोना नहीं गया तो ससुरा कोरोना भला चीज़ क्या है - जो चला जाएगा !!

कोरोना के भारत से जाने के लिए चीन से अधिक मुफीद जगह दूसरी नहीं हो सकती थी... भरपूर आबादी के साथ... मगर चीन ने ही तो सारी दुनिया को रुलाने के लिए बेचारे को प्रयोगशाला की परखनलीनुमा बोतल से निकाल कर भगाया था...

हम भारतीयों के लिए हर आयातित (इम्पोर्टेड)माल स्टेटस सिंबल यानी रोब गाँठने की चीज होता है तो कोरोना जैसे इंपोर्टेड वायरस से संक्रमित होना भी भविष्य स्टेटस सिंबल साबित होगा... आज से बीस साल बाद धारावी की झोपड़पट्टी में बरसों तक भुस की तरह भरा रहने वाला प्रवासी मजदूर कोरोना काल में लुकछिपकर जब भागा था तो कैसे सड़क और पगडंडियों से गुजरते हुए वह गाँव पहुंचा था... और गाँव वालों ने कितनी आत्मीयता से उसे गाँव के बाहर सूखे के पेड़ के नीचे हफ्तों तक  धूप में क्वाररंटाइन होने पर मजबूर कर दिया था... प्रवासी मजदूर अगली पीढ़ियों को कोरोना के किस्से सुनाकर कितना तो रोमांच पैदा कर पाएगा...!      

भागने के समय तक यानि भगोदाकाल में हम 'बीजने" के बाद फिल्मों के चक्कर में पड़कर बड़ी मुश्किल से बिजली के पंखे मात्र को ही जान पाए थेजो सिर्फ सिनेमाघरों में होते थे।

हमारे गाँव में बिजली थी नहीं , लेकिन बताते हैं कि हमारे खटारा साइकिल से भागने से बीसेक बरस पहले बिजली के खंबे गाँव से होकर कहीं ले जाए गए थे...। कहाँ ले जाए गए थे और फिर कहाँ गाड़े गए थे; ये तो अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में हमारे बुजुर्ग भी नहीं जान पाए थे। बताते हैं, कुछ साल तक बिजली के बिल जरूर आते रहे थेजिन्हें भरने-वरने का  झंझट किसी ने नहीं उठाया थ। उसके बाद बिजली विभाग भी परिपक्व हो गया था और उसने बिल भेजने बंद कर दिए थे।

कागजों में गाँव शायद बिजली की रोशनी से चकाचौंध हो चुका था इसलिए जब तक हम गाँव में रहे... खटारा पर भागने से पहले भी और बाद में भी... गाँव में बिजली भेजने या मंगाने की तकलीफ किसी ने नहीं उठाई ...

साइकिल पर भागने से पूर्व पिताजी की ड्यूटी पीले क्वाटर्स में लगाई गई थी और जब उन्हें रात की ड्यूटी के कारण वहाँ रुकने की आवश्यकता होती थी तो वे “नौ बटा पंद्रह में डेरा डाल देते थे। फिर उस सवा कमरे के क्वाटर में एक पुरानी खाट और एक मग्गे के साथ दो बाल्टियों का शुभ आगमन भी हो गया था। सवा कमराई सोलह सोलह क्वाटर की दो मंज़िला इमारतों के बीच पड़ी कई बीघा खाली जगह थी। जिसमें पार्क बनने की कागजी कार्रवाई पूरी हो चुकी थी इसलिए उसमें दो कोनों पर नगरपालिका ने बिना टोंटी के नल लगा दिए थे।

नलों में समय-बेसमय भरपूर पानी आता था। लोग अपनी जरूरत के हिसाब से दो-चार बाल्टियाँ भरकर ले जाते थे। बाकी का पानी घास को नरम रखने और नल के आस-पास स्वेच्छा से विकसित होते कीचड़ के काम आ जाता था। यदा-कदा कुछ लोग धुंधलके में वृहद स्नान का आनंद भी वहाँ ले लेते थे

