कल से मन में एक अजीब सा वितृष्णा का भाव है। फेसबुक पर
एक पोस्ट दलित साहित्य के जानकार श्री कर्दम जी ने शेयर की थी। मेरे लिए साहित्य
सिर्फ साहित्य है वह चाहे किसी भी नाम से किसी भी रूप में आए। जो लिख रहा है वह
कुछ कहना चाह रहा है। उसके मन में अच्छा-बुरा, सफ़ेद या स्याह कुछ है जिसे वह
अभिव्यक्ति देना चाह रहा है। साहित्य के रूप में सजग पाठक ने जिसे स्वीकार लिया, उसे पढ़ने की जिज्ञासा सभी को हो सकती है। “खरीदी कोड़ियों के मोल” का पहला भाग कवरत्ती में पढ़ा था और दूसरा पढ़ने के लिए
मुंबई के एक पुस्तकालय में 70 रुपए खर्च कर सदस्यता ली थी। फिल्म रसास्वादन
पाठ्यक्रम के दौरान 5 सप्ताह यही सिखाया गया था कि निर्णेता होने का दंभ मत पालना, फिल्म निर्माण में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसी आधार पर
लिखना भी सभी के लिए संभव नहीं है। जो लिखता है... लिख सकता है, वह बहुत परिश्रम और प्रयासों के बाद लिखता है।
मैंने उस पोस्ट को पढ़ा और उसके बाद तर्क और कुतर्क का अंतर समझने की
कोशिश में मन और भारी हो गया है। बात रक्षाबंधन के त्योहार से जुड़ी थी। मैं बस इसी
निष्कर्ष पर पहुँच सका कि शायद लिखने वाले की दुकान हिन्दू धर्म के खिलाफ लिखने से, विष वमन करने से अच्छी चल रही
है। लिखने वाला अपने उद्देश्य में सफल रहा वरना मेरा मन इतना दुखी न हुआ होता। मैंने
उस पोस्ट पर लिखना चाहकर भी कुछ नहीं लिखा, कोई प्रतिक्रिया
नहीं दी। दफ़तर से लौटते हुए बच्चों के लिए मिठाई लानी थी मगर भूल गया। फिर रात नौ
बजे दुबारा बाजार गया।
मेरी बेटी अपने भाइयों को राखी भेजकर प्रफुल्लित है। उसका एक सगा भाई है, दो चचेरे भाई हैं, जिनमें से एक लंदन में है, एक मुँह बोला भाई है और
एक मेरी मुँह बोली बहन का बेटा है जो अब उसका भाई है। बहन और भाई की इस कहानी में
धर्म जैसी कोई पंक्ति इन बच्चों के मन में नहीं है। मैंने मनुस्मृति नहीं पढ़ी है, मेरे बच्चों ने भी नहीं पढ़ी है मगर मैं हिंदू हूँ,
मेरे बच्चे भी हिन्दू हैं। हिंदू रीति रिवाज़ का जो थोड़ा-बहुत पालन कर पाता हूँ, वह मैं कर लेता हूँ। मैंने कभी किसी अन्य धर्म के अनुयायी के प्रति अपनी
कोई राय नहीं बनाई है। शाजी काट्स हिन्दू नहीं है मगर मेरा मित्र है। चाचा रमज़ानी
हिन्दू नहीं हैं मगर आज भी मेरे चाचा हैं। जबलपुर में 1985 में एक सिख से दोस्ती
हुई थी, पता नहीं वह कहाँ है मगर आज भी उससे मिलने को मन
करता है। रामबीर सिंह 1978 से ऐसा दोस्त है जो परिवार के हर सदस्य का अपना है, सगा है। हरकेश के वजीफे के लिए 1976 में कलौंदा में प्रधानाचार्य जी से
बहस की थी उसके बाद इस वर्ष जून में रामबीर के घर पर रात के खाने पर तीन दशक से ज्यादा समय बाद मुलाक़ात हुई।
