आदमी सोचता कुछ है, करता कुछ है और होता कुछ है। गाँव, घर, बूढ़े बाबा (दादा) और बड़े मामा की जब याद आती है तो अतीत के ढेर सारे पन्ने फड़फड़ाते पंखों की तरह खुलते चले जाते हैं। चौमासे के हफ्तों तक चले झड़ (लगातार झर-झर झरती बूदों ) के बाद नीले खुले आसमान तले, पानी के तेज प्रवाह से बहकर आई मिट्टी से बनी गोल मसनद सी पर कूदना और घुटनों तक मिट्टी में धँस जाना। ढेंचे के वे बड़े-बड़े हरे पौधे, ज्वार के आठ-दस फुट लंबे हरे पेड़ या पोधे, सुबह-सुबह न्यार (चारा) लेने सिद्धों या लालावाले खेतों पर जाना। वो बड़ी-बड़ी गड्डियाँ सिर पर लादे, गर्दन ताने दौड़ने के मानिद चलना... फिर स्कूल के लिए जैसे-तैसे भागना। स्कूल से आने पर बड़े बाबा (ताऊ) का हुक्का ताजा करने, चिलम भरने का आदेश। शाम को भैंस का दूध दूहने के लिए घंटों बैठे रहना... मच्छर ही नहीं डांस तक के डंक झेलना... सुबह-शाम कुएँ पर बाल्टी से पानी खींचकर नहाना। बरसात में कुआँ ऊपर तक भर जाता था, गज भर की रस्सी पानी खिचने के लिए काफी होती थी। काफी लोग एक साथ अलग-अलग बाल्टी लिए कुएँ पर नहाया कराते थे... वह कुआँ, उसके सामने की खुली जगह सब न जाने किस-किसने कब्जा ली है... अब वह रौनक कहीं भी नज़र नहीं आती। गाँव के लोग आज स्नेह भरी नज़रों से देखते नहीं, बल्कि संदेह भरी निगाहों से घूरते हैं। पिछले दिनों कृष्णबीर से बात हुई ... दशकों पहले वह मध्यप्रदेश पुलिस में भर्ती हो गया था... उसने बताया इस बार भी गाँव के चारों और रौह आ गई थी, खूब बरसा मेह इस बार... मगर वे छप्पर, वे ओसारे, वह छान अब गाँव में कहीं नहीं जो गाँव को गाँव होने का गौरव देते थे...
कल मोटी-मोटी नमकीन रोटियाँ बनवाईं और प्याज की गंठी के साथ खाईं...इसे आप सनक कह सकते हैं... मुँह और गला प्याज से अभी तक जला हुआ है, मगर जो आनंद मिला उसे बयान नहीं किया जा सकता। आज शहरी हो जाने के बाद सब कुछ बनावटी सा हो गया है... मिट्टी से जीवन भर आदमी भागता फिरता है और अंत में उसी मिट्टी में शरण पाता है... चांदी-सोना कितना ललचाता है, मगर अंतत: सब मिट्टी हो जाता है।