फिल्म समारोहों में मैं कभी अधूरे मन से नहीं गया था मगर इस बार यह भी हो गया। हर साल 15 दिन मैं फिल्म समारोह ले लिए रखा करता था...इस बार सिर्फ एक दिन रह गया। पूर्णता उस एक दिन में भी पाने की कोशिश की। संयोग से एक के बाद एक तीन मलयालम फिल्में देखने का मौंका मिला।
विम वेंडर्स निर्देशित जर्मनी की प्रस्तुति "पिना" देखकर मन गदगद हो गया। इस थ्री डी फिल्म पर बहुत कुछ लिखने की इच्छा हुई परंतु एक शब्द भी नहीं लिखा जा सका। ईरानी फिल्मों का दबदबा आज भी कायम है। सिराज की सिफारिश पर असगर फरहीदी निर्देशित "नाड़ेर एंड सिमीन अ' सेपरेशन" देखी और सिराज को धन्यवाद दिया। यकीन मानिए लाजवाब फिल्म थी। "विनर" देखने से कैसे वंचित रह गया, यह अपने आप में बड़ी घटना रही। इज़राइल की जोसेफ मड्मोंय निर्देशित "रेस्टोरेशन" ने भी निराश नहीं किया। समीर ताहिर निर्देशित मलयालम फिल्म "चप्पा कुरिषु" पूरी नहीं देख पाया मगर वी के प्रकाश की "कर्मयोगी और राजेश पिल्लै की "ट्रैफिक" (दोनों मलयालम) पूरी देखने का मौका मिला। कर्मयोगी तो कमाल की फिल्म रही मगर ट्रैफिक की लम्बाई ने थोड़ा बेचैन किया। लेकिन मजेदार रही रेवती की 17 मिनट की अंग्रेज़ी/तमिल फिल्म "रेड बिल्डिंग इज़ वेयर द' सन सेट्स"।
इन सब फिल्मों की चर्चा तभी अच्छे से कर पाता जब फिल्म समारोह में मन से जाना होता। इस बार गोवा गया तो सिर्फ डॉक्टर साहब और भाभी जी से मिलने था। किसी भी फिल्म समारोह से ज्यादा जरूरी था उनसे मिलना।
मगर इस बार इतना लंबा अंतराल हो गया कि खुद हैरान हूँ... व्यस्तता और जिम्मेदारी के अहसास ने वक्त ही नहीं दिया। पिछले बीस दिनों में दो बार दिल्ली, गोवा, मद्रास ने इतना उलझाकर रखा कि 4-6 घंटों से ज्यादा सोना भी नसीब नहीं हुआ। फिर भी जिंदगी में व्यस्तता स्वयं में एक बड़ा सहारा है सुकून से जीने का। इतने पर भी मन तो यही कहता है-इतना बड़ा अंतराल तो अच्छी बात नहीं है, इसे नहीं ही होना चाहिए था...
- अजय मलिक
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