आगरा के उस सिनेमाघर, जिसका नाम अब याद नहीं और ऐसा कोई सोफ्टवेयर भी उपलब्ध नहीं जो दिमागी हार्ड डिस्क की विस्मृत हो चुकी फाइलों को रिकवर यानी खंगालकर ताजा कर सके। मस्तिष्क के तहख़ानों में जो फ़ाइल हैं, वे सूचना प्रोद्योगिकी के शब्दों में क्रप्ट फाइले हैंमगर उस देश में भी जहां भ्रष्टाचार आम बात माना जाता है, हमने इन्हें भ्रष्ट नहीं होने दिया है। तो चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था' की तर्ज़ पर सड़क के किनारे चलते हुए मिल गए उस सिनेमाघर में उस दिन फिल्म दिखाई जा रही थी आँधी जिस पर बाद में पाबंदी भी लगाई गई थी।

भाग कर लौटने के बाद शुरू-शुरू में तो हमें यही लगा था कि फिल्म हमने देख ली थी इसलिए बैन हुईलेकिन बहुत बाद में किसी समझदार ने समझाया कि पाबंदी के वास्तविक कारण विशुद्ध राजनैतिक थे। तब हम ये भी समझ गए थे कि इस राजनैतिक शब्द का हमसे इस या उस जन्म का कोई न कोई संबंध जरूर थाक्योंकि आँधी पर पाबंदी हमारे द्वारा नाइट शो के फिल्म के टिकटों का इस्तेमाल करने के कई महीने बाद लगी थी।

पाबंदी लगाने वाले शायद फिल्म के प्रदर्शन के समय हमारे पीछे बैठकर हमारा बिना खर्राटों का सोना और संजीव कुमार का अभिनय एक साथ देख रहे थे... वे पूरी तरह निश्चिंत थे कि फिल्म में सुचित्रा सेन का किसी तत्कालीन राजनीतिज्ञ से मेल खाने वाला चेहरा और किरदार वे और बाकी के दर्शक ही देख पाए थे। हमें वह सब न देखने देने के लिए ही फिल्म बैन हुई थी ...

क्योंकि हम दोनों तो मशीन छाप बीड़ी के धुए से निरंतर पूरी तरह निशुल्क सेनेटाइज़/कीटाणुमुक्त होती बिजली के पंखे की हवा जैसी अदृश्य चीज़ में पूरी मस्ती से सो रहे थे इसलिए हमने पूरी फिल्म में सोने से पहले और जगाने के बाद क्रमश: सिर्फ एक हेलीकाप्टर को उतरते और उड़ान भरते देखा था। इतना भर देखने से हम न तो हेलीकाप्टर के पायलट बन सकते थेना ही किसी सरकार के लिए खतरा... हम दुबारा आँधी न देख पाएँ इसलिए राजनैतिक कारणों से फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी।

बाद में   जाने कितनी बार वीसीआर पर हम सुचित्रा सेन के साथ ही हेलिकॉप्टर वाली आंधी में उड़े और अब भी यदाकदा तेरे बिना जिंदगी से शिकवा तो नहीं... के दृश्यों के साथ कुछ बिछुड़े पलों के की यादों की उड़ान में खो जाते हैं ... 

गुलजार साहब का साक्षात्कार करने का तब तो ख्याल तक भी नहीं हो सकता था... चिकने चमकते भोले भाले चेहरे के साथ हमें हीरो यानी एक्टर बनने का ख्वाब ही अकसर आता था...

बंबई जाने की बजाय आगरा से मथुरा लौटने का कारण किसी के द्वारा यह ताया जाना था कि बंबई जाने के लिए फ्रंटियर मेल मथुरा से पकड़ी जाती है...और वह आगरा नहीं आती।

