आज अलमारी खोली तो अनायास ही कुछ पुराने ख़त निकल भागे । ऐसे ख़त जो बरसों पहले बड़े इंतजार के बाद अपने पते तक पहुंचे थे। ऐसे ख़त जिनसे बर्फीले तूफान सा दर्द, किसी बादल फटने से आई अचानक बाढ़ की तरह बह निकलता था। ऐसे ख़त जिन्हें पढ़ने का साहस या जरूरत दशकों पहले ही बाकी नहीं बची थी। शायद इसीलिए इन खतों को उम्रक़ैद की सजा सुनाई गई थी और सूती धागों की जंजीरों में अच्छी तरह बांधकर अलमारी में बंद कर दिया गया था।
इतने बरसों तक दो उम्रक़ैद से भी अधिक की सजा पूरी कर चुके ये ख़त आजाद होना चाहते थे या अवसर पाकर भाग जाना चाहते थे, लेकिन कुछ खताओं की सजाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं...कोई उम्रक़ैद उनके लिए काफी नहीं हो सकती।
उस अज्ञात को, जिसे हम परमात्मा वगैरा के नाम से पुकारते हैं, कुछ अपने हिसाब से करना होता है। हम जो खुद को कभी गफलत या गलतफहमी में खुदा समझ बैठते हैं, कुछ अच्छा
और सच्चा करने की जिद में सब कुछ गड़बड़ा देते हैं...और फिर जो होता है, वह बिलकुल भी वह नहीं होता, जो हम करना चाहते हैं...बस होती हैं तो सिर्फ खताएँ और लगातार होती ही चली जाती हैं। ऐसी खताएँ, जिनके
लिए कोई भी सज़ा नाकाफी होती है।
किसी मासूमियत में ऐसी ही कुछ खताएँ, कभी उन खतों से
भी हो गईं थीं। उनके लिए सज़ा-ए-मौत पर्याप्त नहीं मानी गई थी और अंतिम साँस तक की
उम्रक़ैद की सज़ा का फरमान चुपचाप जारी कर दिया गया था।
शायद वो खत भागने या रिहा होने
के लिए नहीं, बल्कि माफी मांगने के लिए निकल पड़े थे... मगर वह माफ़ी मेरे अख्तियार में
न कभी थी, न है। मैंने उनके आँसुओं को देखा मगर दिल दहला देने वाली उनकी पुकार को अनसुना कर फिर से उन्हें सूत के उन्हीं कच्चे धागों की जंजीरों में बांधकर कैदखाने के अँधेरों में
डाल दिया....
-अजय मलिक
-अजय मलिक