“कोई व्यक्ति क्यों किसी धर्म को मानता है” - इसकी मीमांसा करने या इसपर कटाक्ष करने का अधिकार मुझे
नहीं है। सबके जीने का एक तरीका है। यह जरूरी नहीं कि वह मेरे या आपके तरीके से
मेल खाता हो। यदि कोई मनु स्मृति के आधार पर जीवन जी रहा है,
यदि कोई कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ
साहब के आधार पर खुशी से जीवन जी रहा है और इन सबके जीने से मेरे जीने के तरीके
में कोई बाधा नहीं आ रही है तो मुझे इस पर चिंतन करने या बेवजह किसी को सलाह देने
की आवश्यकता नहीं है।
मेरी आयु इक्यावन साल है और मैंने भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से
बिना बिजली, सड़क वाले गाँव
में 24 साल जिए हैं। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे... शायद मीरा या भालू की
किताब में अर्थात कक्षा एक या दो में रक्षाबंधन पर एक पाठ हुआ करता था। यह 45 साल
पुरानी बात है जबकी रक्षाबंधन शब्द तक पर आपत्ति कर हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करने
वाले प्रबुद्ध मनीषी के अनुसार यदि 30 वर्ष पहले शहर से ये शब्द उधार लिया गया तो
उससे 15 वर्ष पहले ये हमारे गाँव में पढ़ाई जाने वाली सरकारी स्कूल की पुस्तकों में
कैसे विद्यमान था। । गाँव में आज भी रक्षाबंधन को सलूने और राखी को पोंहची कहने का
ही चलन है, कुछ लोग रक्षा बंधन भी कहते हैं। कितनी सदियों से
यह चलन है ये मैं नहीं जानता।
गाँव के बहुत सारे ऐसे शब्द हैं जिन्हें गाँव छोडकर नौकरी की ख़ैरात या
मलाई के जरिए शहरी बने हम और आप और वे और ये लोग पसंद नहीं करते, फिर सलूने और राखी को लेकर साका
क्यों? अगर मेरे बच्चों को राखी या पोंहची बांधने और बंधवाने
में खुशी मिलती है तो किसी और को इसपर कराहने की क्या आवश्यकता है? किसी को भी मेरे/ हमारे/ इसके/उसके त्योहार मनाने न मनाने से अपना
रक्तचाप बढ़ाने की क्या जरूरत है? आप मनाइए या मत मनाइए यह आप
पर है। आप किस रूप में, कैसे और क्या मनाना चाहते हैं, यह भी आप पर है। आप हिंदू धर्म में विश्वास नहीं रखते तो मत रखिए। मैं
विश्वास रखता हूँ तो आपको इसमें बेवज़ह अपना दिमाग खपाने की जरूरत कहाँ से आ पड़ी।
मैं जिस धर्म में विश्वास रखता हूँ उसकी अच्छाइयों, बुराइयों से जब तक मुझे कोई
समस्या नहीं है तब तक किसी और को उससे चिंतित होने की क्या जरूरत है। जब तक मैं किसी
की राय नहीं माँग रहा हूँ तब तक कोई मेरे धर्म पर अपनी अच्छी या बुरी टिप्पणी
क्यों करना चाहता है? यदि किसी को कोई जीवन पद्धति पसंद नहीं
है तो वह उसे मत अपनाए... छोड़ दे। क्या आज किसी को भी यह तर्क देकर कि 1950 से
पहले वर्तमान संविधान नहीं था, संविधान को मानने से इंकार
करना चाहिए?