बहुत बाद में...लगभग चौदह बरस बाद जब सोलह अगस्त 1990 को बंबई सेंट्रल पर राजधानी एक्स्प्रेस रुकी तो पहली बार पता चला कि बंबई में सेंट्रल हैचर्चगेट हैवीटी है और पता नहीं क्या-क्या है और पंजाब मे नाम की गाड़ी आगरा होकर बंबई आती हैवो कितने विलंब से आती हैइसका हिसाब-किताब रखना राहू काल आदि का ध्यान रखते हुए उचित नहीं समझा जाता । वैसे ये किस्सा तो नौकरी के बाद का है इसलिए यहाँ सिर्फ इतना ही बताना काफी है कि सन् 1990 में बंबई पहुंचकर हमें ये भी बिलकुल पता नहीं था कि बंबई सेंट्रल अंतिम स्टेशन है और वहीं पर उतरना हैं। 

किसी से पूछा तो बताया गया ...और ये भी बताया कि हमें जिस कॉमर्स हाउस में जाना है वह बेलार्ड पियमें वीटी के पास है और उसके लिए दादर जाकर भी जाया जा सकता है...

आँधी में आनंद की भरपूर नींद लेकर हम लोग अपनी अटैचियों के साथ सिनेमाहाल से निकल आए थे। रात अभी बाकी थी और स्टेशन पहुंचकर ही आगे का निर्णय लिया जा सकता था कि ...समझेगा कौन यहाँ...दर्द भरे दिल की जुबां के अंदाज़ में अब आगे का अंदाज़ क्या होना है? ... आगरा छावनी स्टेशन का पता पूछकर हम स्टेशन पहुँच गए थे । सुबह होने तक रात कुछ टिकट खिड़की के सामने कटी थी तो कुछ प्लेटफॉर्म पर ... सुबह किसी रेलगाड़ी में सवार हुए थे और मथुरा पहुँच गए थे ... 

हमारा हुलिया देखकर कोई भी पहचान सकता था कि इन भावी अभिनेताओं के साथ कुछ तो बड़ी भारी गड़बड़ हैमगर... 


मुझे याद है बंसीवाले कान्हा की वह तस्वीर... श्रीकृष्ण जन्मभूमि...मंदिर देखकर किसी रिक्शा से हम फिर भटक कर मथुरा जंक्शन ही लौट आए थे...देवेन्द्र आयु में बड़ा भी था और मुझसे कहीं अधिक समझदार भी। उसे समझ आ रहा था कि मथुरा से दिल्ली लौटना ही एकमात्र चारा है क्यों कि बंबई का टिकट तो अपने पास संरक्षित पूंजी से खरीदा जा सकता था मगर बंबई जाकर खाने के भी लाले पड़ जाने थे...

हम लोगों ने अब तक जो भी यात्रा की थी, वह सब सवारी गाड़ी/ पैसेंजर से की थी। हमे कोई जल्दी नहीं थी... हमारे लिए हर स्टेशन पर रुकने वाली और बिना स्टेशन के भी चेन खींचकर रोक दी जाने वाली ही गाड़ी ही रेलगाड़ी की वास्तविक परिभाषा में सटीक बैठती थी। रेल या बस में जितनी अधिक देर तक बैठा जा सके, उतनी अधिक चिड़ढ़ी खाना ही हमारे लिए टिकट के पैसे वसूल किए जाने का द्योतक था। हमने ऐसी गाड़ी पकड़ी थी जो रात भर चलती रही थी...जिसने रात भर सुलाकर सुबह किसी वक़्त हमे दिल्ली पहुंचाया था... वह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन था और ...यहीं मिला था हमें वह बड़ा भला आदमी ....

पता नहीं कहाँ और कैसे नहाने धोने का जुगाड़ हुआ था। हम नहा-धोकर ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने एक होटल में नाश्ते के वास्ते आकर विराजमान हुए थे। आलू की पतली सब्जी के साथ दो पूड़ी...इसी से पेट भरा मान लेना पड़ा था...

तब तक नाश्ता यानी कि पूड़ी की प्लेट आई नहीं थी...देवेन्द्र बंबई की रेलगाड़ी का पता करने गया था... शायद मैंने ही फिर से जिद्द की थी कि जो भी हो बंबई तो जाकर ही रहेंगे और वह दोस्त उस समय मेरी उस मूर्खतापूर्ण जिद के सामने नतमस्तक था...कोई छल-कप नहीं... बस मित्रता का मोल... और कुछ नहीं ....

