दौलत पाइ न कीजिए सपने में अभिमान
चंचल जल दिन चार को ठांव न रहत निदान
ठांव न रहत निदान जियत जग में जस लीजै
मीठ वचन सुनाय विनय सब ही की कीजै
कह गिरधर कविराय अरे यह सब घट तौलत
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।
पिछले सप्ताह बड़ी ही अप्रिय स्थिति में एक 'कंप्यूटर पर हिन्दी और भारतीय भाषाएँ' विषय पर आयोजित एक कार्यशाला में इरोड जाना पड़ा। जाते समय एसी शयनयान में सामने की सीट पर विराजमान बंधु दारू के नशे में धुत ओर उल्टियाँ करने में मस्त ने खूब अस्त-व्यस्त-त्रस्त किया। रात को 50 रुपए वाले बिना चालू एसी के अतिथिगृह में मच्छरों के साथ चली लंबी लड़ाई के बाद आखिर सुबह हुई। कार्यक्रम 10 से 1 बजे तक था मगर आयोजकों के आग्रह पर 4 बजे तक बढ़ा दिया गया। यह जानकर अच्छा लगा कि लोग जानना चाहते हैं। शाम सवा पाँच बजे रेलगाड़ी पकड़नी थी तो अपने लैपटॉप के बैग को कंधे पर लादे गाड़ी में सवार हो गया। सोचा एसी डिब्बे के अनेक फ़ायदों (?) में से कुछ का आनंद मुझे भी उठाना चाहिए। लैपटॉप का चार्जर प्लग में लगा दिया। थोड़ी देर बाद चार्जर आहिस्ता से चरम निंद्रा में चला गया। लैपटॉप बंद कर दिया। रात लगभग सवा ग्यारह बजे चेन्नई सेंट्रल पर उतरा। बाहर निकला तो तेज़ बारिश शुरू हो गई। अच्छी तरह भीग-भाग कर घर पहुंचा।