Feb 6, 2011

अँधियारा मिटाते-मिटाते मिट जाता है उजाला !

कितने लोग, कितने विचार और कितनी कहानियाँ...बस यूंही एक विचार सा आया... अचानक एक पत्रकार मित्र की याद आई...पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में मुलाक़ात हुई थी। टाइम्स ऑफ इंडिया में काफी गंभीर लेख छपते थे उनके... करीब 15 वर्ष पहले फोन पर बात हुई थी...मुंबई से वे दोनों पति-पत्नी कार में पूरे केरल की यात्रा करके लौटे थे...

आज अचानक नाम याद आया तो फेसबुक पर ढूंढ बैठा...पता चला दोनों कैलिफोर्निया में यू एन करी नाम से कैटरिंग का व्यापार कर रहे हैं। कई किताबें हैं उनकी स्वादिष्ट भोजन और पकवानों पर... थ्री इडियट्स फिल्म की याद ताज़ा हो गई... हमें करना वही चाहिए जिसे करने में मज़ा आए।

एक और मित्र आई आई टी के श्रेष्ठ विद्यार्थी आजकल अचल संपत्ति का व्यापार कर रहे हैं जिसे प्रॉपर्टी बिजनेस भी कहते हैं... बता रहे थे यह प्रॉपर्टी 95 लाख की है और ये तीन करोड़ की, सिर्फ 10 प्रतिशत प्रीमियम चाहिए। मैं इन्हीं विचारों में खोया हूँ और अपना हिसाब-किताब देख रहा हूँ। पी एफ के अलावा और कोई छलावा नहीं, नकदी के नाम पर कुछेक हज़ार रुपए... हिंदी के अलावा कोई और लगाव नहीं... हिंदी की वजह से जाने कितने लोगों से अलगाव।

एक वरिष्ठ गुरु मित्र ने दस दिन पहले बताया था “अधिकांश वीरता चक्र मरणोपरांत मिलते हैं...जीने का मोह है तो चक्रों का चिंतन छोड़ दो।” एन सी ई आर टी ने तो पूरी कोशिश की थी मुझे एक अच्छा परामर्शदाता बनाने की...तब मुझे भी लगता था कि मैं लोगों का मनोविज्ञान समझने लगा हूँ...मगर आज लगता है कि मुझसे ज्यादा अनपढ़-गवार कोई नहीं है और सबसे ज्यादा परामर्श की जरूरत शायद मुझे ही है।

मैं घर का बल्ब बदलने से लेकर पंखे फिट करने तक का सारा बिजली का काम कर लेता हूँ, मौंके-बेमौके प्लम्बिंग में भी हाथ आज़मा लेता हूँ। खेती करने, हल जोतने, गुड बनाने, थ्रेशर चलाने, डीजल इंजिन की मरम्मत करने, कंप्यूटर के हिस्से-पुर्जे लाकर जोड़ने और उल्टे-सीधे सॉफ्टवेयर लगाकर चालू करने का काम मैं कर लेता हूँ। खिचड़ी बनाने का बहुत लंबा अनुभव है मेरे पास और मेरी बनाई खिचड़ी खाने वालों में चाणक्य फेम डॉ चन्द्रप्रकाश से लेकर ‘ये साली ज़िंदगी’ के इरफान खान तक शामिल हैं।

इतने पर भी मैं हिंदी-हिंदी के अलावा कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ और इस काम में भी मैं प्रामाणिक सफलता से दूर ही नहीं, बहुत दूर हूँ। हाँ, दुश्मनों की एक इतनी लंबी कतार जरूर है जो शुरू होती तो दिखाई देती है मगर कहाँ तक जाती है यह नज़र नहीं आता...शायद आसमान तक है इसकी लंबाई।