बंबई की रेल का तो पता नहीं क्या हुआ था मगर जब देवेन्द्र आया था तो एक पतला सा सांवला आदमी भी अपने साथ लाया थाजिसके चेहरे पर बहुत हल्के चेचक के कुछ दाग भी थे। उसके पास एक छोटा सा थैला था जिसे गठरी की तरह पीठ पर लादा जा सकता था और आवश्यकता पड़ने पर हाथ में पकड़ कर या कंधे पर लटकाकर भी ले जाया जा सकता था। अब लगता है कि उस नाश्ते वाले होटल का ही वह कोई अदृश्य सिपहसलार रहा होगा। यही वह भला आदमी था, जिसकी वजह से हम लोग बंबई नहीं जा पाए थे। देवेन्द्र पर उसने न जाने क्या तो जादू किया था कि देवेन्द्र उन कुछ ही मिनटों में उसका अंधभक्त बन गया था। 

पता नहीं क्या नाम था उसका... पर अब उसे कालिया नाम दिया जा सकता है। देवेन्द्र ने मिलवाते हुए कहा था- ये बहुत अच्छे आदमी हैंये कह रहे हैं कि आज बंबई जाना ठीक नहीं है...कल जाएंगे और ये भी हमारे साथ चलेंगे। बहुत अच्छे आदमी ने शराफत और सपनों की लबालब भरी पूरी की पूरी काल्पनिक मालगाड़ी हमारे सामने खोलकर रख दी थी...

उसकी तीखी नजरों ने बड़ी उम्मीद और भरोसे के साथ हमारी अटैचियाँ निहारी थीं। 

उसके बाद उसकी शराफत की मालगाड़ी का पहला डिब्बा खुला था और उस डिब्बे से हमारे नाश्ते का बिल भरा गया था। इसके बाद मेरे मन में जो संदेह था, वह कुछ कम हो गया था... कोई बहुत अच्छा आदमी ही दो अंजान लड़कों से पल भर में मित्रता कर बिना किसी लोभ-लालच के उनके नाश्ते का बिल भर सकता था... मेरे मन की किसी भी क्यों पर देवेन्द्र का भरोसा भारी पड़ा था...

मैं गोल-चिकने चेहरे वाला मासूम सा दिखने वाला लड़का जरूर थालेकिन माँ हमेशा कहती थी- इसके पेट में बहुत लंबी दाढ़ी वाला है... लंबे समय तक जीवन में दाढ़ी रखने के बावजूद वह इतनी लंबी कभी न तो हुई, ना ही होती नजर आईजितनी माँ की पारखी निगाहें बचपन में ताड़ लिया करती थीं।

फिर नौकरी में आने के बाद जब बंबई के सातेक बरस के लिए बाशिंदे बने तो लोग दाढ़ी वाले गंजे के नाम से जानने-पहचानने लगे थे... बहुत दिन बाद जब एक बार जेब कटी तो वह भी दिल्ली में ही कटी और साथ ही हमने एक बार दाढ़ी भी कटा दी ... वह तीस दिसंबर का दिन था और सुनने को मिला था- क्यों काट दीबूढ़े लग रहे हो...  

दाढ़ी फिर रख ली गई और चेन्नई आने के बाद भी तब तक बद्दस्तूर रखी गई जब तक कि किसी अंजान ने ओसामा-बिन लादेन जैसा दिखने की टिप्पणी कर डरा न दिया। उसके बाद ध्यान से चेहरा दर्पण में निहारा गया और सचमुच लगा कि बिना दाढ़ी के लोग अनुपम खेर जैसा कह सकते हैंमगर दाढ़ी के साथ किसी दिन ओसामा समझे जाने की गलतफहमी में जान के लाले भी पड़ सकते हैं... तो उस दिन दाढ़ी को विदा देकर सुकून पाया...