यदि कल गाँव में मैं फटे कपड़े पहनता था, नंगे पैर स्कूल जाता था तो क्या आज शहर में दफ्तर जाते
समय भी मुझे यही करना चाहिए? गाँव में अभावों का दौर था तब
अभावों में जीते थे। आज शहर में हैं, फटे कपड़े पहनने जैसी
दयनीय स्थिति नहीं है तो वर्तमान स्थिति के अनुरूप जी रहे हैं। रक्षा बंधन की
चर्चा वेद-पुराणों-मनुस्मृति में है या नहीं है इसलिए रक्षा बंधन होना या नहीं होना
चाहिए! रक्षा बंधन की जगह सलूने होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं है कि ऐसे प्रश्न करने या इन्हें किसी धार्मिक
पुस्तक से जोड़ने की बजाय जो आप होते हुए देखना चाहते हैं वह आप अपने घर में कर
लीजिए, जो आपसे सहमत हो जाएँ उनसे करवा लीजिए, आपको कोई रोक रहा है क्या? आपने नित्य क्रिया से
संबंधित एक ऐसे शब्द से, अपने कथन का अंत किया है जिसे मैं
संसदीय नहीं कह सकता। यदि आप सचमुच गाँव में रहे हैं और गाँव की गरिमा से परिचित
हैं तो उस शब्द की जगह “बाहर बैठने जाना” जैसे प्रयोग प्रचलन में थे / हैं । आपके
ऐसे प्रयोग को क्या कहा जाए?
आपकी राय में जिन बातों की चर्चा रामायण-महाभारत में है वह इसलिए नहीं होनी
चाहिए क्योंकि वह आपको पसंद नहीं है। फिर जो है और जिसका होना आपको पसंद नहीं है उसे रामायण महाभारत में भी जरूर होना चाहिए ताकि आप उसे पसंद कर सकें... लेकिन सिर्फ वही क्यों होना
चाहिए जो आप चाहते हैं जबकि अन्य बहुत सारे लोग वैसी चाहत नहीं रखते? मेरे विश्वास पर आपको या किसी
को भी तर्क की क्या आवश्यकता है? मैं आपके विश्वास पर न
अंगुली उठा रहा हूँ न ही कोई आपत्ति कर रहा हूँ । आपका विश्वास जो है, जैसा है, उसे बरकरार रखिए मगर उसके जरिये दूसरों की
खुशियाँ मत छीनिए। किसी भी धर्म पर, किसी भी धार्मिक ग्रंथ
पर, किसी भी धर्म के अनुयायी पर किसी को भी अपना दिमागी
फितूर थोपना उसका बड़प्पन नहीं है बल्कि कहीं न कहीं कमजोर आत्मविश्वास का प्रमाण
भर है।
सिर्फ ध्यानाकर्षण या अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी पर कीचड़ उछालना, किसी को गाली देना, शोभनीय तो नहीं ही कहलाएगा । अक्सर अपनी कमजोरियों को छुपाने के असफल
प्रयास रक्षा युक्तियों के रूप में सामने आते हैं। रिश्तों को हर धर्म में रस्मों
से संवारा और सुदृढ़ किया गया है। अपनेपन की अभिव्यक्ति के लिए कोई तो बहाना, कोई तो अवसर चाहिए। यदि हिन्दी प्रदेशों में भाई-बहन के रिश्ते की महत्ता
याद दिलाने के लिए रक्षा बंधन जैसा त्योहार है तो इससे आपको परेशान नहीं होना
चाहिए। तमिलनाडु, केरल जैसे कई राज्यों में रक्षाबंधन नहीं
मनाया जाता मगर इसका यह मतलब तो नहीं कि इन राज्यों में हिंदू धर्म के अनुयायी
नहीं हैं याकि इन राज्यों में भाई-बहन नहीं है! हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि घाव
कुरेदने से भरता नहीं है बल्कि नासूर बन जाता है। फिर भी अगर आप कुरेदते रहने के
लिए मजबूर हैं, इसी से आप अपना अस्तित्व साबित कर सकते हैं तो लगे रहिए...समाज को नासूर बनाकर ही दम लीजिए।
-अजय मलिक
No comments:
Post a Comment