Mar 12, 2012

"मुझे जीने दो" के बाद "पान सिंह तोमर"

            ज़रूरी नहीं कि मेरी बात पर विश्वास किया जाए याकि मेरे कथन से सहमत हुआ जाए... मगर मुझे लगता है कि दुर्खीम और कारलाइल के सिद्धांतों को समेटती पान सिंह तोमर भारतीय समाज, राजनीति और व्यवस्था पर उठने वाले हर सवाल का जवाब ढूँढती है और इतनी गहराई से ढूँढती है कि स्वयं जवाब मुँह छुपाने को विवश हो जाता है। इसे सिर्फ एक फिल्म कहकर या दो-तीन घंटे का मनोरंजन मानकर भुलाया नहीं जा सकता। इसमें हर वह बात है जो सेल्यूलाइड पर जिंदगी उकेरने के लिए चाहिए। डाकुओं के जीवन पर 'मुझे जीने दो' के बाद शायद यह पहली फिल्म है जो मुझे जीने दो से कई कदम, कई फ़र्लांग, कई मील आगे पहुँच गई है। किसी भी मैडल को मौत  इस रूप में तो नहीं ही मिलनी चाहिए।  काश व्यवस्था और आदमी के बीच इतनी खाई न खिची होती! सभी कलाकारों, निर्देशक, पटकथा लेखक, सिनेमेटोग्राफर को और हर उस शख्स को जो इस फिल्म से जुड़ा है - बधाई। यदि फिल्म देखने का मन है तो पहले 'पान सिंह तोमर' पर विचार करें...  
-अजय मलिक

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