देवेन्द्र को मिले बहुत अच्छे आदमी ने दिनभर दिल्ली दिखाई थी। बिरला मंदिर भी दिखाया था ...वह जगह जहां दर्पण में अकेली जान के अनेक मेहमान यानी प्रतिबिंब नजर आते है... बहुत अच्छा आदमी भरपूर हमारे दिलो-दिमाग में यथाशीघ्र घुसने की कोशिश में था और सफलता उसके कदम चूमने को बेताब नजर आ रही थी। शायद शाहदरा में किसी फटीचर सिनेमा हाल में उसने “रोटी फिल्म दिखाई थी... अपनी उम्र थी पंद्रहजिसके पहले पौने जोड़ा जाना जरूरी था और नजर आते थे हम यही बस साढ़े तेरह या चौदह के... उस उम्र के बच्चे अकेले सिनेमा हाल में नहीं जा सकते थे...केवल परिवार के साथ ही वे फिल्म देख सकते थे...। 

कालिया स्वयं को बहुत अच्छा साबित करने के लिए लगातार हमें कुछ खिलाता-पिलाता रहा था... फिल्म के दौरान भी उसने भरपूर खिलाया था...


दिन ढलने को था किन्तु रात की स्याही आज हमें डरा नहीं रही थी, यद्यपि हम बलि के बकरे बन चुके थे जिन्हें एक दिन के लिए कालिया को पालना था और उसके बाद बक़रीद से पहले ही ज़िबह कर दिया जाना था।  

हमारे साथ बहुत भला आदमी कालिया हमारा सहचर बन चुका था ...सहयात्री... बहुत बाद में यह भी सीखा कि रात में तो निशाचर निकला करते हैं। पर अल-सुबह दिन में मिला आदमी...निशाचर कैसे हो सकता था भला...

भले आदमी ने निर्णय लिया कि रात को किसी होटल में रुकेंगे...

वह होटल ढाबा नहीं था... ह पहाड़गंज में ही कहीं रहा होगा...हम गए थे... रात भर का किराया शायद बीस या पच्चीस रुपया जैसा कुछ बताया गया था... हम गाँव के पंजेरू (गाँव में फल-सब्जी बेचनेवाला) से मोल भाव के अभ्यस्त थे... हमने कहा- सारा खाली पड़ा है...पंद्रह रुपए में देना है तो दो...भला आदमी कालिया इस होटल से भी परिचित था... यहाँ भी बिना किसी संकोच के आगे बढ़ाकर अग्रिम पैसे उसी ने जमा किए थे।

यह अद्भुत रात थीजो जीवनमृत्यु और अधमरेपन के बीच कहीं तक भी ले जा सकती थी...कदाचित वह बंबई नहीं पहुँचाती थी...

हम लोग दो चारपाइयों पर तीन...हम दोनों सोने की तैयारी कर करे थे...लेकिन बहुत अच्छा आदमी कालिया अपना चमत्कार दिखाने की जुगत में था...इससे पहले कि हम सोते उसने काँच की दो प्लेटें निकाली और उनके बीच दस रुपये का एक नोट और उसी आकार का एक सफ़ेद कागज रखकर दबाया...दोनों छोरों पर रबड़ के छल्ले चढ़ाते हुए बोला- देखोंहम ऐसे बंबई जाकर राज करेंगे... 

दोनों प्लेटों के बीच दबाए गए नोट और सफ़ेद कागज के बीच न जाने कैसे गुलाबी रोशनी प्रकट भयी और सब कुछ हल्का गुलाबी हो गया...चंद मिनटों बाद उसने प्लेटों को छल्लों से मुक्त किया और चमत्कार सामने था... हाथ-कंगन को आरसी फारसी की जरूरत ही न रही थी...दस के नोट के साथ लगाया गया कागज चकाचक कडक दस के दूसरे नोट का रूप धारण कर चुका था ...

वह भला आदमी नोट से नोट बनाने की हाथ की सफाई दिखाकर हमारा भाग्य विधाता बनने ही वाला था कि माँ को नजर आने वाला लंबी ढाढ़ी वाला बहस कर बैठा- ...पर इस नोट का नंबर कैसे बदल गया...कालिया ने अत्यंत सहजता से कहा था - इन प्लेटों की यही तो खासियत है कि नंबर अपने आप बदल जाता है। वह उस भले आदमी कालिया का अति आत्मविश्वास था या फिर हमारा अति मूर्खता से परिपूर्ण भोलापन कि उसके आगे तर्क की कोई गुंजाइश नजर नहीं आई थी...