क्या मैं आज अपने हिंदीग्रस्त व्यक्तित्व को बदल सकता हूँ...क्या मैं पचास की उम्र में इस रोग का इलाज कर सकता हूँ याकि कहीं कोई ऐसा डॉक्टर है जो इस लाइलाज बीमारी का इलाज कर सकता है? अगर नहीं तो मुझे अपने आपको स्वीकारना होगा और अपनी इस बीमारी को वरदान समझते हुए सहजता से जीना होगा क्यों कि ऐसा ना करने पर मेरा व्यक्तित्व पूरी तरह विखंडित हो जाएगा। एक सिपाही को मृत्यु के भय से फ्रंट से भागना शोभा नहीं देता, उसे तो सिर्फ अपना युद्ध करने का कर्तव्य पूरा करना है, वह सीमा पर दुश्मन की फौज से किसी चक्र की प्राप्ति के लिए नहीं लड़ता बल्कि अपने धर्म के पालन के लिए लड़ता है। उसके जीवन का उद्देश्य ही अपने धर्म अपने कर्तव्य के लिए, अपनी मातृभूमि के लिए जीवन न्यौछावर कर देना है। वह यह नहीं देखता कि दूसरे सिपाही क्या कर रहे हैं। उसे हार जीत की भी चिंता नहीं है, उसे सिर्फ लड़ते जाना है जब तक लड़ने की शक्ति है... चेतना है।

क्या लड़ाइयाँ केवल किसी युद्ध को जीतने के लिए लड़ी जाती है? लड़ने वाला यूंही तो नहीं लड़ता और लड़ने वाले दोनों–तीनों या चारों अपनी-अपनी सोच के अनुसार सही काम कर रहे होते हैं। छोटी-छोटी लड़ाइयाँ कब युद्ध बन जाती हैं...और कितने दुश्मन हमला करने निकाल पड़ते हैं... एक छोटा सा बेक्टीरिया कितनी जल्दी अरबों की फौज खड़ी कर लेता है...उससे लड़ने के लिए शरीर को कितने एंटीबायोटिक्स की जरूरत पड़ती है। शरीर का धर्म है बेक्टीरिया से लड़ना उधर बेक्टीरिया का धर्म है शरीर को समाप्त करना...

कुछ लड़ाइयाँ बल्कि अधिकांश लड़ाइयाँ हारने के लिए ही लड़ी जाती हैं...उन्हें हार जाने में ही सबसे बड़ी जीत होती है...महाभारत के पात्र भीष्म पितामह न चाहते हुए भी पूरी ईमानदारी से कौरवों की ओर से लड़ते हैं...वे युद्ध की परिणति अच्छी तरह से जानते हैं मगर ये भी जानते हैं कि युद्ध के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। वे जानते हैं कि उनकी मृत्यु इसी महाभारत में छुपी है मगर वे ये भी जानते हैं कि हस्तिनापुर की रक्षा के लिए उनकी मृत्यु भी उतनी ही आवश्यक है जितना उनका जीवन। वे जीते हैं तो हस्तिनापुर के लिए और मरते हैं तो भी हस्तिनापुर के लिए... महाभारत की परिणति धृतराष्ट्र और दुर्योधन भी जानते हैं मगर उस परिणति तक पहुँचने के लिए ही तो वे जन्मे थे। युद्ध के बिना उनके जीवन का उद्देश्य कैसे पूरा हो सकता था?

गलतियाँ पांडव भी करते हैं क्योंकि उन गलतियों के बिना कथा पूरी नहीं होती...महाभारत नहीं होता। -और अगर महाभारत नहीं है तो फिर न पांडवों का कोई अस्तित्व है न ही कौरवों का।

एक लड़ाई है जो अन्याय के विरोध में है...एक लड़ाई है जो अहम के पक्ष में है। प्रेशर कुकर का प्रेशर एक हद से अधिक बढ़ जाने पर कुकर को फाड़ देता है...सारे पके-पकाए चावल पूरी रसोई में बिखर जाते हैं। खाद्य अखाद्य हो जाता है। प्रेशर कुकर में उतना ही प्रेशर उचित है जितना चावल पकाने के लिए चाहिए उससे ज्यादा प्रेशर निकाल दिया जाता है और सीटी की आवाज और संख्या यह संकेत करती है कि बस अब बहुत हो गया, गैस बंद कीजिए और कुकर को चूल्हे से उतार लीजिए।

