हम
लोग तो अच्छे से खड़ी करके आए थे, मगर ....
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उस दिन ताजमहल देखने के बाद थकान से पूरा शरीर मालगाड़ी के
कोयले के खुले डिब्बे जैसा हो गया था, जिसमें से जो जब और जितना चाहे कोयला चुरा सकता है। रात गुजारने का कोई साधन नहीं था।
हमारे लिए होटल का मतलब ढाबे तक सीमित था, जिसे संस्कारी लोग तब भी रेस्तराँ या रेस्टोरेन्ट कहते थे।
हम ये पूरी ईमानदारी से खुलेआम स्वीकारते हैं कि हम बिलकुल भी ये नहीं जानते थे कि ढाबे को होटल कहना ठीक उसी तरह होता है जैसे कि भद्र जन एक दूसरे की बखिया उधेड़ने से पहले अत्यंत सम्मानपूर्वक कहते हैं- "देखिए, मैं केवल संसदीय भाषा का ही प्रयोग कर सकता हूँ इसलिए बाइज्जत मैं (आपकी बेइज्जती करते हुए) ये कहना चाहूँगा कि आपने कुकर्म किया है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ परंतु यह संभावना
तो आप भी मानेंगे कि ऐसा करने वाला कोई भी हो सकता है...आप भी हो सकते हैं और... मेरे कहने का अभिप्राय: यह बिलकुल नहीं है कि
वे आप थे याकि नहीं थे... कोई भी हो सकता है और कोई में आप शामिल नहीं हैं ऐसा नहीं माना जा
सकता है, लेकिन मैं... आप ही थे यह कह कर आपको शर्मिंदा नहीं करना चाहता
हूँ। मैं तो यही कहूँगा कि जिसने भी किया वह होटल में था या ढाबे में था..."
कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमें होटल शब्द का जितना अर्थादि पता था, वह परवासी मजदूरों की तरह मात्र कसबाई था । यह शब्द हमारे तहसीली शहर में जिन खुले ढाबों के बाहर लिखा होता था, वहाँ बाहर से ही पीतल के बड़े-बड़े भगोने
दिखाई देते थे। उस जमाने में मांसाहारी लिखने से अधिकांश होटल मालिक परहेज करते थे, क्योंकि उन्हें शायद मालूम होता था कि जिसे
वे होटल लिखवा रहे हैं, वह होटल नहीं, बल्कि छोटे शहर में बना हुआ नमीयुक्त अति कोमल प्राकृतिक कालीन के कभी-कभार
गोबर लिपे कच्चे फर्श से सुशोभित ढाबा मात्र है, जहां रेलवाई से थोड़ी सी अधिक गरम चाय, भरपूर सडे हुए महीनों से उबल रहे अज्ञात ब्रांड के किसी तैलीय पदार्थ में दिल खोलकर तले गए समोसे, कुछ दाल-वाल और रोटी-तरकारी वगैरा की सीमित उपलब्धता के साथ-साथ धुंधलके के बाद बोरी के टाट के परदे के पीछे पूर्णत: स्वदेशी माल थैली में अनुकंपा के आधार पर आपकी दयनीय दशा की पुष्टि होने के बाद प्राप्य है, बस...बहुत ज्यादा अप्राप्यों की अपेक्षा कृपया खुलेआम न करें।