कालियाश्री के उस चमत्कार के बाद वह रात बंबई पर राज करने के रंगीन सपनों में बीती थी। 

अगर मैं अकेला होता तो शायद अपाहिज बनाकर किसी मंदिर के सामने या रेलवे स्टेशन पर बैठा दिया गया होतामगर देवेन्द्र साथ था...तब भी वह लंबा थामुझसे बड़ा था और अट्ठारह बरस से ज्यादा का नजर आता था..
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वैसे मेरे लिए अकेले देवेन्द्र की उस खटारा साइकिल पर भागने का प्रश्न भी नहीं उठ सकता था... 

उन दिनों  सिकंदराबाद में साइकिल चलाने के लिए भी नगरपालिका से बिल्ला खरीदना पड़ता था। यह एक गोल टोकन के आकार का होता थाजिसे हेंडिल के आगे की ओर निकले हुक में एक  छेड़ कर नट-बोल्ट के साथ कस दिया जाता था। हमारी खटारा में भी वह बिल्ला कसकर लगा हुआ था।

सुबह हो गई थी... तब पता नहीं थाकिन्तु अब दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह पहाड़गंज की ही सुबह थी...जो खटारा पर भागने के बाद पहली बार अच्छे से स्नानादि से निवृति के उपरांत संपूर्ण स्वच्छ भारत का इरादा करने के बाद ही शुरू हुई थी...जिसे भले आदमी कालिया के साथ काली रात के रूप में समाप्त होना था...

कनॉट प्लेस के पालिका बाजार के ऊपर ...रिवोली सिनेमा में चल रही... छोटी सी बात जो इतनी बड़ी बनी कि डराने लगी... डरते-डरते 1976 से 2019 आ गया... डर से निकल कर पिछले वर्ष ही गाजियाबाद में एण्ड्रोइड स्मार्ट टीवी पर गूगल बाबा की बदौलत अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की वह अद्भुत फिल्म देखी जा सकी... फिर जब विद्या सिन्हा भी विदा हो गईं...तो एक बार फिर देखी गई और बहुत अच्छी भी लगी ।  

उस दिन सुबह से शाम तक पहाड़गंज में हम कालिया के साथ बंबई अपनी मुट्ठी में लिए घूमते रहे थे। हमारे सामने एवरेस्ट की चोटी दो कदम से भी कम दूरी पर थी...हर मर्ज की दवा भला आदमी कालिया हमारे साथ था... वह हमारे सभी नोटों को बड़े और करारे नोटों में बदलवाना चाहता था ताकि नए नोट बनाने के लिए कागज की बचत हो सके... वह पुराने नोट बदलने वाली हर जगह से पूर्व परिचित था... उस दिन जो हुआ वह कोई क्या सोचेगा भला...

बड़े भले आदमी कालिया ने भी उस दिन शायद अपने जीवन का सबसे बड़ा धोखा खाया था, जिस की उम्मीद उसे कदापि नहीं थी ...
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दिल्ली पुलिस की नौकरी शुरू करने से दरोगाई से रिटायर होने तक देवेन्द्र उस बड़े भले आदमी कालिया को ढूँढता रहापर मिल न सका... वह बड़ा भला आदमी ... देवेन्द्र को दिल्ली पुलिस की नौकरी के दौरान हमारी खटारा साइकिल पर भागने के दौर के कई अन्य किरदार तो टकराए मगर कालिया कभी न मिल सका... हमारी खटारा जो दो आदमियों को लेकर सामने से चलती आँधी से भी टकराने ... आँधी को चीर कर निकाल जाने का दम रखती थी... जिसपर भागने की वजह ही शायद देवेन्द्र के दिल्ली पुलिस में भर्ती होने का आधार बनी...
(... जारी )  
-अजय मलिक


1 comment:

  1. अति उम्दा सर् , आपने हरियाण दिल्ली यूपी दक्षिण भारत भाषाई समागम के साथ बेहतरीन लिख है

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