न्याय-अन्याय की भी हरेक की अपनी परिभाषाएं हैं। अन्याय अगर जीतता भी है तो खुद नाकों चने चबाने के बाद ही जीतता है। अन्याय को भी अपने अस्तित्व का अंदाज लग जाता है। न्याय अगर हारता भी है तो अन्याय को थकाकर ही हारता है। अन्याय की तुलना अंधेरे से की जा सकती है और न्याय की एक दीपक से। अंधेरा जो सर्वव्यापीहै, सबसे बड़ी ऊर्जा है... जिसे सूरज जैसी छोटी-छोटी ऊर्जाए मिटाने की कोशिश करती हैं और फिर स्वयं ही ब्लैक होल का निवाला बनकर अंधकार की बड़ी ऊर्जा का हिस्सा बन जाती हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे स्वीकारना और गले के नीचे उतारना बहुत मुश्किल है मगर जीवन भी तो एक इसी तरह की सच्चाई है जिसे अंतत: काल का ग्रास बनना ही है मगर जीते जी मृत्यु से लड़ना ही तो शरीर का कर्म है, यही तो धर्म है। उजाला, अँधियारा मिटाते-मिटाते मिट जाता है। अँधियारे को उजाला चुनौती तो दे सकता है मगर मिटा नहीं सकता क्योंकि उजाले को भी तो अंतत: अँधियारे के आगोश में समा जाना है।
-अजय मलिक



2 comments:

  1. आदरणीय मलिक जी,
    आपके विचारों को पढ़ते - पढ़ते एक कविता याद आ गई -

    आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता,
    आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता,
    जब आदमी कुछ नहीं सोचता,
    और कुछ नहीं बोलता,
    तब वह मर जाता है ।

    और फिर, यह भी तो किसी ने खूब कही है -

    साहिल के सुकूं से किसे इंकार है लेकिन,
    तुफां से लड़ने का मजा ही कुछ और है ।

    *आपका अनुज,
    कुल प्रसाद, गुवाहाटी

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  2. आदरणीय मलिक जी,

    जाने कैसे आपने वह सब लिख दिया जिसे बहुत लंबे समय से लिखना चाहता था- ज्यादा अच्छा तो नहीं लिखता लेकिन अगर मैं लिखता तो इससे अच्छा नहीं लिख सकता था ।

    आज यह हालात हैं कि वसीम बरेलवी साहब लिखते हैं-

    वसीम शहर में सच्चाइयों के लब होते,
    तो आज खबरों में सब खैरियत नहीं होती,

    क्या करें पेशे की मजबूरियों से ताल मेल बिठाते-बिठाते ऐसे हालत हो गए हैं-जैसे आप अपने आप को पा रहे है-

    इऩ बंद कमरों में मेरी सांस घुट जाती है,
    खिड़किया खोलता हूं तो जहरीली हवा आती है।

    मरना दोनों ही तरह से है- खिड़की खोलने से भी और बंद कमरे में भी---,रास्ते सारे बंद हुए, जा अब खुद में से होकर ।

    चिंता मत करिए-

    श्री अजय मलिक के करोड़ों मुरीद हैं, करोड़पति के वारिसों में खून खराबा होता है ।

    श्री डी एस पांडे जी ने के.अ.ब्यूरो में सुनाया था -
    इंसा वह जो जहर पी पी के भी जीता रहे,
    यूं तो कांटा भी मुस्कराता है बहार आने पर

    और ये भी

    SHIPS ARE SAFER IN HARBOUR BUT THEY ARE NOT MADE FOR IT ,

    शेष फिर,

    आपका ही,
    डॉ रावत
    हिंदी अधिकारी

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