Aug 31, 2012
हिन्दी दिवस पर माननीय गृह मंत्री जी का संदेश
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हिंदी सबके लिए : प्रतिभा मलिक (Hindi for All by Prathibha Malik)
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8/31/2012 09:17:00 PM
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Aug 29, 2012
चकल्लस
23 अगस्त 2012, डबल्यूडबल्यूएफ़ कुश्ती की एक नई कड़ी का निर्माण हुआ। एक वाशबेसिन की कहानी इतनी लंबी हो गई कि एकता कपूर के धारावाहिक छोटे पड़ जाएँ... अभी भी कहानी जारी है। वाश बेसिन जिंदा है याकि उसने नया जन्म ले लिया है किन्तु उसकी कमीज़-पेंट की सिलाई अभी बाकी है। पेंट से याद आया एक आलसी बल्कि महा आलसी कहाना ज्यादा सही रहेगा, पेंट के एक पैर की उधड़ी सिलाई सिलाने नहीं गया और इस तरह दो माह गुजर गए। वह रोज एक ही जोड़ी को धोने और सुखाने में आलसीपन नहीं दिखाता मगर दर्जी के पास जाने के लिए पाँच मिनट उसके पास नहीं हैं।
बिना ब्रेक की साइकिल चलाने में उसे कोई कठिनाई नहीं मगर ब्रेक डलवाने में नानी याद आती है। यकीन मानिए पंचर लगाने का सामान, साइकिल-स्कूटर की मरम्मत का सामान, ग्रीस, मोबिल ऑइल, हथौड़ा, प्लायर, बहुत सारे रिंच, जूते गाँठने के नुकीले औज़ार वगैरा सब लाकर घर में रख चुका हूँ और आज एक सिलाई मशीन भी खरीद लाया। एक आरी, बसूला, रंदा, एक बर्मा यानी ड्रिलिंग मशीन और लानी है। इसके बाद इन सब को चलाना है इसके लिए कुछ प्लाइवुड, कुछ सनमाइका लानी है। कुल मिलाकर अगर पानी पीना है तो हर कदम पर कुंआ खोदना है । जीने के लिए पानी कितना जरूरी है इसपर नया कुछ कहने की जरूरत नहीं है। शहरों में छूआ छूत जैसा कुछ नहीं है मगर मेरे जैसे किस्मत से दिलद्दर को बिना कुंआ खोदे पानी कभी नहीं मिला।
महानगरों के अपने कायदे-कानून हैं और काफी हद तक बेतुके हैं। तिसपर भी बढ़ईगीरी, लुहारगीरी, जूता गठाई, सिलाई-कढ़ाई-बुनाई, प्लम्बिंग, मिस्त्रीगीरी वगैरा के बाद जो कुछ बचा रह जाता है वह है महानगरीय अवश प्राणी। यह अवश प्राणी जब सुबह उठता है तो खिड़की खोलकर ताज़ी हवा ढूंढने के चक्कर में दो-चार तेजतर्रार मच्छरों का शिकार बनता है। फिर शहरी बाबू होने के अहसास की अकड़ में जकड़कर कमर दर्द से कराहता है और दफ़्तर की दौड़ में घुटनों की टीस से सुकून पाने के उपाय ढूँढता हुआ लौटता है।
कार है जो बेकार खड़ी है। तीन साल में छः हज़ार किमी का सफर वह भी तब जब मद्रास से त्रिवेन्द्रम वगैरा का एक चक्कर लगाने में तीन हज़ार किमी किसी तरह खींच दी थी। सालाना पेट्रोल से अधिक बीमा और ढुलाई-पुछाई वाली तथाकथित सर्विस का खर्चा। बढ़ाइए पेट्रोल के दाम मुझे कोई ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। जब तक स्कूटर चलता है चला लेते हैं बाद में आईआई टी से एक पुरानी साइकिल भन्ने में देकर खरीद लूँगा।
कार की मोबिल ऑइल बदलने की सेवा के नाम पर बिना किसी कारण छः हज़ार का बिल बना दिया भाई लोगों ने। किसी ने सही ही कहा है जाकी कार उसी को साजे... हम ठहरे ठेठ देहाती... गाँव के गंवार, मोटी रोटी और प्याज की गंठी से बढ़कर स्वादिष्ट कोई व्यंजन नहीं लगता और साइकिल से बढ़कर कोई सवारी नहीं लगती। आने दीजिए बाढ़-तूफान-आँधी हमारी साइकिल में सायलेंसर ही नहीं है जिसमें पानी भरने का डर हो। सड़क हो या न हो, सूखा हो या गारा अपनी साइकिल को कोई क्या रोकेगा! पुलिस का हवलदार न रोक सकता है न चालान काट सकता है। न बैटरी की चिंता न इंडिकेटर के टूटने का डर... क्लच, ब्रेक सब बाहर, कोई हेर-फेर नहीं, कोई लौचा नहीं। बचपन में साइकिल चलाना सीखने के चक्कर में तुड़वाए हाथ-पाँव आज काम आ रहे है। हमने रस्सी बनानी/ बटनी सीखी थी, मछीके बनाने और लगाने सीखे थे। हमारी बनाई रस्सी के बल इतने तगड़े कि जलने पर तो क्या खाक में मिलने पर भी बलवान ही रहते हैं। ये अलग बात है कि गंजे सिर पर पिछले पच्चीस बरस से जब भी हाथ फेरता हूँ तो खुद को पचपन का पाता हूँ। (जारी ... )
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हिंदी सबके लिए : प्रतिभा मलिक (Hindi for All by Prathibha Malik)
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8/29/2012 12:29:00 PM
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ओणम की शुभकामनाएँ
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8/29/2012 12:23:00 PM
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Aug 18, 2012
बीस बरस पहले सबरंग में छपी कुछ कविताएँ
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8/18/2012 05:03:00 PM
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Aug 15, 2012
वंदे मातरम्
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8/15/2012 03:30:00 PM
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Aug 10, 2012
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ
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8/10/2012 09:38:00 PM
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Aug 3, 2012
सलूने मुबारक और रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ
कल से मन में एक अजीब सा वितृष्णा का भाव है। फेसबुक पर
एक पोस्ट दलित साहित्य के जानकार श्री कर्दम जी ने शेयर की थी। मेरे लिए साहित्य
सिर्फ साहित्य है वह चाहे किसी भी नाम से किसी भी रूप में आए। जो लिख रहा है वह
कुछ कहना चाह रहा है। उसके मन में अच्छा-बुरा, सफ़ेद या स्याह कुछ है जिसे वह
अभिव्यक्ति देना चाह रहा है। साहित्य के रूप में सजग पाठक ने जिसे स्वीकार लिया, उसे पढ़ने की जिज्ञासा सभी को हो सकती है। “खरीदी कोड़ियों के मोल” का पहला भाग कवरत्ती में पढ़ा था और दूसरा पढ़ने के लिए
मुंबई के एक पुस्तकालय में 70 रुपए खर्च कर सदस्यता ली थी। फिल्म रसास्वादन
पाठ्यक्रम के दौरान 5 सप्ताह यही सिखाया गया था कि निर्णेता होने का दंभ मत पालना, फिल्म निर्माण में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसी आधार पर
लिखना भी सभी के लिए संभव नहीं है। जो लिखता है... लिख सकता है, वह बहुत परिश्रम और प्रयासों के बाद लिखता है।
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हिंदी सबके लिए : प्रतिभा मलिक (Hindi for All by Prathibha Malik)
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8/03/2012 12:08:00 AM
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