कई दिनों से लगातार पान सिंह तोमर की चर्चा सुन रहा हूँ। जब भी इंटरनेट खोलता हूँ तो इरफान नज़र आता है। हर ओर उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जा रहे हैं... बहुत खुशी होती है उसके अभिनय की तारीफ़ें सुनकर। कभी इरफान से मेरा भी परिचय हुआ करता था... इस ख्याल से खुशी ओर बढ़ जाती है। पान सिंह तोमर फिल्म अभी देख तो नहीं पाया हूँ मगर बहुत जल्दी देखूंगा।
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आजकल सूखी नदियों में भी बिना पानी उफान आ रहा है। कुछ लोगों ने मान लिया है कि अब नदियों में पानी की जरूरत ही नहीं बची है। भुरभुराती रेत के व्यापार में जो नफा है वह पानी की सिंचाई से उगने वाली फसलों में कहाँ? मगर नदियों का रेत बिना पानी, अधिक दिनों तक नहीं ठहरता। रेत पानी के आने से आता है, रेत के साथ पानी नहीं आता। रेत से किरकिराई आँखें पानी के बिना साफ नहीं हो सकतीं... सुकून पानी से ही मिलता है, रेत अंतत: या तो उड़ जाता है या आँखों की रोशनी लील जाता है।
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न्याय और अन्याय की बाजीगरी से आँखें चौंधियाना छोड़ चुकी हैं। अब थकी हुई आँखों में अंधेरा उतना नहीं चुभता जितनी रोशनी चुभती है। आँखें अंधेरे की आदी हो चली हैं मगर मन अब भी उजाले की आशा लगाए बैठा है। मन की मुराद कभी पूरी होती है भला। मौन सबसे बड़ा हथियार हो सकता है मगर चुप रहने की आदत विकसित ही नहीं हो पाई। अंत में हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि ईमानदार हो या बे-ईमान सब पैदा होते हैं और अंतत: मर ही जाते हैं, ये दुनिया चलती चली जाती है। जीने के लिए ईमानदारी या बे-इमानी कोई तो बहाना चाहिए...
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कुछ लोगों के साथ न्याय हो गया और इसी न्याय के साथ कुछ ऐसे लोग जिनके साथ न्याय करते हुए सुधार का अवसर दिया गया था उन्हें फिर कबाब, शबाब और साक़ी के साथ मयखाने भिजवा दिया गया। नागरिक, समाज और सामाजिक व्यवस्था में कहीं कुछ बड़े... बहुत बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है... मगर पूरा विश्व ही अशांति की चपेट में है। तीन लोगों की फिर से आवश्यकता है- गांधी, सुभाष और सरदार पटेल
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कल की चिंता में आज को समाप्त कर देना और फिर कल फिर से बीते हुए इस आज की मूर्खताओं का चिंतन करते हुए ज़िंदगी बर्बाद करना, अर्थहीन है मगर आदमी ऐसे ही तो जीता है।
एक बीहड़ है हर शहर में, हर गाँव में, हर कस्बे में और हर आदमी के दिल में और दिमाग सिर्फ दुकान भर रह गए हैं...